Saturday, 14 October 2000

नौजवानों से दो बातें

पीटर क्रोपोटकिन (अनुवाद  – सत्यम)

प्रिंस पीटर क्रोपोटकिन (1842-1921) रूस के प्रसिद्ध अराजकतावादी क्रान्तिकारी थे। वह एक जाने-माने भूगोलविद और भूगर्भशास्त्री थे लेकिन 1870 के दशक में सबकुछ छोड़कर क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हो गये। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन वह भागकर विदेश चले गये और 1886 में इंग्लैण्ड में बस गये। ‘एन अपील टु यंग’ नाम का उनका यह प्रसिद्ध लेख अपने पेशों में शामिल होने के लिए तैयार युवकों-युवतियों को सम्बोधित था और सबसे पहले क्रोपोटकिन के अखबार ‘ला रिवोल्ट’ में 1880 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद से दुनियाभर में एक पैम्फ़लेट के रूप में यह बार-बार छपता रहा है और आज भी इसकी अपील उतनी ही प्रभावी और झकझोर देने वाली है।

आज मैं नौजवानों को सम्बोधित करना चाहता हूं। बूढ़े इस पैम्फ़लेट को रख दें और ऐसी बातें पढ़कर अपनी आंखें न दुखायें जो उन्हें कुछ भी नहीं देंगी। जाहिर है बूढ़ों से मेरा मतलब उनसे है जो दिल और दिमाग से बूढ़े हैं।
मैं यह मानकर चल रहा हूं कि आप अठारह या बीस वर्ष की उम्र के हैं; कि आपने अपनी अप्रेण्टिसशिप या पढ़ाई पूरी कर ली है; कि आप जीवन में बस प्रवेश कर रहे हैं। मैं यह मानकर चलता हूं कि आपका दिमाग उस अंधविश्वास से मुक्त है जो आपके अध्यापक आप पर थोपने की कोशिश करते रहे; कि आप शैतान से नहीं डरते, और आप पादरियों और धर्माचार्यों की अनाप-शनाप बातें सुनने नहीं जाते। इसके साथ ही, आप उन सजे-धजे छैलों, एक सड़ रहे समाज के उन उत्पादों में से नहीं हैं जिन्हें देखकर अफ़सोस होता है, जो अपनी बढ़िया काट की पतलूनों और बंदर जैसे चेहरे लिये पार्कों में घूमते-फि़रते हैं और जिनके पास इस कम उम्र में ही सिर्फ़ एक ही चाहत होती है  किसी भी कीमत पर मौज-मस्ती लूटने की कभी न बुझने वाली चाहत।… इसके उलट, मैं यह मानता हूं कि आपके सीनों में गर्मजोशी से भरा एक दिल धड़कता है और इसीलिए मैं आपसे बात कर रहा हूं।
मैं जानता हूं कि आपके मन में पहला सवाल यह उठता है आपने अक्सर खुद से पूछा है: “मैं क्या बनूंगा?” यह सच है कि नौजवानी में इनसान यह सोचता है कि किसी विद्या या विज्ञान का वर्षों तक समाज की कीमत पर अध्ययन करने के बाद वह अपनी बुद्धि, अपनी क्षमता, अपने ज्ञान का इस्तेमाल उन लोगों को अधिकार दिलाने के लिए करेगा जो आज बदहाली, दुख और अज्ञान में जी रहे हैं। उसने अपनी पढ़ाई इसलिए नहीं की है कि वह अपनी उपलब्धियों को अपने निजी लाभ के लिए लूट के औजारों के रूप में इस्तेमाल करेगा। अगर वह ऐसा नहीं सोचता तो जरूर ही उसका मस्तिष्क विकृत होगा और व्यसनों ने उसे पागल बना दिया होगा।
आप भी उनमें से हैं जो ऐसा सपना देखते हैं, देखते हैं न? अच्छी बात है, आइये, अब देखते हैं कि अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए आपको क्या करना चाहिए।
मैं नहीं जानता कि आप किस तबके में जन्मे हैं। हो सकता है कि आप पर भाग्य की कृपादृष्टि हो और आप विज्ञान का अध्ययन कर सके हों; आप डाक्टर, बैरिस्टर, लेखक या वैज्ञानिक बनने वाले हों; आपके सामने एक व्यापक क्षेत्र खुला हो; आप विस्तृत ज्ञान और प्रशिक्षित मेधा से लैस होकर जीवन में प्रवेश कर रहे हों। या फि़र यह भी हो सकता है कि आप महज एक ईमानदार दस्तकार हों जिसका विज्ञान का ज्ञान उतना ही है जितना आपने स्कूल में सीखा था; लेकिन आपके साथ यह फ़ायदा है कि आपने खुद अपने अनुभव से यह सीखा है कि हमारे समय में मेहनतकश लोग कैसी कमरतोड़ मेहनत की जिन्दगी गुजारते हैं।
अभी मैं पहले वाली बात लेकर चलूंगा, दूसरी स्थिति पर हम आगे बात करेंगे। मैं यह मान लेता हूं कि आपको वैज्ञानिक शिक्षा मिली है। मान लेते हैं कि आप डाक्टर बनना चाहते हैं। कल मोटे कपड़े पहने हुए एक व्यक्ति आपको एक बीमार औरत को देखने के लिए बुलाने आयेगा। वह आपको उन संकरी गलियों में से एक में ले जायेगा जहां आमने-सामने रहने वाले पड़ोसी चाहें तो राहगीरों के सिर के ऊपर से एक-दूसरे से हाथ मिला सकते हैं। आप गंदगी और बदबू से भरे एक माहौल में दाखिल होते हैं जहां सिर्फ़ एक घिसी हुई ढिबरी की टिमटिमाती लौ रोशनी दे रही है। आप गंदी सीढ़ियों से गुजरते हुए दो, तीन, चार या पांच मंजिल ऊपर चढ़ते हैं और एक अंधेरे, सर्द कमरे में आप पाते हैं कि वह बीमार औरत गंदे चिथड़ों से ढंके बिस्तर पर लेटी है। फ़टे-पुराने कपड़ों में ठिठुरते हुए पीले चेहरे वाले बच्चे बड़ी-बड़ी आंखों से आपको देखते हैं। औरत का पति जीवन भर बारह-तेरह घंटे रोज काम करता रहा है, चाहे जो भी हो जाये। अब पिछले तीन महीने से वह बेरोजगार है। उसके धंधे में बेकार होना अनहोनी बात नहीं है; हर साल एकाध बार ऐसा होता है। लेकिन पहले जब वह बेरोजगार होता था तो उसकी पत्नी पन्द्रह आने रोज पर घरों में काम कर लिया करती थी शायद उसने आपकी भी कमीजें धोई हों; लेकिन अब पिछले दो महीने से वह बिस्तर पर है, और दुख-तकलीफ़ ने अपने गंदे पंजों में पूरे परिवार को जकड़ लिया है।
डाक्टर, आप उस बीमार औरत के लिए क्या नुस्खा लिखेंगे? आपने पहली नजर में ही देख लिया है कि उसकी बीमारी की वजह खून की कमी, अच्छे भोजन का अभाव और ताजा हवा न मिलना है। आप उसे क्या लेने को कहेंगे रोज अच्छा भुना हुआ मांस? देहात की खुली हवा में थोड़ी कसरत? नमी से मुक्त और हवादार बेडरूम? क्या विडम्बना है! अगर वह इस सबका खर्च उठा सकती तो आपकी सलाह का इंतजार किये बिना ही बहुत पहले ही यह सब हो चुका होता।
अगर आप दिल के भले हैं, साफ़गोई से बातें करते हैं और आपके चेहरे पर ईमानदारी है तो परिवार के लोग आपको बहुत सी बातें बतायेंगे। वह आपको बतायेंगे कि पार्टीशन के दूसरी ओर रहने वाली औरत जो इस कदर खांसती है कि सुनकर आपका कलेजा फ़टने लगता है, एक गरीब धोबिन है जो कपड़े इस्तरी करके गुजारा करती है; कि एक मंजिल नीचे रहने वाले सारे बच्चों को बुखार है; कि सबसे नीचे रहने वाली दर्जिन बसन्त तक जिन्दा नहीं रह पायेगी; और अगले मकान में तो हालात और भी बुरे हैं।
इन सब बीमार लोगों से आप क्या कहेंगे? आप उन्हें भरपूर खाना खाने, हवा बदलने, थोड़ी कम मेहनत करने की सलाह देंगे…आप सोचते हैं कि काश आप ऐसा कर पाते लेकिन आप ऐसा कहने की भी हिम्मत नहीं कर पाते और टूटे दिल के साथ आप बाहर आ जाते हैं, आपके होंठों पर बस एक गाली होती है।
अगले दिन आप उस कबूतरखाने में रहने वाले लोगों की किस्मत पर दुखी मन से सोच रहे होते हैं कि आपका पार्टनर बताता है कि कल एक नौकर उसे लेने आया था, चार घोड़ों वाली एक बग्घी में। यह एक बढ़िया हवेली की मालकिन के लिए थी, रातों को नींद न आने के कारण थकी हुई एक औरत के लिए जिसका सारा समय सजने-धजने, भेंट-मुलाकातों, नाच-पार्टियों और मूर्ख पति के साथ झगड़ों में खर्च होता था। आपके दोस्त ने उसे सलाह दी कि अपने जीने के ढंग को थोड़ा नियमित करे, थोड़ा कम गरिष्ठ भोजन करे, खुली हवा में थोड़ा टहल लिया करे, गुस्से को काबू में रखे और किसी तरह के उपयोगी काम के अभाव की थोड़ी-बहुत भरपाई करने के लिए अपने बेडरूम में ही कुछ कसरत-वसरत कर लिया करे।
एक इसलिए मर रही है क्योंकि उसे अपने पूरे जीवन में न तो कभी जी भर खाना मिला है और न ही जी भर आराम; दूसरी इसलिए दुखी है क्योंकि उसने अपने जन्म के समय से कभी यह जाना ही नहीं है कि काम क्या होता है।
अगर आप ऐसे तुच्छ स्वभाव के व्यक्ति हैं जो खुद को हर चीज का आदी बना लेता है, जो बेहद विचलित कर देने वाले दृश्यों को देखकर भी बस एक ठण्डी आह और शेरी के एक गिलास से राहत पा जाता है, तो आप धीरे-धीरे ऐसी विपरीत स्थितियों के आदी बन जायेंगे, और एक पशुवृत्ति आप पर हावी होती जायेगी; आपके जेहन में बस एक ही ख्याल रहेगा, कि किसी तरह मौज-मस्ती में जीनेवालों की बिरादरी में शामिल हो जायें ताकि फि़र कभी उन दुखियारों के बीच न जाना पड़े। लेकिन अगर आप इंसान हैं, अगर आपकी हर भावना इच्छापूर्वक किये गये कार्य में तब्दील होती है; अगर आपके भीतर बुद्धिमान व्यक्ति को पशु ने कुचला नहीं है, तो किसी दिन आप खुद से यह कहते हुए घर लौटेंगे, “नहीं, यह गलत है; ऐसा अब और नहीं चलते रहना चाहिए। बीमारियों का इलाज करना ही काफ़ी नहीं है; हमें उनकी रोकथाम करनी चाहिए। जीवन-स्तर में थोड़ा-सा सुधार और थोड़े से बौद्धिक विकास से हमारे आधे रोगी और आधी बीमारियां खत्म हो जायेंगी। शरीर विज्ञान को कुछ देर किनारे रख दो! खुली हवा, अच्छा भोजन, कम जानलेवा मेहनत हमें यहां से शुरू करना चाहिए। इसके बिना डाक्टर का पूरा पेशा ही ठगी और बात-बहादुरी के सिवा कुछ नहीं रह जायेगा।”
उसी दिन आप समाजवाद को समझना शुरू कर देंगे। आप इसे पूरी तरह जानना चाहेंगे, और अगर परोपकार शब्द आपके लिए महत्वहीन नहीं है, अगर आप प्राकृतिक विज्ञान के दार्शनिक की तर्कशीलता को सामाजिक प्रश्न के अध्ययन पर लागू करेंगे, तो आप पायेंगे कि अंततः आप हमारे बीच आ गये हैं, और आप सामाजिक क्रान्ति लाने के लिए वैसे ही काम करेंगे जैसे हम करते हैं।
लेकिन शायद आप कहेंगे, “सिर्फ़ व्यावहारिक काम भाड़ में जाये! मैं खुद को शुद्ध विज्ञान के लिए समर्पित करूंगा: मैं एक खगोलशास्त्री, एक भौतिकविज्ञानी, एक रसायनविज्ञानी बनूंगा। यही वे काम हैं जो हमेशा फ़लदायी होते हैं, भले ही वे फ़ल सिर्फ़ भावी पीढ़ियों को मिलें।”
आइए, पहले ये समझने की कोशिश करें कि आप विज्ञान के प्रति समर्पित होकर क्या हासिल करना चाहते हैं। क्या आप महज उस आनन्द की खोज में हैं जो बेशक अपरिमित होता है जो प्रकृति के अध्ययन और हमारी बौद्धिक क्षमताओं के प्रयोग से प्राप्त होता है? अगर बात यह है तो मैं आपसे कहूंगा कि जो दार्शनिक इसलिए विज्ञान को अपनाता है कि वह अपना जीवन सुखद बना सके, वह उस पियक्कड़ से किस तरह अलग है जो सिर्फ़ शराब से मिलने वाले तात्कालिक सुख की तलाश में जीता है? इसमें कोई शक नहीं कि दार्शनिक ने अपना सुख-साधन ज्यादा बुद्धिमानी से चुना है, क्योंकि यह उसे दारूबाज की तुलना में कहीं ज्यादा गहरा और दीर्घजीवी आनन्द देता है। लेकिन बस इतना ही फ़र्क है! दोनों का उद्देश्य उतना ही स्वार्थपूर्ण है निजी सुख।
लेकिन नहीं, आपको यह स्वार्थपूर्ण जीवन बिताने की चाह नहीं है। विज्ञान के लिए काम करके आप मानवता के लिए काम करना चाहते हैं, और अपने अध्ययन तथा जांच-पड़ताल में आप इसी विचार से निर्देशित होंगे।
यह एक सुहाना भ्रम है! हममें से कौन होगा जिसने पहली बार विज्ञान के प्रति समर्पित होते समय इसे गले नहीं लगाया होगा?
लेकिन अगर आप वाकई मानवता के बारे में सोच रहे हैं, अगर आप अपने अध्ययन में मानवता की भलाई का लक्ष्य रखते हैं, तो एक विराट प्रश्न आपके सामने उठ खड़ा होता है; क्योंकि आपमें चाहे जितनी भी कम आलोचनात्मक भावना क्यों न हो, आप जल्दी ही यह देख लेंगे कि हमारे आज के समाज में विज्ञान विलासिता के मातहत ही है, इसका इस्तेमाल कुछ लोगों के लिए जीवन सुखपूर्ण बनाने के लिए होता है लेकिन अधिकांश मानवता की पहुंच से यह दूर ही रहता है।
ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बारे में विज्ञान की ठोस प्रस्थापनाओं को आये एक सदी से ज्यादा अरसा गुजर चुका है, लेकिन हममें से कितने हैं जो इन्हें पूरी तरह समझते हैं या वास्तविक वैज्ञानिक आलोचनात्मक दृष्टि से लैस हैं? मुश्किल से कुछ हजार लोग जो उन करोड़ों लोगों के बीच खोये से हैं जो अब भी पूर्वाग्रहों और अंधविश्वासों में डूबे हुए हैं और इसके परिणामस्वरूप धार्मिक पाखंडियों की कठपुतलियां बनने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।
एक कदम और आगे बढ़ें और जरा इस बात पर एक नजर डालें कि विज्ञान ने भौतिक और नैतिक स्वास्थ्य के तर्कपूर्ण आधार स्थापित करने के लिए क्या किया है। विज्ञान हमें बताता है कि अपने शरीर के स्वास्थ्य की हिफ़ाजत के लिए हमें कैसे जीना चाहिए, हमारी भीड़भरी आबादी को जीवन की बेहतर परिस्थितियां मुहैया कराने के लिए क्या करना चाहिए। लेकिन इन दो दिशाओं में किया गया अपार काम क्या महज हमारी किताबों में कैद होकर नहीं रह गया है? हम जानते हैं कि ऐसा ही है। और भला क्यों? क्योंकि विज्ञान आज सिर्फ़ मुट्ठीभर विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए है, क्योंकि समाज को दो वर्गों मजदूरी पाने वाले गुलामों और पूंजी हड़पने वालों में बांटने वाली सामाजिक असमानता तर्कपूर्ण जीवनस्थितियों की इसकी तमाम शिक्षाओं को नब्बे प्रतिशत इंसानों के लिए एक कड़वा मजाक बनाकर रख देती है।
मैं ऐसे बहुत से उदाहरण दे सकता हूं लेकिन मैं इतने पर ही रुक जाता हूं: आप बस इतना कीजिए कि फ़ाउस्ट की कोठरी के बाहर जाइये जिसकी धूल से अटी खिड़कियों से छनकर धूमिल रोशनी किताबों से भरी उसकी आलमारियों पर पड़ती है; अपने इर्दगिर्द देखिए और आपको हर कदम पर इस विचार के समर्थन में नये सबूत मिलेंगे।
अब ये महज वैज्ञानिक सत्यों और आविष्कारों को बटोरने का सवाल नहीं रहा। सबसे बढ़कर जरूरी यह है कि विज्ञान अब तक जो खोजें कर चुका है उन्हें हर ओर फ़ैलाया जाये, उन्हें अपने रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा बना लिया जाये, उन्हें सबकी साझा सम्पत्ति बना दिया जाये। हमें चीजों को इस तरह से व्यवस्थित करना होगा ताकि हर कोई, तमाम मानवजाति इन सत्यों को समझने और लागू करने के काबिल हो जाये; हमें विज्ञान को विलासिता की वस्तु नहीं बल्कि हर इंसान के जीवन की बुनियाद बनाना होगा। इंसाफ़ का यही तकाजा है।
मैं और आगे बढ़ता हूं: मैं कहता हूं कि खुद विज्ञान का हित इसी बात में है। विज्ञान वास्तव में तभी प्रगति करता है जब किसी नये सत्य के लिए जमीन पहले से तैयार होती है। ऊष्मा की यांत्रिक उत्पत्ति का सिद्धान्त पिछली शताब्दी में ही खोजा जा चुका था ;उसी रूप में जैसे हर्न और क्लासियस आज इसे सूत्रबद्ध करते हैं) लेकिन यह अस्सी वर्ष तक अकादमिक दस्तावेजों में दफ्न रहा, तब तक जब तक कि भौतिक विज्ञान की जानकारी इतनी फ़ैल गयी कि उसे स्वीकार करने लायक लोग तैयार हो गये। प्रजातियों की विविधताओं के बारे में इरासमस डार्विन के विचार उनके पोते ;चार्ल्स डार्विन) के जरिए तीन पीढ़ियों के बाद अकादमिक दार्शनिकों द्वारा स्वीकारे गये, और यह भी जनमत के दबाव के बिना नहीं हुआ। कवि या कलाकार की तरह दार्शनिक भी हमेशा ही उस समाज की उपज होता है जिसमें वह जीता और शिक्षाएं देता है।
लेकिन अगर आपमें ये विचार खदबदा रहे हैं, तो आप समझेंगे कि सबसे महत्वपूर्ण काम यह है कि उस हालात में आमूलचूल परिवर्तन लाया जाये जिसमें एक ओर तो दार्शनिक वैज्ञानिक सत्यों से ठसाठस भरा होता है, और दूसरी ओर इंसानों की भारी आबादी उसी हाल में रहती है जिसमें वे पांच या दस सदी पहले थे यानी गुलामों और मशीनों की हालत में और स्थापित सत्यों को भी समझने में असमर्थ होती है। और जिस दिन आप इस व्यापक, गहरे, मानवीय और ठोस वैज्ञानिक सत्य को अपना लेंगे, उसी दिन आप विशुद्ध विज्ञान में अपनी अभिरुचि खो देंगे। आप इस बदलाव को लाने के उपाय ढूंढ़ने में लग जायेंगे, और अगर आप इस खोज में वैसी ही निष्पक्षता का परिचय देंगे जो आपने अपने वैज्ञानिक अनुसंधान में दिखायी तो जरूर ही आप समाजवाद के लक्ष्य को अपना लेंगे; तमाम झूठे तर्कों को आप छोड़ देंगे और हमारे बीच आ जायेंगे। पहले ही सुख और विलासिता में जी रहे इस छोटे से समूह के लिए और अधिक सुख के सामान जुटाने के बजाय आप अपना ज्ञान और समर्पण उनकी सेवा में लगायेंगे जो वंचित और उत्पीड़ित हैं।
और यकीन मानिए कि आपको एक महान कर्तव्य पूरा करने की खुशी महसूस होगी, अपनी भावनाओं और अपने कामों के बीच वास्तविक एकता का एहसास होगा, और तब आप पायेंगे कि आपके भीतर ऐसी शक्तियां हैं जिनका आपको कभी सपने में भी आभास नहीं था। और जिस दिन और हमारे प्राफ़ेेसरों की तमाम कोशिशों के बावजूद वह दिन दूर नहीं है जिस दिन वह बदलाव हो जायेगा जिसके लिए आप काम कर रहे हैं, तो सामूहिक वैज्ञानिक काम से नई शक्तियां पाकर और इसे अपनी ऊर्जा देने वाले मजदूरों की सेनाओं की ताकतवर मदद पाकर विज्ञान आगे की ओर एक ऐसी जबर्दस्त छलांग भरेगा जिसकी तुलना में आज की धीमी प्रगति नौसिखुओं के छिटपुट प्रयोगों जैसी लगेगी।
तब आप विज्ञान का आनन्द उठा सकेंगे; वह आनन्द सबके लिए होगा।
अगर आप कानून की पढ़ाई पूरी कर चुके हैं और बार में शामिल होने वाले हैं, तो शायद आप भी अपनी भावी गतिविधि लेकर कई भ्रम पाले हुए हैं मैं यह मानकर चल रहा हूं कि आप ऊंची भावना वाले लोगों में से एक हैं और यह समझते हैं कि दूसरों की भलाई करने का क्या मतलब होता है। शायद आप सोचते हैं, “मैं अपना जीवन हर तरह के अन्याय के विरुद्ध अनवरत और ऊर्जस्वी संघर्ष को समर्पित करूंगा! मैं अपनी सारी क्षमताएं कानून, यानी सर्वोच्च न्याय की अभिव्यक्ति की विजय के लिए लगाऊंगा क्या इससे बढ़कर उदात्त कैरियर कोई हो सकता है?” आप आत्मविश्वास से भरे हुए अपने चुने हुए पेशे में जीवन की शुरुआत करते हैं।
ठीक है: हम लॉ रिपोर्ट्स का कोई भी पन्ना पलटते हैं और देखते हैं कि असली जिन्दगी आपको क्या बतायेगी।
हमारे सामने एक धनी भूस्वामी का मामला है। वह अपने एक असामी की बेदखली की मांग करता है जिसने लगान नहीं चुकाया है। कानूनी दृष्टिकोण से मुकदमा निर्विवाद है; गरीब किसान लगान नहीं चुका सकता इसलिए उसे धक्के मारकर निकाल देने के अलावा और कोई उपाय नहीं। लेकिन अगर हम तथ्यों की जांच करेंगे तो हमें कुछ इस तरह की बातें पता चलेंगी: जमींदार वसूल किया हुआ लगान ऐशो-आराम में उड़ाता रहा है और असामी दिनो-रात कड़ी मेहनत करता रहा है। जमींदार ने अपनी जागीर की हालत सुधारने के लिए कुछ नहीं किया है, फि़र भी एक रेलवे लाइन का निर्माण, नई सड़कों के बनने, एक दलदली भूमि को सुखाये जाने और परती जमीन पर खेती शुरू हो जाने के चलते उसकी जमीन की कीमत पचास वर्ष के भीतर तीन गुना हो गयी है। लेकिन इस बढ़ोत्तरी में भारी योगदान करने वाले असामी किसान ने खुद को बरबाद कर लिया है; वह सूदखोरों के हाथ में पड़ गया और गले तक कर्ज में डूबा हुआ है। वह अब जमींदार को लगान चुकाने की हालत में नहीं है। कानून, जो हमेशा सम्पत्ति का पक्ष लेता है, इस मामले में एकदम स्पष्ट है: जमींदार का पक्ष सही है। लेकिन आप, जिसकी न्याय भावना अब तक कानून के फ़रेबी तर्कों से दबी नहीं है, आप क्या करेंगे? क्या आप कहेंगे कि किसान को सड़क पर खदेड़ दिया जाना चाहिए? कानून तो यही कहता है। या आप अपील करेंगे कि जमींदार को अपनी सम्पत्ति में हुई बढ़ोत्तरी किसान को लौटा देनी चाहिए जिसकी मेहनत का वह नतीजा है? इंसाफ़ का यही तकाजा है। आप किधर खड़े होंगे? कानून के पक्ष और न्याय के विरोध में, या न्याय के पक्ष और कानून के विरोध में?
या जब मजदूर बिना नोटिस दिये मालिक के खिलाफ़ हड़ताल पर चले जायें, तो आप किसका पक्ष लेंगे? कानून का पक्ष, यानी उस मालिक का पक्ष जिसने आर्थिक संकट के एक दौर का फ़ायदा उठाकर बेहिसाब मुनाफ़ा कमाया है? या आप कानून के विरुद्ध, लेकिन उन मजदूरों के पक्ष में खड़े होंगे जो इस पूरे दौरान महज दो आने रोज की मजदूरी पर काम करते रहे और अपनी बीवियों और बच्चों को अपनी आंखों के सामने भूख और बीमारी से मरता देखते रहे? क्या आप धोखाधड़ी से भरे कागज के उस टुकड़े के पक्ष में खड़े होंगे जो “अनुबंध की स्वतंत्रता” की बात करता है? या आप इंसाफ़ का पक्ष लेंगे जिसके मुताबिक एक ऐसे अनुबंध का कोई मतलब नहीं है जिसमें एक पक्ष जमकर खाया-पिया हुआ व्यक्ति हो और दूसरा ऐसा व्यक्ति जो महज जीने के लिए अपना श्रम बेचता है; ऐसा अनुबंध दरअसल अनुबंध ही नहीं है जो ताकतवर और कमजोर के बीच किया गया हो।
एक और मामला लेते हैं। यहां लंदन में एक व्यक्ति मांस की दुकान के आसपास मंडरा रहा था। उसने मांस का एक टुकड़ा उठाया और वहां से भागा। उसे गिरफ्तार करके पूछताछ की गयी तो पता चला कि वह एक बेरोजगार कारीगर है और उसने तथा उसके परिवार ने चार दिन से कुछ नहीं खाया है। दुकानदार से कहा जाता है कि वह उस व्यक्ति को जाने दे मगर वह तो अड़ा हुआ है कि उसे इंसाफ़ चाहिए! वह मुकदमा कर देता है और उस व्यक्ति को छह महीने की कैद हो जाती है। कानून अंधा होता है! जब आप हर दिन ऐसे ही फ़ैसले सुनते हैं तो क्या कानून और समाज के खिलाफ़ आपकी अंतरात्मा बगावत नहीं कर देती?
या फि़र, क्या आप उस व्यक्ति के खिलाफ़ कानून लागू करने की बात करेंगे जिसका बचपन से ही न तो ठीक से पालन हुआ और न कभी उसे प्यार के दो शब्द सुनने को मिले। जमाने भर की ठोकरें खाया हुआ वह एक जागीर पर पहुंचता है और चंद सिक्कों के लिए अपने पड़ोसी की हत्या कर देता है। क्या आप उसे फ़ांसी दिये जाने, या इससे भी बुरी सजा, बीस साल की कैद दिलाने की मांग करेंगे, जबकि आप अच्छी तरह जानते हैं कि वह कोई अपराधी नहीं बल्कि एक सिरफि़रा है, और वैसे भी उसके जुर्म का दोषी हमारा पूरा समाज है?
क्या आप कहेंगे कि हताशा के एक क्षण में मिल को आग लगा देने वाले सूती कपड़ा मजदूरों को जेल में ठूंस देना चाहिए; कि एक धनपशु हत्यारे पर गोली चलाने वाले उस व्यक्ति को आजीवन कारावास होना चाहिए; कि उन विद्रोहियों को गोली मार देनी चाहिए जिन्होंने बैरिकेडों पर भविष्य का झंडा लहराया था? नहीं, हजार बार नहीं!
अगर आप कालेज में पढ़ायी गयी बातों को दुहराने के बजाय विवेक से सोचेंगे; अगर आप कानून का विश्लेषण करेंगे और कानून की असली जड़ यानी ताकतवर के अधिकार और इसके सार, यानी मनुष्य जाति के लम्बे और रक्तरंजित इतिहास की तमाम तानाशाहियों को जायज ठहराने के लिए कानून के इर्दगिर्द बुने गये शब्दजाल को नोचकर फ़ेंक देंगे; जब आप इसे समझ लेंगे तो कानून के प्रति आपकी नफ़रत और भी गहरी हो जायेगी। आप यह समझ जायेंगे कि लिखित कानून का सेवक बने रहने का मतलब है रोज-ब-रोज अंतरात्मा के कानून के खिलाफ़ खड़े होना और गलत का पक्ष लेना। और चूंकि यह संघर्ष हमेशा नहीं चलता रह सकता, इसलिए या तो आप अपनी अंतरात्मा का गला घोंटकर एक धूर्त बदमाश बन जायेंगे, या फि़र आप परम्परा से नाता तोड़ लेंगे और हमारे साथ मिलकर इस आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अन्याय को पूरी तरह नष्ट करने के लिए काम करेंगे।
लेकिन तब आप एक समाजवादी बन जायेंगे, एक क्रान्तिवादी बन जायेंगे।
और आप, युवा इंजीनियर, आप जो कि उद्योगों में विज्ञान को लागू करके मजदूरों की दशा सुधारने के सपने देखते हैं कैसी दुखद निराशा, कैसा भयानक मोहभंग आपकी प्रतीक्षा में है! आप अपने दिमाग की उपयोगी ऊर्जा का इस्तेमाल करके एक ऐसी रेलवे लाइन की योजना तैयार करते हैं जो गहरे खड्डों के किनारे से गुजरती हुई और ग्रेनाइट के पहाड़ों का सीना चीरती हुई दो देशों को एक करेगी जिन्हें प्रकृति ने अलग-अलग कर दिया है। लेकिन जैसे ही काम शुरू होता है, आप देखते हैं कि अभावों और बीमारी के शिकार मजदूरों की फ़ौजें उन अंधेरी सुरंगों में खट रही हैं आप देखते हैं कि उनमें से बहुतेरे चंद बचे हुए सिक्कों और तपेदिक के कीटाणुओं को लेकर घर लौट रहे हैं; रेलमार्ग के हर नये हिस्से पर मील के पत्थरों की तरह आप लोगों के शव देखते हैं जो एक अंधे लालच का नतीजा है; और जब रेल मार्ग बनकर तैयार होता है तो आप पाते हैं कि वह एक हमलावर सेना के तोपखाने को भेजने के लिए इस्तेमाल हो रहा है…
आपने अपनी जवानी के सबसे अच्छे साल एक ऐसे आविष्कार को अंतिम रूप देने में गुजार दिये हैं जिससे उत्पादन में आसानी होगी और कई प्रयोगों के बाद, रात-रात भर जागने के बाद आखिरकार आप इस मूल्यवान खोज में सफ़ल होते हैं। आप इसे इस्तेमाल में लगाते हैं और इसका नतीजा आपकी उम्मीदों से कहीं बढ़कर सामने आता है। दस या बीस हजार आदमी सड़कों पर फ़ेंक दिये जाते हैं! जो बचे रह जाते हैं, जिनमें से ज्यादातर बच्चे हैं, महज मशीन के एक पार्ट बनकर रह जायेंगे! तीन, चार, दस मालिक अपनी दौलत को कई गुना और बढ़ा लेंगे और पहले से भी अधिक अय्याशी में डूब जायेंगे…क्या यही आपका सपना है?
अंततः, आप हाल में उद्योगों में हुए विकास का अध्ययन करते हैं और आप देखते हैं कि सिलाई मशीन के आविष्कार से सिलाई करने वाली स्त्री को कोई भी फ़ायदा नहीं हुआ है; कि हीरे की नोक वाली ड्रिल मशीनों के बावजूद सेंट गोटहार्ड सुरंग का मजदूर एंकीलोसिस से मर जाता है; कि गिफ़ार्ड कम्पनी की लिफ्ट आने के बाद भी राजगीर और दिहाड़ी मजदूर पहले की तरह अब भी बेरोजगार हैं। अगर आप उसी स्वतंत्र भावना के साथ सामाजिक समस्याओं पर विचार करेंगे जो यंत्रें के अनुसंधान में आपने दिखायी थी, तो यकीनन आप इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि निजी सम्पत्ति और उजरती गुलामी के वर्चस्व के तहत हर नया आविष्कार मजदूर की गुलामी को ज्यादा सख्त बनाता है, उसके श्रम को ज्यादा कमरतोड़ बनाता है, मंदी और बेकारी के दौर पहले से भी जल्दी-जल्दी आते हैं, संकट पहले से ज्यादा तीखे होते हैं और इससे फ़ायदा सिर्फ़ उस शख्स को होता है जिसके पास पहले से ही ऐशोआराम के सारे साधन मौजूद होते हैं।
जब आप इस नतीजे पर पहुंच जायेंगे तो आप क्या करेंगे? या तो आप तरह-तरह के तर्कों से अपनी अंतरात्मा को शांत करना शुरू कर देंगे और फि़र एक दिन आप नौजवानी के अपने ईमानदार सपनों को अलविदा कह देंगे और अपने लिए सुख के साधन बटोरने में जुट जायेंगे तब आप शोषकों के खेमे में चले जायेंगे। या फि़र अगर आपके सीने में कोमल हृदय है, तो आप खुद से कहेंगे: “नहीं, यह समय आविष्कारों का नहीं है। पहले हमें उत्पादन के पूरे ढांचे को बदल देने के लिए काम करना होगा। जब निजी सम्पत्ति का खात्मा हो जायेगा, तब उद्योगों में हर नई खोज से पूरी मानव जाति को लाभ होगा; और तब मजदूरों की यह बड़ी जमात जो आज महज मशीन बन कर रह गई है, तब सोचने-समझने वाले लोगों का एक समूह बन जायेगी जो अध्ययन से प्रशिक्षित और शारीरिक श्रम के दौरान कुशल बनी अपनी बुद्धि को उद्योगों के विकास में लगायेंगे और इस तरह यंत्रें में होने वाली प्रगति आगे की ओर एक ऐसी उछाल भरेगी जो पचास वर्ष के भीतर इतना कुछ हासिल कर लेगी जिसके बारे में आज हम सपना भी नहीं देख सकते।”
और मैं स्कूल मास्टर से क्या कहूं उस व्यक्ति से नहीं जो अपने पेशे को एक उबाऊ काम मानता है बल्कि उससे जो खुशी से छलकते उत्साही बच्चों से घिरा होने पर उनके चहकते चेहरों और निश्छल हंसी से खुद भी उत्साहित हो उठता है, मैं उससे अपनी बात कहता हूं जो उनके छोटे-छोटे दिमागों में मानवता के वे विचार भरने की कोशिश करता है जो उसने अपनी नौजवानी में संजोये थे।
अक्सर मैं देखता हूं कि आप उदास हैं और मैं जानता हूं कि आपके माथे पर बल क्यों पड़े हैं। आज आपके प्रिय छात्र ने विलियम टेल की कहानी इतने उत्साह के साथ कक्षा में पढ़कर सुनायी! बेशक उसका लैटिन का ज्ञान उतना अच्छा नहीं है लेकिन उसका दिल निश्छल और उमंग से भरा है। उसकी आंखें चमक रही थीं; ऐसा लगता था कि वह तमाम अत्याचारियों को वहीं खत्म कर देना चाहता है; उसने इतने जोश के साथ शिलर की ये भावपूर्ण पंक्तियां पढ़ीं:
तोड़ दे जब दास अपनी बेड़ियों को
उठ खड़ा हो तब मुक्त मनुज भी।
लेकिन जब वह घर लौटा तो उसकी मां, उसके पिता, उसके चाचा ने उसे पादरी या देहात के पुलिसमैन के प्रति सम्मान नहीं दिखाने के लिए कस कर लताड़ लगाई; “दूरदर्शिता, अधिकारियों के प्रति सम्मान, अपने से बड़ों के आगे झुकने” को लेकर उसे तब तक भाषण पिलाते रहे जब तक कि उसने शिलर को ताक पर रखकर “अपनी मदद कैसे करें” पढ़ना नहीं शुरू कर दिया।
और फि़र, कल ही आपको पता चला कि आपके सबसे अच्छे शिष्य जीवन में खासे बिगड़े लोग निकले हैं। एक तो दिनो-रात बस अफ़सर बनने के सपने देखता है; दूसरा अपने मालिक के साथ मिलकर मजदूरों की मामूली मजदूरी में से चोरी करने की जुगत भिड़ाता रहता है; और आप अपने आदर्शों और जीवन के इस वैषम्य पर सोचते और दुखी होते रहते हैं।
आप अब भी इस पर चिन्तन-मनन करते रहते हैं! लेकिन मैं देख रहा हूं कि अब से दो साल बाद हताशा-दर-हताशा से गुजरने के बाद आप अपने प्रिय लेखकों को उठाकर धर देंगे और कहने लगेंगे कि बेशक टेल एक बड़ा ईमानदार व्यक्ति था लेकिन वह थोड़ा सिरफि़रा था; कि कविता ड्राइंगरूम में जलती आग के पास बैठकर पढ़ने के लिए बड़ी अच्छी चीज है, खासकर तब जब आप सारे दिन तीन का पहाड़ा सिखाते रहे हों, लेकिन कविगण हमेशा ही आसमान में रहते हैं और उनके विचारों का न तो आज के जीवन से कोई ताल्लुक होता है और न ही इंस्पेक्टर ऑफ़ स्कूल्स के अगले दौरे से…
या, हो सकता है कि आपकी नौजवानी के सपने परिपक्व अवस्था में आपके दृढ़ विचार बन जायें। आपकी इच्छा हो कि स्कूलों में और स्कूलों के बाहर सबके लिए खुली और मानवीय शिक्षा का प्रबंध हो। यह देखते हुए कि मौजूदा हालात में यह असम्भव है, आप बुर्जुआ समाज की नींव पर ही हमला शुरू कर देंगे। फि़र आपको शिक्षा विभाग द्वारा बर्खास्त कर दिया जायेगा और आप अपना स्कूल छोड़कर हमारे बीच आ जायेंगे और हममें से एक बन जायेंगे। आप उन लोगों को ज्ञान देने लगेंगे जो जिन्दगी के तमाम अनुभव हासिल करने के बाद भी शिक्षा से वंचित हैं; आप उनको बतायेंगे कि मानवजाति को कैसा होना चाहिए, या हम सब मिलकर क्या कर सकते हैं। आप मौजूदा व्यवस्था को पूरी तरह बदल डालने के लिए समाजवादियों के साथ मिलकर काम करेंगे, सच्ची समानता, वास्तविक बंधुत्व और पूरे विश्व के लिए कभी न खत्म होने वाली स्वतंत्रता का लक्ष्य हासिल करने के वास्ते हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ेंगे।
अंत में, मैं युवा कलाकार, मूर्तिकार, चित्रकार, कवि और संगीतकार से बात करता हूं, क्या आप नहीं देखते कि आपके पूर्वजों को प्रेरित करने वाली वह पवित्र अग्नि आज के इंसानों में नजर नहीं आती? कि आज कला सड़क-बाजार की चीज बना दी गयी है और सर्वत्र औसतपने का राज है?
क्या इसके अलावा भी कुछ हो सकता है? प्राचीन विश्व की फि़र से खोज करने, प्रकृति के सोतों में नहाकर ताजा हो जाने की वह खुशी जिससे पुनर्जागरण काल की महान कृतियों का जन्म हुआ था, हमारे युग की कला से नदारद है; क्रान्तिकारी आदर्शों से रहित यह अब तक ठंडी पड़ी रही है, और किसी दूसरे आदर्श के अभाव में हमारी कला सोचती है कि यथार्थवाद के रूप में इसे एक नया आदर्श मिल गया है। यह बड़े मनोयोग से किसी पौधे की पत्ती पर पड़ी ओस की बूंद का हूबहू चित्र उकेरती है, किसी गाय के पैर की मांसपेशियों की नकल उतारती है, या गद्य और पद्य में किसी सीवर की दमघोंटू गंदगी या ऊंचे दर्जे की वेश्या के कमरे का सटीक वर्णन प्रस्तुत करती है।
 आप कहते हैं, “लेकिन अगर ऐसा है, तो क्या करना होगा?” मेरा जवाब है, अगर आपके मुताबिक आपके भीतर मौजूद पवित्र अग्नि सुलगती ढिबरी की बत्ती से ज्यादा नहीं है तो आप वैसा ही करते रहेंगे जैसा करते रहे हैं और आपकी कला बहुत जल्दी ही सेठों की दुकानों की सजावट करने, तीसरे दर्जे के आपेराओं की पुस्तकों और क्रिसमस पर छपने वाली वार्षिक पुस्तकों में बेलबूटे बनाने तक पतित होकर रह जायेगी आपमें से ज्यादातर आंख मूंदे इसी रास्ते पर दौड़े चले जा रहे हैं…
लेकिन अगर आपका दिल वाकई इंसानियत के लिए धड़कता है, अगर एक सच्चे कवि की तरह आप जीवन के स्वरों को सुन सकते हैं, तो अपने चारों ओर लहराते दुख के इस सागर को आप देखेंगे, भूख से मरते इन लोगों का सामना करेंगे, खदानों में एक के ऊपर एक पड़ी लाशों और बैरीकेडों पर क्षत-विक्षत शवों के बीच खुद को महसूस करेंगे, देशनिकाले की सजा पाये कैदियों की उन लम्बी कतारों को देखेंगे जो साइबेरिया की बर्फ़ और कटिबंधीय टापुओं के दलदलों में दफ्न होने जा रहे हैं; जीवन-मृत्यु के इस संघर्ष को आप देखेंगे जो लड़ा जा रहा है पराजितों के आर्तनादों और विजेताओं के अश्लील अट्टहासों के बीच, कायरता से टकराती वीरता के बीच, घृणित धूर्तता का सामना करती उदात्त दृढ़ता के बीच इस सबको देखकर आप तटस्थ नहीं रह सकेंगे; आप आयेंगे और उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़े होंगे क्योंकि आप जानते हैं कि सौन्दर्य, उदात्तता, खुद जीवन की भावना उन लोगों के पक्ष में है जो लड़ रहे हैं प्रकाश के लिए, मानवता के लिए, न्याय के लिए!
आखिरकार आप मुझे रोक देते हैं!
आप कहते हैं, “क्या बकवास है! लेकिन अगर शुद्ध विज्ञान विलासिता है और डाक्टरी की प्रैक्टिस महज ठगी है; अगर कानून का मतलब नाइंसाफ़ी है और नये यंत्रें का आविष्कार बस डकैती का एक और साधन है; अगर ‘व्यावहारिक आदमी’ की सहजबुद्धि के विपरीत खड़े स्कूल को भी बदलने की जरूरत है; और अगर क्रान्तिकारी विचार से रहित कला सिर्फ़ पतित ही हो सकती है तो फि़र मेरे करने के लिए बचता ही क्या है?”
अच्छी बात है, मैं आपको बताता हूं।
एक बहुत बड़ा और बेहद रोमांचक काम; एक ऐसा काम जिसमें आपकी कार्रवाइयों का आपकी अंतश्चेतना से पूरा तालमेल होगा, एक ऐसा उद्यम जो आपमें सबसे उदात्त और ऊर्जस्वी भावनाएं जगाने में सक्षम है।
कौन सा काम? मैं आपको बताता हूं।
यह तय करना आपका काम है कि आप लगातार अपनी अंतरात्मा को धोखा देते रहेंगे और आखिरकार एक दिन कहेंगे: “भाड़ में जाये इंसानियत, जब तक लोग इतने मूर्ख हैं कि आप कुछ भी कर सकें, तब तक क्यों न मैं हर तरह के सुख-साधन जुटाऊं और उन्हें जमकर भोगूं?” या एक बार फि़र वही अवश्यंभावी विकल्प आपके सामने होगा कि आप समाजवादियों के साथ आयें और उनके साथ मिलकर समाज को पूरी तरह बदल डालने के लिए काम करें। हम जिस विश्लेषण से गुजरे हैं वह हमें इसी नतीजे पर पहुंचाता है, इससे अलग कुछ नहीं हो सकता। हर बुद्धिमान व्यक्ति इसी तार्किक नतीजे पर पहुंचेगा, बशर्ते कि वह अपने चारों ओर मौजूद स्थितियों को ईमानदारी और विवेक के साथ देखे और उन छलपूर्ण तर्कों को दरकिनार कर दे जो बुर्जुआ शिक्षा तथा उसके इर्दगिर्द मौजूद स्वार्थपूर्ण हित उसके कानों में फ़ुसफ़ुसाते रहते हैं।
जैसे ही हम इस नतीजे पर पहुंचेंगे, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है, “फि़र करना क्या होगा?”
जवाब आसान है।
इस माहौल को छोड़ दीजिए जिसमें आप पले हैं और जहां यह कहना एक फ़ैशन है कि जनता पशुओं के झुण्ड के सिवा कुछ नहीं है; आम लोगों के बीच आ जाइये जवाब खुद-ब-खुद मिल जायेगा।
आप देखेंगे कि हर कहीं, इंग्लैण्ड में, फ्रांस में, जर्मनी में, इटली में, रूस में और यहां तक कि अमेरिका में, हर कहीं जहां भी एक वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त हैं और एक वर्ग उत्पीड़ित है, वहां मेहनतकश वर्ग के बीच जबर्दस्त काम चल रहा है, जिसका लक्ष्य है पूंजीवादी सामंती शासन द्वारा लादी गयी गुलामी को हमेशा के लिए खत्म कर देना और एक ऐसे समाज की बुनियाद डालना जो इंसाफ़ और बराबरी पर टिका हो। जनता का आदमी अब अपना दुख उन गीतों में उड़ेलकर नहीं रह जाता जिनके सुर आपके दिल को चीर कर रख देते हैं; जैसे गीत ग्यारहवीं सदी के भूदास गाते थे और स्लाव किसान आज भी गाते हैं। वह अपना अधिकार पाने के लिए अपने साथी मेहनतकशों के साथ मिलकर जूझता है, उसे मालूम है कि वह क्या कर रहा है और अपने रास्ते की हर रुकावट से भिड़ने के लिए वह तैयार है।
उसके विचार लगातार यह सोचने पर केन्द्रित रहते हैं कि ऐसा क्या किया जाये जिससे जीवन तीन-चौथाई मनुष्यों के लिए अभिशाप न रहे, बल्कि सबके लिए वास्तविक आनन्द बन जाये। वह समाजशास्त्र की सबसे बीहड़ समस्याओं को लेता है और अपने विवेक, अपनी प्रेक्षण क्षमता और श्रमपूर्वक जुटाये अपने अनुभव से उन्हें हल करने की कोशिश करता है। अपनी ही जैसी बदहाली में जी रहे दूसरे लोगों  के साथ आपसी समझदारी बनाने के लिए वह समूह बनाने की, संगठित होने की कोशिश करता है। वह संस्थाएं गठित करता है जो छोटे-छोटे चंदों के दम पर मुश्किल से चलती हैं; वह सीमा पार के अपने जैसे लोगों से रिश्ते बनाने की कोशिश करता है; और वह उन दिनों की तैयारी करता है जब लोगों के बीच युद्ध असम्भव हो जायेंगे वह उन हवाई मानवतावादियों से कहीं बेहतर ढंग से यह काम करता है जो विश्व शान्ति का नारा लेकर उछलकूद करते रहते हैं। यह जानने के लिए उसके बंधु क्या कर रहे हैं, उनके साथ ज्यादा करीबी जुड़ाव बनाये रखने के लिए, अपने विचारों को प्रस्तुत करने और फ़ैलाने के लिए वह अपना छापाखाना चलाता है लेकिन कितनी मुश्किलें उठाकर, कैसे अनवरत काम की बदौलत वह यह कर पाता है! आखिरकार, जब वह घड़ी आ जाती है, तो वह उठता है, फ़ुटपाथों और बैरिकेडों को अपने खून से लाल करता हुआ वह उन स्वतंत्रताओं को हासिल करने के लिए झपट पड़ता है जिन्हें धनी और ताकतवर लोग बाद में फि़र से भ्रष्ट कर देंगे और उसी के खिलाफ़ मोड़ देंगे।
कोशिशों का कैसा अंतहीन सिलसिला है! कभी न रुकने वाला कैसा संघर्ष है! हर बार नये सिरे से शुरू होने वाली कैसी कड़ी मेहनत है; कई बार तो बीच में ही लड़ाई छोड़ जाने वालों से खाली हुई जगहों की भरपाई करनी पड़ती है यह नतीजा होता है थकान का, आत्मा के भ्रष्ट हो जाने का, प्रताड़नाओं का; कई बार बर्बर हमलों और ठण्डे दिमाग से किये गये हत्याकाण्डों से तबाह हुई फ़ौजों की भरपायी करनी पड़ती है। कभी-कभी बड़े पैमाने पर किये गये कत्लेआम से एक झटके से तोड़ दी गयी कड़ियों को फि़र से, अध्यवसायपूर्वक जोड़ना पड़ता है और नये सिरे से शुरुआत करनी पड़ती है।
ये अखबार उन लोगों की बदौलत चलते रहते हैं जो खुद को नींद और भोजन से वंचित करके समाज से ज्ञान के चंद कतरे जुटा लेते हैं; आंदोलन उन चंद सिक्कों के दम पर जीवित रहता है जो जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं में से भी कटौती करके दिये जाते हैं; और यह सब लगातार मौजूद इस खतरे की छाया में चलता है कि जैसे ही मालिक को यह पता चलेगा कि “उसका मजदूर, उसका गुलाम, समाजवाद के रंग में रंगा है” वैसे ही उसका परिवार भीषण दुख-तकलीफ़ के भंवर में घिर जायेगा।
अगर आप जनता के बीच जायेंगे तो आप यही देखेंगे।
अपने बोझ के तले लड़खड़ाते हुए इस अंतहीन संघर्ष में मेहनत करने वाले इंसान ने न जाने कितनी बार यह सवाल किया है:
”कहां हैं, कहां हैं वे नौजवान लोग जिन्हें हमारी कीमत पर शिक्षा मिली है? कहां हैं वे नौजवान जिनके पढ़ने के दौरान हमने उन्हें खिलाया, कपड़े पहनाये? कहां हैं वे जिनके लिए खाली पेट और बोझ से दुहरे होते हुए हमने ये मकान बनाये, ये कालेज बनाये, ये लेक्चर रूम और संग्रहालय खड़े किये? कहां हैं वे लोग जिनके फ़ायदे के लिए हमने पीले, थके हुए चेहरों के साथ ये बढ़िया किताबें छापी हैं जिनमें से ज्यादातर को हम पढ़ भी नहीं सकते? कहां हैं वे, वे प्राफ़ेेसर जो दावा करते हैं कि उनके पास मानवजाति का तमाम ज्ञान-विज्ञान है, और जिनके लिए मानवजाति भी किसी दुर्लभ कीड़े से बढ़कर नहीं है? कहां हैं वे लोग जो हमेशा ही मुक्ति की प्रशंसा में भाषण देते रहते हैं लेकिन हमारी स्वतंत्रता के बारे में कभी नहीं सोचते जो रोज-ब-रोज उनके कदमों तले कुचली जाती है? कहां हैं वे, वे लेखक और कवि, वे चित्रकार और मूर्तिकार? एक शब्द में, कहां है पाखण्डियों का वह पूरा गिरोह जो आंखों में आंसू भरकर जनता के बारे में बातें करता है लेकिन जो कभी गलती से भी हमारे बीच नहीं नजर आता, हमारे कमरतोड़ जीवन में हमारी मदद करता नहीं दिखता?”
कहां हैं वे, वाकई, कहां हैं?
अरे, कुछ तो कायरतापूर्ण उदासीनता के साथ आराम से जी रहे हैं; और बाकी, ज्यादातर लोग “गंदी भीड़” से नफ़रत करते हैं और अगर इस भीड़ ने उनके एक भी विशेषाधिकार को हाथ लगाने की जुर्रत की तो उस पर टूट पड़ने के लिए तैयार रहते हैं।
यह सच है कि कभी-कभी ऐसा कोई नौजवान हमारे बीच आता है जो ढोल-नगाड़ों और बैरिकेडाें के सपने देखता है और सनसनीखेज दृश्यों की चाहत रखता है, लेकिन जैसे ही उसे पता चलता है कि बैरिकेड की मंजिल तक का रास्ता लम्बा है, काम कठिन है और इस मुहिम में मिलने वाली सराहना का मुकुट कांटों से भरा है, वैसे ही वह जनता की लड़ाई को छोड़कर चल देता है। आम तौर पर ऐसे लोग महत्वाकांक्षी मंसूबेबाज होते हैं जो अपने पहले प्रयासों में नाकाम रहने के बाद इस तरीके से लोगों को फ़ुसलाकर उनके वोट हासिल करना चाहते हैं। लेकिन जैसे ही जनता उन्हीं के बताये उसूलों को लागू करना शुरू करती है वैसे ही वे उसकी निंदा करने में सबसे आगे हो जाते हैं; अगर लोगों ने उनके, यानी आंदोलन के नेताओं के इशारा करने के पहले आगे बढ़ने की जुर्रत कर दी तो शायद ये तोपों और राइफ़लों का मुंह उनकी ओर मोड़ने के लिए भी तैयार हो जायेंगे।
इस सबमें जहरीला अपमान, दम्भपूर्ण घृणा और कायरतापूर्ण गालियों को जोड़ दीजिए और आप समझ जायेंगे कि सामाजिक क्रान्ति के रास्ते में उच्च और मध्य वर्गों के ज्यादातर युवकों से लोग आजकल क्या उम्मीद कर सकते हैं।
लेकिन तब आप पूछेंगे, “हमें क्या करना होगा?” जबकि करने को सबकुछ पड़ा हुआ है! काम इतना है कि नौजवान लोगों की पूरी सेना अपनी समस्त युवा ऊर्जा खपा सकती है, अपनी मेधा और प्रतिभा की पूरी ताकत इस महान काम में लोगों की मदद करने में लगा सकती है!
हमें क्या करना होगा? सुनिए।
शुद्ध विज्ञान के प्रेमियो, अगर आप समाजवाद के उसूलों से लैस हैं, अगर आप दरवाजे पर दस्तक दे रही क्रान्ति के वास्तविक अर्थ को समझ गये हैं, तो क्या आप यह नहीं देखते कि अगर विज्ञान को नये उसूलों के साथ एकता कायम करनी है तो इसे नये सांचे में ढालना होगा; क्या आप यह नहीं देखते कि इस क्षेत्र में आपको उससे भी बड़ी क्रान्ति करनी है जैसी क्रान्ति अठारहवीं सदी में विज्ञान की हर शाखा में की गयी थी? क्या आप यह नहीं समझते कि इतिहास जो आज महज महान राजाओं, महान राजनीतिज्ञों और महान संसदों के बारे में किस्से-कहानियां भर है कि इतिहास को भी जनता के नजरिये से फि़र से लिखा जाना है, मानवजाति के लम्बे विकासक्रम में जनता द्वारा किये गये काम के नजरिये से लिखा जाना है? क्या आप यह नहीं देखते कि सामाजिक अर्थशास्त्र जो आज महज पूंजीवादी डकैती पर पवित्र आवरण डालने का काम करता है के मूलभूत सिद्धान्तों को और इसके असंख्य अमलों को भी नये सिरे से रचे जाने की जरूरत है? कि नृतत्वशास्त्र को, समाजशास्त्र को, नीतिशास्त्र को पूरी तरह नये सांचे में ढालना होगा, गहराई से बदल डालना होगा प्राकृतिक परिघटनाओं की अवधारणा के अर्थ में भी और व्याख्या की पद्धतियों की दृष्टि से भी।
तो ठीक है, काम में जुट जाइये! अपनी क्षमताओं को अच्छे लक्ष्य के लिए समपिर्त कर दीजिए। खासकर, अपने स्पष्ट तर्क से पूर्वाग्रहों से लड़ने में हमारी मदद कीजिए और संश्लेषण की अपनी क्षमता से एक बेहतर संगठन की बुनियाद डालने में मदद कीजिए। इससे भी बढ़कर, हमें रोज-ब-रोज की अपनी बहसों में सच्चे वैज्ञानिक अनुसंधान की निर्भीकता को लागू करना सिखाइये और हमें दिखाइये कि सत्य की जीत के लिए किस तरह लोग अपनी जान भी कुर्बान कर देते हैं, जैसा कि आपके पूर्वजों ने किया था।
कड़वे अनुभव से समाजवाद की शिक्षा पाने वाले डाक्टरो, आज, कल या कभी भी हमें यह बताने से थकिये मत कि अगर जीवन और काम की यही स्थितियां बनी रहीं तो लोग तिल-तिलकर मरते रहेंगे; कि जब तक बहुसंख्यक मानवता ऐसी स्थितियों में जीती रहेगी जो अच्छे स्वास्थ्य के लिए विज्ञान द्वारा बतायी स्थितियों के ठीक विपरीत हैं, तब तक आपकी सारी दवाइयां और इलाज बीमारी के विरुद्ध शक्तिहीन रहेंगे; लोगों को इस बात का कायल कीजिए कि असल जरूरत बीमारी के कारणों को मिटाने की है, और हम सबको यह दिखाइये कि इन कारणों को मिटाने के लिए क्या करना जरूरी है।
अपने नश्तर लेकर आइये और हमारे सामने अपने अचूक हाथ से इस सड़ते हुए समाज की चीर-फ़ाड़ करके दिखाइये। हमें बताइये कि विवेकपूर्ण जीवन कैसा होना चाहिए और कैसा हो सकता है। सच्चे सर्जनों की तरह जोर देकर कहिये कि जिस अंग में गैंगरीन हो गया हो उसे काटकर फ़ेंक देना होगा वरना पूरे शरीर में जहर फ़ैल जायेगा।
आपमें से जो उद्योगों में विज्ञान लागू करने पर काम करते रहे हैं, आइये और हमें साफ़-साफ़ बताइये कि आपकी खोजों का क्या परिणाम रहा है। जो लोग भविष्य की ओर निडर होकर बढ़ने में हिचकिचा रहे हैं उन्हें समझाइये कि मानवजाति द्वारा अर्जित ज्ञान के गर्भ में कैसे विस्मयकारी नये आविष्कार छुपे हुए हैं, बेहतर परिस्थितियां पाकर उद्योग क्या कमाल दिखा सकता है, मनुष्य अगर दूसरों के लिए खटने के बजाय खुद के लिए श्रम करें तो वे कितना उत्पादन कर सकते हैं।
कवियो, चित्रकारो, मूर्तिकारो, संगीतकारो, अगर आप अपने असली मिशन को और स्वयं कला के वास्तविक हित को समझ गये हैं, तो हमारे साथ आइये। अपनी कलम, अपनी तूलिका, अपनी छेनी, अपने विचारों को क्रान्ति की सेवा में लगाइये। अपनी भावपूर्ण शैली में, या अपने प्रभावशाली चित्रें में हमारे सामने उत्पीड़कों के विरुद्ध जनता के बहादुराना संघर्षों की तस्वीर पेश कीजिए; हमारे नौजवानों के दिलों में उसी क्रान्तिकारी उत्साह की अग्नि प्रज्ज्वलित कीजिए जिससे हमारे पुरखों की आत्माएं दमकती थीं; महिलाओं को बताइये कि सामाजिक मुक्ति के महान लक्ष्य के लिए अपना जीवन बलिदान कर देने वाले पति का पेशा कितना उदात्त है! लोगों को दिखाइये कि उनका वास्तविक जीवन कितना भयानक है, और इसकी कुरूपता के कारणों पर उंगली रखिए; हमें बताइये कि अगर हर कदम पर हमारी वर्तमान समाज व्यवस्था की मूर्खताएं और अपमानजनक क्षुद्रताएं अड़चनें न डालें तो जीवन कितना विवेकपूर्ण हो सकता है।
अंत में, आप सब जिनके पास ज्ञान, प्रतिभा, क्षमता और उद्यम है, अगर आपके स्वभाव में सहानुभूति की एक भी चिंगारी है तो आइये, अपने साथियों के साथ आइये और अपनी सेवायें उनको दीजिए जिन्हें उनकी सबसे अधिक जरूरत है। अगर आप आते हैं तो याद रखिये कि आप मालिकों की तरह नहीं, उस्तादों की तरह नहीं बल्कि संघर्ष के हमराह साथियों की तरह आये हैं; कि आप राज करने, हुक्म चलाने नहीं बल्कि एक ऐसे नये जीवन में नयी शक्ति पाने आये हैं जो भविष्य पर विजय पाने के लिए एक उत्ताल तरंग की तरह आगे बढ़ रहा है: कि आप सिखाने कम और बहुतों की आकांक्षाओं को समझने ज्यादा आये हैं; इसलिए आये हैं कि इन आकांक्षाओं को ऊंचा दर्जा दें, उन्हें आकार दें, और फि़र उन्हें वास्तविक जीवन में साकार करने के लिए युवावस्था के तमाम जोश और उम्र के तमाम होश के साथ बिना रुके और बिना जल्दबाजी के काम में जुट जायें। तभी और सिर्फ़ तभी आप एक पूर्ण, एक उदात्त और एक विवेकपूर्ण जीवन बिता सकेंगे। तभी आप यह देखेंगे कि इस राह पर आपका हर प्रयास प्रचुर मात्र में अपने फ़ल लेकर आयेगा।  जब एक बार आपके कार्यों और आपकी अंतश्चेतना के निर्देशों में यह उदात्त एकता कायम हो जायेगी तो यह आपको इतनी ताकत दे देगी जिसका आपने कभी सपना भी नहीं देखा होगा।
लोगों के बीच रहकर, उनका सम्मान और कृतज्ञता अर्जित करते हुए सत्य, न्याय और समानता के लिए अनवरत संघर्ष सभी राष्ट्रों के नौजवान इससे बढ़कर किस कैरियर की चाहत कर सकते हैं?
खाते-पीते घरों के आप लोगों को यह बताने में मुझे काफ़ी समय लगा है कि जीवन आपके सामने द्वंद्व उपस्थित कर रहा है, अगर आप साहसी और ईमानदार हैं तो आप समाजवादियों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने के लिए आने पर मजबूर होंगे और उनकी कतारों में शामिल होकर सामाजिक क्रान्ति के लक्ष्य को आगे बढ़ायेंगे। लेकिन यह सत्य कितना सीधा-सादा है! लेकिन जब आप बुर्जुआ परिवेश के प्रभाव में पले-बढ़े लोगों से बात कर रहे हों तो कितने सारे झूठे तर्कों से लड़ना होता है, कितने सारे पूर्वाग्रहों पर विजय पानी होती है, कितनी सारी स्वार्थपूर्ण आपत्तियों को दरकिनार करना होता है!
आज आप लोगों से बात करने में, जनता के नौजवानों से बात करने में संक्षिप्त बात कहना आसान है। तर्क और कार्रवाई करने का साहस आप में चाहे जितना भी कम हो, घटनाओं का दबाव ही आपको समाजवादी बनने के लिए मजबूर कर देगा।
मेहनतकश लोगों का हिस्सा होते हुए भी समाजवाद की विजय के लिए खुद को समर्पित नहीं करना वास्तविक हितों की गलत समझदारी रखना है, अपने लक्ष्य को और सच्चे ऐतिहासिक मिशन को बीच में ही छोड़ देना है।
क्या आपको बचपन का वह समय याद है जब जाड़े की एक सुबह आप अपने अंधेरे अहाते में खेलने गये थे? आपके हल्के कपड़ों से होकर ठण्ड आपके शरीर को काट रही थी और सर्द कीचड़ आपके घिसे हुए जूतों में घुस गया था। उस उम्र में भी जब आपने गर्म कपड़ों से ढंके हुए लाल-लाल गालों वाले बच्चों को दूर से गुजरते देखा था जो आपको हिकारत की नजर से घूर रहे थे, तभी आप अच्छी तरह जान गये थे कि सर से पांव तक ढंके हुए ये नन्हें शैतान आपके या आपके साथियों की बराबरी नहीं कर सकते, न अकल में, न कामनसेंस में और न ही फ़ुर्ती और ताकत में। लेकिन बाद में जब आपको सुबह पांच या छह बजे से एक गंदे कारखाने में कैद रहकर लगातार बारह घंटे एक घड़घड़ाती मशीन के पास खड़े रहना पड़ा, और खुद मशीन की तरह दिनो-रात, साल-दर-साल उसके साथ काम करते रहना पड़ा इस पूरे दौरान वे चुपचाप बढ़िया स्कूलों में, अकादमियों में, यूनिवर्सिटियों में शिक्षा पाते रहे। और अब वे ही बच्चे, आपसे कम अक्लमंद, लेकिन बेहतर शिक्षा पाये हुए, आपके मालिक बन गये हैं और जीवन के तमाम सुख तथा सभ्यता के तमाम लाभों को भोग रहे हैं। और आप? किस तरह का जीवन आपकी प्रतीक्षा कर रहा है?
आप एक छोटे से, अंधेरे, नमी भरे कमरे में लौटते हैं जहां कुछ वर्ग फ़ीट में पांच या छह इंसान सुअरों की तरह रहते हैं; जहां आपकी मां, जिसे जीवन ने बीमार कर दिया है और जो उम्र से नहीं बल्कि चिन्ताओं से बूढ़ी हो गयी है, आपको खाने के नाम पर सूखी रोटी और आलू देती है जिसके साथ एक काला-सा द्रव होता है जिसे मजाक में ही चाय कहा जा सकता है। इस सबसे ध्यान बंटाने के लिए आपके पास रोज-ब-रोज बस ये ही एक सवाल होता है, “कल मैं बनिये का उधार कैसे चुकाउंगा और उसके बाद मकानमालिक का भाड़ा कहां से दूंगा?”
क्या! आप तीस-चालीस साल तक इसी दमघोंटू जिन्दगी में घिसटते रहेंगे जैसे आपके मां और पिता जिये थे? क्या आप जीवन भर दूसरों के लिए अच्छे जीवन के तमाम आनन्द, ज्ञान और कला के तमाम सुख जुटाने के लिए खटते रहेंगे और बदले में बस इसी बात की फि़क्र आपको मिलेगी कि कल की रोटी कहां से आयेगी? क्या आप खुद को कमरतोड़ काम की चक्की में पीस डालेंगे और बदले में सिर्फ़ मुश्किलें और बदहाली हासिल करेंगे जब संकट का समय आपको बेरोजगार कर देगा? क्या आप जीवन से बस यही चाहते हैं?
शायद आप हार मान लेंगे। अपनी स्थिति से बाहर निकलने का कोई भी रास्ता न पाकर शायद आप खुद से कहेंगे, “पूरी की पूरी पीढ़ियां इसी नियति से गुजरी हैं, और मैं तो कुछ बदल नहीं सकता, इसलिए मुझे भी झुकना ही होगा। तो ठीक है, मैं भी खटता रहूंगा और जैसे भी बन पड़े जी लूंगा!”
अच्छी बात है। ऐसी हालत में जिन्दगी खुद आपको ठोकरों से बहुत कुछ सिखा देगी।
एक दिन आर्थिक संकट आयेगा, वैसा आर्थिक संकट जो अब पहले की तरह कभी-कभी नहीं आता बल्कि ऐसा संकट जो एक पूरे उद्योग को तबाह कर देता है, जो हजारों मजदूरों को भयंकर बदहाली में धकेल देता है, जो पूरे के पूरे परिवारों को कुचल डालता है। बाकी सबकी तरह आप भी इस आपदा के विरुद्ध जूझते हैं। लेकिन जल्दी ही आप देखेंगे कि किस तरह आपकी पत्नी, आपका बच्चा, आपका दोस्त, धीरे-धीरे अभावों के शिकार बन जाते हैं और आपकी आंखों के सामने घुल-घुलकर मर जाते हैं। सिर्फ़ पेट भर खाने की कमी, देखभाल और डाक्टरी मदद की कमी से वे गरीब के फ़टेहाल बिस्तर पर दम तोड़ देते हैं जबकि धूप से चमकते महानगर की सड़कों पर अमीरों के झुण्ड के झुण्ड मौज-मस्ती में गुजरते रहते हैं मरते हुए लोगों की कराहों से बेफि़क्र और बेपरवाह।
तब आप समझेंगे कि कितना घृणित है यह समाज। आप इस संकट के कारणों पर सोचेंगे और अगर आप जांच-पड़ताल करेंगे तो आप इस नापाक व्यवस्था की जड़ों तक पहुंच जायेंगे जो करोड़ों इंसानों को मुट्ठी भर निकम्मे अय्याशों के क्रूर लालच की दया पर छोड़ देती है। तब आप समझेंगे कि समाजवादियों का यह कहना सही है कि हमारे मौजूदा समाज को ऊपर से नीचे तक नये सिरे से संगठित करना होगा और ऐसा किया जा सकता है।
आम संकटों से आगे चलकर अब आपके मामले की बात करते हैं। एक दिन जब आपका मालिक अपनी दौलत को और बढ़ाने के लिए आपसे चंद सिक्के और निचोड़ने के वास्ते मजदूरी में कुछ और कटौती करता है तो आप विरोध करते हैं; लेकिन वह घमण्ड में भरा जवाब देता है, “जो भी मैं दे रहा हूं उस पर काम नहीं कर सकते तो जाकर घास खाओ।” तब आप समझेंगे कि आपका मालिक भेड़ की तरह आपको मूड़ने की ही कोशिश नहीं करता बल्कि उसकी नजर में आप एक निचले दर्जे के जानवर हैं। तब आप समझेंगे कि मजदूरी-व्यवस्था के जरिए आपको अपने सख्त शिकंजे में कस कर रखने से ही वह संतुष्ट नहीं है बल्कि हर तरह से आपको गुलाम बना लेना चाहता है। तब या तो आप उसके आगे घुटने टेक देंगे, आप मानवीय सम्मान की भावना भी छोड़ देंगे और इसका अंत यह होगा कि आप हर तरह का अपमान झेलते रहेंगे। या फि़र आपका खून खौल उठेगा, यह सोचकर आप कांप उठेंगे कि आप कैसे भयावह ढलान पर सरकते जा रहे हैं; आप गुस्से में पलटकर जवाब देंगे और सड़क पर बेरोजगारों की भीड़ में धकेल दिये जायेंगे। तब आप समझेंगे कि समाजवादियों की यह बात कितनी सच है, “विद्रोह करो! इस आर्थिक गुलामी के खिलाफ़ उठ खड़े हो!” तब आप आकर समाजवादियों की कतारों में अपनी जगह लेंगे और आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक, हर तरह की गुलामी को पूरी तरह तबाह कर देने के लिए उनके साथ मिलकर काम करेंगे।
फि़र किसी दिन आप उस सुंदर युवा लड़की की कहानी सुनेंगे जिसकी सधी चाल, खुशनुमा स्वभाव और मुस्कुराहट भरी बातों को आप इतने प्यार से सराहते थे। साल-दर-साल बदहाली से लड़ने के बाद उसने अपना गांव छोड़ दिया और बड़े शहर में चली आयी। वह जानती थी कि यहां जीने का संघर्ष कठिन होगा लेकिन उसे उम्मीद थी कि कम से कम वह ईमानदारी से रोजी-रोटी कमा लेगी। पर आप जानते हैं कि उसकी नियति क्या हुई? किसी पूंजीपति के लड़के ने उस पर डोरे डाले और उसकी छलभरी बातों में आकर लड़की ने नौजवानी की पूरी भावना के साथ खुद को समर्पित कर दिया। लेकिन जल्दी ही उसने पाया कि पूंजीपति के लड़के ने उसे छोड़ दिया है और गोद में अपने बच्चे के साथ वह अकेली रह गयी है। वह साहसी थी और उसने संघर्ष का दामन नहीं छोड़ा लेकिन ठण्ड और भूख के खिलाफ़ इस असमान संघर्ष में वह टूट गयी और उसके अंतिम दिन किसी खैराती अस्पताल में बीते, कोई नहीं जानता किस अस्पताल में…
आप क्या करेंगे? एक बार फि़र आपके सामने दो रास्ते खुले हुए हैं। या तो आप इस अप्रिय याद कोे किसी मूर्खतापूर्ण वाक्य से दरकिनार कर देंगे। आप कहेंगे, “ऐसा करने वाली वह पहली नहीं थी और न ही आखिरी होगी।” शायद किसी दिन अपने ही जैसे दूसरे पशुओं के साथ आप किसी सार्वजनिक जगह पर उस लड़की की याद पर कालिख पोतते हुए कोई अश्लील लतीफ़ा सुना रहे होंगे। या फि़र गुजरे दिनों की यादें आपके दिल को छू लेंगी; आप उस धोखेबाज धनपशु को ढूंढ़ेंगे ताकि उसके मुंह पर करारा तमाचा जड़ सकें; आप रोज होने वाली ऐसी घटनाओं के कारणों पर सोचेंगे और समझ जायेंगे कि जब तक समाज दो खेमों मेें बंटा हुआ है तब तक इन पर रोक नहीं लगेगी। एक ओर दुनिया के तमाम दुखियारे हैं और दूसरी ओर हैं वे काहिल चिकनी-चुपड़ी बातों में माहिर वासना में डूबे पशु। आप समझ जायेंगे कि इस खाई को पाटने का वक्त अब आ चुका है और आप समाजवादियों के बीच अपनी जगह लेने के लिए दौड़े आयेंगे।
और आप, आम मेहनतकश स्त्रियो, क्या यह सब सुनकर आप पर कोई असर नहीं हुआ? अपनी गोद के बच्चे के सुन्दर सिर को सहलाते हुए क्या आप यह कभी नहीं सोचतीं कि अगर समाज के मौजूदा हालात नहीं बदलते तो कैसा भविष्य उसके इंतजार में है? क्या आप अपनी छोटी बहन और अपने तमाम बच्चों के भविष्य के बारे में कभी नहीं सोचतीं? क्या आप चाहती हैं कि आपके बेटे भी वैसे ही जानवर की तरह खटते रहें जैसे आपके पिता खटे थे, शाम की रोटी के सिवा उनकी कोई चिन्ता न हो और दारू के अड्डे के सिवा उनके जीवन में कोई आनन्द न हो? क्या आप चाहती हैं कि आपके पति, आपके बेटे हमेशा उस नौबढ़ छोकरे की दया पर रहें जो अपने बाप से मिली पूंजी के दम पर उनका शोषण करता है? क्या आप यही चाहती हैं कि वे हमेशा मालिक के गुलाम बने रहें जो उनकी हड्डियों का चूरा तक बेच डाले, धनी शोषकों के चरागाहों में खाद बनने वाले गोबर से बढ़कर उनकी हैसियत न रहे?
नहीं, कभी नहीं; हजार बार नहीं! मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जब आपने सुना कि जोश और दृढ़ता से भरे आपके पतियों ने हड़ताल की मगर अंततः उन्हें सर झुका कर उस घमण्डी बुर्जुआ की शर्तें माननी पड़ीं, तो आपका खून खौल उठा। मैं जानता हूं कि आप उन स्पेनी औरतों को सराहती हैं जो एक जनविद्रोह के समय विद्रोहियों की अगली कतारों में चल रही थीं और जिन्होंने सिपाहियों की संगीनों के आगे अपनी छातियां कर दी थीं। मुझे विश्वास है कि आप उस औरत का नाम इज्जत के साथ लेती हैं जिसने जेल में एक समाजवादी बंदी को क्रूर यातनायें देने वाले दुष्ट अफ़सर के सीने में गोली उतार दी थी। और मुझे यकीन है कि पेरिस की उन महिलाओं के बारे में पढ़कर आपके दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं जिन्होंने गोलों की बौछार की परवाह न करके “अपने आदमियों” को बहादुरी से लड़ते रहने का हौसला दिया था।
आप में से हर एक ईमानदार नौजवान, स्त्री और पुरुष, किसान, मजदूर, दस्तकार और सिपाही, आप में से हर एक समझेगा कि आपके अधिकार क्या हैं और आप हमारे साथ आयेंगे। आप उस क्रान्ति की तैयारी के लिए अपने भाइयों के साथ मिलकर काम करने के वास्ते आयेंगे जो गुलामी की हर निशानी का सफ़ाया करके, बेड़ियों को छिन्न-भिन्न करके, पुरानी सड़ चुकी परम्पराओं को तोड़कर और समस्त मानवजाति के लिए खुशियों से भरे जीवन का नया और व्यापक रास्ता खोलकर आखिरकार सच्ची स्वतंत्रता, वास्तविक समानता और निश्छल बंधुत्व की स्थापना करेगी। तब सभी मनुष्य सबके साथ मिलकर, सबके साथ काम करते हुए अपने श्रम के फ़लों का पूरा आनन्द उठाते हुए, अपनी सभी क्षमताओं का भरपूर विकास करते हुए एक विवेकपूर्ण, मानवीय और सुखपूर्ण जीवन बितायेंगे।
अब कोई यह न कहे कि हम जो एक छोटा सा समूह हैं इस महान लक्ष्य को हासिल करने के लिए बहुत कमजोर हैं।
जरा गिनिये और देखिए कि इस अन्याय को सहन करने वाले हम जैसे कितने लोग हैं।
हम किसान जो दूसरों के लिए काम करते हैं और खुद भूसी चबाते हैं जबकि हमारे मालिक बढ़िया गेहूं खाते हैं अकेले हमारी तादाद करोड़ों में है।
हम मजदूर जो बढ़िया रेशम और मखमल तैयार करते हैं ताकि हम खुद चिथड़ों में लिपटे रह सकें हमारी भी भारी तादाद है; और जब कारखानों की धड़धड़ हमें थोड़ा भी मौका देती है तो हम सड़कों और चौराहों पर समुद्र के ज्वार की तरह उमड़ पड़ते हैं।
हम सिपाही जो आदेशों से या हंटरों की मार से हांके जाते हैं, हम जो वे गोलियां खाते हैं जिनके लिए हमारे अफ़सरों को तमगे और पेंशनें मिलती हैं; हम अज्ञानी और अभागे लोग जिन्हें अपने भाइयों को गोली मारने के सिवा कुछ नहीं सिखाया गया हमें तो बस इतना ही करना है कि पूरा घूम जायें उन सजे-धजे अफ़सरों की ओर जो बस हमें आदेश देना जानते हैं। हमें उनके चेहरों पर मौत का पीलापन नजर आ जायेगा।
अरे, हम सब जो रोज खटते और जलील होते हैं, हम सब मिलकर इतनी विराट संख्या में हैं जिसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता; हम वह समुद्र हैं जो सबको समेट सकता है, सबको स्वाहा कर सकता है।
जिस दिन हम ऐसा करने की ठान लेंगे, उसी दिन इंसाफ़ होगा: उसी क्षण धरती के तमाम अत्याचारी धूल चाटते नजर आयेंगे।

युद्ध अभी जारी है…

फाँसी पर लटकाये जाने से 3 दिन पूर्व – 20 मार्च, 1931 को – भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने पंजाब के गवर्नर को यह पत्र भेजकर माँग की थी कि उन्हें युद्धबन्दी माना जाये तथा फाँसी पर लटकाये जाने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाये। 
 
 
20 मार्च, 1931
प्रति, गवर्नर पंजाब, शिमला
महोदय,
उचित सम्मान के साथ हम नीचे लिखी बातें आपकी सेवा में रख रहे हैं –
भारत की ब्रिटिश सरकार के सर्वोच्च अधिकारी वायसराय ने एक विशेष अध्यादेश जारी करके लाहौर षड्यन्त्र अभियोग की सुनवायी के लिए एक विशेष न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) स्थापित किया था, जिसने 7 अक्टूबर, 1930 को हमें फाँसी का दण्ड सुनाया। हमारे विरुद्ध सबसे बड़ा आरोप यह लगाया गया है कि हमने सम्राट जॉर्ज पंचम के विरुद्ध युद्ध किया है।
न्यायालय के इस निर्णय से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं –
पहली यह कि अंग्रेज़ जाति और भारतीय जनता के मध्य एक युद्ध चल रहा है। दूसरे यह कि हमने निश्चित रूप में इस युद्ध में भाग लिया है, अतः हम युद्धबन्दी हैं।
यद्यपि इनकी व्याख्या में बहुत सीमा तक अतिशयोक्ति से काम लिया गया है, तथापि हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि ऐसा करके हमें सम्मानित किया गया है। पहली बात के सम्बन्ध में हम तनिक विस्तार से प्रकाश डालना चाहते हैं। हम नहीं समझते कि प्रत्यक्ष रूप में ऐसी कोई लड़ाई छिड़ी हुई है। हम नहीं जानते कि युद्ध छिड़ने से न्यायालय का आशय क्या है? परन्तु हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हैं और साथ ही इसे इसके ठीक सन्दर्भ में समझाना चाहते हैं।

युद्ध की स्थिति
हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है – चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज़ पूँजीपति और अंग्रेज़ या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी कर रखी है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का ख़ून चूसा जा रहा हो तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता। यदि आपकी सरकार कुछ नेताओं या भारतीय समाज के मुखियों पर प्रभाव जमाने में सफल हो जायें, कुछ सुविधाएँ मिल जायें, अथवा समझौते हो जायें, इससे भी स्थिति नहीं बदल सकती, तथा जनता पर इसका प्रभाव बहुत कम पड़ता है। हमें इस बात की भी चिन्ता नहीं कि युवकों को एक बार फिर धोखा दिया गया है और इस बात का भी भय नहीं है कि हमारे राजनीतिक नेता पथ-भ्रष्ट हो गये हैं और वे समझौते की बातचीत में इन निरपराध, बेघर और निराश्रित बलिदानियों को भूल गये हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से क्रान्तिकारी पार्टी का सदस्य समझा जाता है। हमारे राजनीतिक नेता उन्हें अपना शत्रु समझते हैं, क्योंकि उनके विचार में वे हिंसा में विश्वास रखते हैं। हमारी वीरांगनाओं ने अपना सबकुछ बलिदान कर दिया है। उन्होंने अपने पतियों को बलिवेदी पर भेंट किया, भाई भेंट किये, और जो कुछ भी उनके पास था – सब न्योछावर कर दिया। उन्होंने अपनेआप को भी न्योछावर कर दिया। परन्तु आपकी सरकार उन्हें विद्रोही समझती है। आपके एजेण्ट भले ही झूठी कहानियाँ बनाकर उन्हें बदनाम कर दें और पार्टी की प्रसिद्धि को हानि पहुँचाने का प्रयास करें. परन्तु यह युद्ध चलता रहेगा।

युद्ध के विभिन्न स्वरूप
हो सकता है कि यह लड़ाई भिन्न-भिन्न दशाओं में भिन्न-भिन्न स्वरूप ग्रहण करे। किसी समय यह लड़ाई प्रकट रूप ले ले, कभी गुप्त दशा में चलती रहे, कभी भयानक रूप धारण कर ले, कभी किसान के स्तर पर युद्ध जारी रहे और कभी यह घटना इतनी भयानक हो जाये कि जीवन और मृत्यु की बाज़ी लग जाये। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, इसका प्रभाव आप पर पड़ेगा। यह आपकी इच्छा है कि आप जिस परिस्थिति को चाहें चुन लें, परन्तु यह लड़ाई जारी रहेगी। इसमें छोटी-छोटी बातों पर ध्यान नहीं दिया जायेगा। बहुत सम्भव है कि यह युद्ध भयंकर स्वरूप ग्रहण कर ले। पर निश्चय ही यह उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक कि समाज का वर्तमान ढाँचा समाप्त नहीं हो जाता, प्रत्येक वस्तु में परिवर्तन या क्रान्ति समाप्त नहीं हो जाती और मानवी सृष्टि में एक नवीन युग का सूत्रपात नहीं हो जाता।

अन्तिम युद्ध
निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जायेगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप में भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा। हमारी सेवाएँ इतिहास के उस अध्याय में लिखी जायेंगी जिसको यतीन्द्रनाथ दास और भगवतीचरण के बलिदानों ने विशेष रूप में प्रकाशमान कर दिया है। इनके बलिदान महान हैं। जहाँ तक हमारे भाग्य का सम्बन्ध है, हम ज़ोरदार शब्दों में आपसे यह कहना चाहते हैं कि आपने हमें फाँसी पर लटकाने का निर्णय कर लिया है। आप ऐसा करेंगे ही, आपके हाथों में शक्ति है और आपको अधिकार भी प्राप्त है। परन्तु इस प्रकार आप जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला सिद्धान्त ही अपना रहे हैं – और आप उस पर कटिबद्ध हैं। हमारे अभियोग की सुनवाई इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि हमने कभी कोई प्रार्थना नहीं की और अब भी हम आपसे किसी प्रकार की दया की प्रार्थना नहीं करते। हम आपसे केवल यह प्रार्थना करना चाहते हैं कि आपकी सरकार के ही एक न्यायालय के निर्णय के अनुसार हमारे विरुद्ध युद्ध जारी रखने का अभियोग है। इस स्थिति में हम युद्धबन्दी हैं, अतः इस आधार पर हम आपसे माँग करते हैं कि हमारे प्रति युद्धबन्दियों जैसा ही व्यवहार किया जाये और हमें फाँसी देने के बदले गोली से उड़ा दिया जाये।
अब यह सिद्ध करना आपका काम है कि आपको उस निर्णय में विश्वास है जो आपकी सरकार के एक न्यायालय ने किया है। आप अपने कार्य द्वारा इस बात का प्रमाण दीजिये। हम विनयपूर्वक आपसे प्रार्थना करते हैं कि आप अपने सेना-विभाग को आदेश दे दें कि हमें गोली से उड़ाने के लिए एक सैनिक टोली भेज दी जाये।
भवदीय,
भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव

मैं नास्तिक क्यों हूँ?

भगतसिह

(भगतसिह ने जेल में यह लेख 5-6 अक्टूबर, 1930 को लिखा था। यह पहली बार लाहौर से प्रकाशित अंग्रेज़ी पत्र ‘द पीपुल’ के 27 सितम्बर 1931 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस महत्त्वपूर्ण लेख में भगतसिह ने सृष्टि के विकास और गति की भौतिकवादी समझ पेश करते हुए उसके पीछे किसी मानवेतर ईश्वरीय सत्ता के अस्तित्व की परिकल्पना को अत्यन्त तार्किक ढंग से निराधार सिद्ध किया है।)


एक नया सवाल उठ खड़ा हुआ है। क्या मैं अहम्मन्यता के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता हूँ? मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि मुझे कभी ऐसे सवाल का सामना करना पड़ेगा। लेकिन कुछ मित्रों से हुई बातचीत में मुझे यह संकेत मिला कि मेरे कुछ दोस्त – अगर उन्हें दोस्त मान कर उन पर मैं बहुत ज़्यादा अधिकार नहीं जता रहा हूँ तो – मेरे साथ के अपने थोड़े से सम्पर्क से इस नतीजे पर पहुँचना चाहते हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर बड़ी ज़्यादती कर रहा हूँ और यह कि मुझमें कुछ अहम्मन्यता है जिसने मुझे इस अविश्वास के लिए प्रेरित किया है।
बहरहाल, समस्या गम्भीर है। मैं ऐसी शेख़ी नहीं बघारता कि मैं इन मानवीय कमज़ोरियों से एकदम ऊपर हूँ। मैं एक मनुष्य हूँ, इससे ज़्यादा कुछ होने का दावा कोई भी नहीं कर सकता। सो मुझमें भी यह कमज़ोरी है। सचमुच अहम्मन्यता मेरे स्वभाव का एक अंग है। अपने साथियों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। यहाँ तक कि मेरे मित्र श्री बी.के. दत्त भी कभी-कभी मुझे निरंकुश कहा करते थे। कई अवसरों पर तानाशाह कह कर मेरी निन्दा की गयी। कुछ मित्रों को सचमुच यह शिकायत है, और गम्भीर शिकायत है, कि मैं अनजाने ही अपने विचार दूसरों पर थोपता हूँ और अपनी बातें ज़बरन मनवा लेता हूँ। मैं इन्कार नहीं करता कि एक हद तक यह बात सच है। इसे अहम्मन्यता भी कहा जा सकता है। जितनी अहम्मन्यता अन्य लोकप्रिय मतों के मुक़ाबले हमारे मत में है, उतनी मुझमें भी है। मगर वह निजी नहीं है। हो सकता है, हमारे मत में यह केवल एक समुचित गर्व हो और इसे अहम्मन्यता न माना जाता हो। अहम्मन्यता, अथवा और ज़्यादा ठीक-ठीक कहें तो अहंकार, किसी को अपने ऊपर हो जाने वाले अनुचित गर्व का नाम है। यहाँ मैं जिस सवाल पर चर्चा करना चाहता हूँ, वह यही है कि क्या मैं नास्तिक इसलिए बन गया हूँ कि मुझे अपने ऊपर ऐसा अनुचित गर्व है? अथवा इस विषय के सचेत अध्ययन और काफ़ी सोच-विचार के बाद मैंने ईश्वर में विश्वास करना छोड़ा है? वैसे, मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि अहंकार और अहम्मन्यता दो भिन्न चीज़ें हैं।
अव्वल तो मैं यह बात क़तई नहीं समझ सका कि अनुचित गर्व या मिथ्या दम्भ किसी को आस्तिक बनने से कैसे रोक सकता है। वास्तव में मैं किसी महान व्यक्ति की महानता से इन्कार कर सकता हूँ, बशर्ते कि वैसी योग्यता न होने पर भी, अथवा महान होने के लिए वास्तव में आवश्यक या अनिवार्य गुण न होने पर भी, मुझे किसी हद तक वैसी ही लोकप्रियता मिल जाये। यहाँ तक तो बात समझ में आती है। मगर यह कैसे हो सकता है कि कोई आस्तिक निजी अहम्मन्यता के कारण ईश्वर में विश्वास करना छोड़ दे? दो ही बातें हो सकती हैं: आदमी या तो स्वयं को ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी समझने लगे या यह मानने लगे कि वह स्वयं ही ईश्वर है। लेकिन इन दोनों ही स्थितियों में वह सच्चा नास्तिक नहीं बन सकता। पहली स्थिति में वह अपने प्रतिद्वन्द्वी के अस्तित्व से इन्कार ही नहीं करता, दूसरी स्थिति में भी वह एक ऐसी सत्ता के अस्तित्व को स्वीकार करता है जो अदृश्य रहकर प्रकृति की तमाम क्रियाओं को निर्देशित करती है। हमारे लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं कि वह स्वयं को सर्वोच्च सत्ता समझता है अथवा किसी सर्वोच्च सचेत सत्ता को स्वयं से अलग समझता है। मूल बात ज्यों की त्यों है। उसका विश्वास ज्यों का त्यों है। वह किसी भी तरह से नास्तिक नहीं है।
बहरहाल, मेरी बात मान लीजिये। मैं न तो पहली श्रेणी में आता हूँ न दूसरी में। मैं उस सर्वशक्तिमान परमात्मा के अस्तित्व से ही इन्कार करता हूँ। क्यों इन्कार करता हूँ, इसकी चर्चा बाद में करूँगा। यहाँ मैं केवल यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि नास्तिकता के सिद्धान्तों को अपनाने की दिशा में मुझे मेरी अहम्मन्यता ने प्रेरित नहीं किया है। मैं न तो ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी हूँ न उसका अवतार, न स्वयं परमात्मा। पक्की बात है कि अहम्मन्यता ने मुझे ऐसा सोचने के लिए प्रेरित नहीं किया है। इस आरोप को मिथ्या सिद्ध करने के लिए मुझे तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने की इजाज़त दीजिये। मेरे इन दोस्तों के मुताबिक़ दिल्ली बमकाण्ड और लाहौर षड्यन्त्र काण्ड के कारण चले मुक़दमों के दौरान मुझे जो आवश्यक लोकप्रियता मिल गयी है, शायद उसी ने मुझमें मिथ्या दम्भ पैदा कर दिया है। ख़ैर, देख लेते हैं कि उनकी बात सही है या नहीं।
मेरी नास्तिकता इतनी नयी चीज़ नहीं। मैंने तो ईश्वर को मानना तभी बन्द कर दिया था जब मैं एक अज्ञात नौजवान था और मेरे उपर्युक्त मित्रों को मेरे अस्तित्व का पता भी नहीं था। कम से कम कॉलेज का एक छात्र ऐसा अनुचित गर्व नहीं पाल सकता जो उसे नास्तिक बना दे। हालाँकि कुछ प्रोफ़ेसर मुझे पसन्द करते थे और कुछ नापसन्द, पर मैं कभी भी परिश्रमी या पढ़ाकू लड़का नहीं रहा। अहम्मन्यता जैसी भावनाएँ पालने का मेरे लिए कोई मौक़ा नहीं था। मैं तो बड़े शर्मीले स्वभाव का लड़का था और अपने भविष्य को लेकर कुछ निराशावादी ख़यालों में खोया रहता था। और उन दिनों मैं पक्का नास्तिक नहीं था। मेरे दादा, जिनके प्रभाव में मेरा पालन-पोषण हुआ, कट्टर आर्यसमाजी हैं। आर्यसमाजी और चाहे कुछ भी हो, नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद मैं लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में दाखिल हुआ और वहाँ के बोर्डिंग हाउस में पूरे एक साल तक रहा। वहाँ सुबह और शाम की प्रार्थनाओं के अलावा भी मैं घण्टों गायत्री मन्त्र जपता रहता था। उन दिनों मैं पूरा भगत था। आगे चलकर मैं अपने पिता के साथ रहने लगा। जहाँ तक धार्मिक कट्टरता का सवाल है, वे उदारतावादी हैं। उन्हीं के उपदेशों से मुझमें आज़ादी के उद्देश्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर देने की आकांक्षा उत्पन्न हुई। लेकिन वे नास्तिक नहीं हैं। वे मुझे प्रतिदिन सन्ध्या उपासना करने के लिए प्रोत्साहित किया करते थे। इस ढंग से मेरा पालन-पोषण हुआ। असहयोग आन्दोलन के दिनों में मैं नेशनल कॉलेज में दाखिल हुआ। वहीं जाकर मैने उदारतावादी ढंग से सोचना और सारी धार्मिक समस्याओं के बारे में, यहाँ तक कि ईश्वर के बारे में भी, बहस और आलोचना करना शुरू किया। मगर ईश्वर में मेरा अब भी पक्का विश्वास था। अब, मैं बिना कटे-छँटे दाढ़ी और केश रखने लगा था, मगर मैं सिख मत या किसी अन्य धर्म के मिथकों और सिद्धान्तों में विश्वास कभी नहीं कर पाया। फिर भी ईश्वर के अस्तित्व में मेरी पक्की आस्था थी।
आगे चलकर मैं क्रान्तिकारी दल में शामिल हुआ। सबसे पहले मैं जिन नेता के सम्पर्क में आया, वे ईश्वर को मानते तो नहीं थे, लेकिन उसके अस्तित्व को नकारने का साहस उनमें नहीं था। मैं ईश्वर के बारे में लगातार उनसे प्रश्न करता जाता तो वे कह दिया करते थे, “जब तुम्हारा मन करे, प्रार्थना कर लिया करो।” अब यह तो ऐसी नास्तिकता हुई कि नास्तिक बनने चले हैं और नास्तिक बनने की हिम्मत आप में नहीं। मैं जिन दूसरे नेता के सम्पर्क में आया, वे आस्तिक थे। उनका नाम बता ही दूँ – वे थे आदरणीय साथी शचीन्द्रनाथ सान्याल, जो कराची षड्यन्त्र काण्ड के सिलसिले में आजीवन कालेपानी की सज़ा भुगत रहे हैं। उनकी प्रसिद्ध और एकमात्र पुस्तक ‘बन्दी-जीवन’ में पहले पृष्ठ से ही ईश्वर की महिमा का ज़बरदस्त गुणगान किया गया है। उस ख़ूबसूरत किताब के दूसरे भाग के अन्तिम पृष्ठ पर अपने वेदान्तवाद के कारण उन्होंने ईश्वर को जो रहस्यवादी स्तुतियाँ गायी हैं, वे उनके विचारों का बड़ा अजीबोग़रीब हिस्सा हैं। 28 जनवरी, 1926 को जो क्रान्तिकारी परचा पूरे भारत में बाँटा गया था, वह मुक़दमे के काग़ज़ात के अनुसार उन्हीं के मानसिक श्रम का परिणाम था। अब यह तो होता ही है कि गुप्त कार्रवाई में प्रमुख नेता अपने उन निजी विचारों को व्यक्त कर डालता है जो उसे निजी तौर पर बहुत प्रिय होते हैं, और शेष कार्यकर्ताओं को मतभेदों के बावजूद उन विचारों से मौन सहमति प्रकट करनी पड़ती है। उस पर्चे में एक पूरा पैराग्राफ़ सर्वशक्तिमान ईश्वर की लीला और करनी की प्रशंसा से भरा हुआ था। वह सब रहस्यवाद है।
मैं कहना यह चाहता हूँ कि नास्तिकता का विचार क्रान्तिकारी दल में भी पैदा नहीं हुआ था। काकोरी काण्ड के चारों विख्यात शहीदों ने अपना अन्तिम दिन प्रार्थनाएँ करते हुए बिताया था। रामप्रसाद बिस्मिल कट्टर आर्यसमाजी थे। समाजवाद और साम्यवाद के अपने विस्तृत अध्ययन के बावजूद राजेन्द्र लाहिड़ी उपनिषदों और गीता के श्लोकों का पाठ करने की अपनी इच्छा को दबा नहीं सके थे। उन लोगों में मैंने सिर्फ़ एक आदमी ऐसा देखा जो कभी प्रार्थना नहीं करता था और कहा करता था कि “दर्शन मानवीय दुर्बलता या सीमित ज्ञान से पैदा होता है।” वह भी आजीवन कालेपानी की सज़ा भुगत रहा है। लेकिन ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस वह भी कभी नहीं जुटा सका।
तब तक मैं रूमानी आदर्शवादी क्रान्तिकारी ही था। तब तक हम केवल अनुयायी थे, आगे चलकर पूरी ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर उठाने का समय आया। अनिवार्यतः प्रतिक्रिया इतनी ज़बरदस्त थी कि कुछ समय तक तो दल का अस्तित्व ही असम्भव लगता रहा। उत्साही साथी, नहीं-नहीं, नेता हमारा मज़ाक़ उड़ाने लगे। कुछ समय तक मुझे ऐसा लगता रहा कि कहीं मैं भी अपने कार्यक्रम को व्यर्थ न मानने लगूँ। यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक मोड़ था। मेरे दिमाग़ के हर कोने-अन्तरे से एक ही आवाज़ रह-रह कर उठती – “अध्ययन करो। स्वयं को विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनाने के लिए अध्ययन करो!” “अपने मत के समर्थन में तर्कों से लैस होने के लिए अध्ययन करो!”
मैंने अध्ययन करना शुरू किया, उससे मेरी पूर्ववर्ती आस्थाओं और मान्यताओं में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। केवल हिंसात्मक उपायों में विश्वास रखने का रूमानीपन, जो हमसे पहले के लोगों पर हावी था, दूर हो गया और उसका स्थान गम्भीर विचारों ने ले लिया। रहस्यवाद और अन्धविश्वास के लिए अब कोई गुंजाइश नहीं रही। यथार्थवाद हमारा मत बन गया। अब हमारी समझ में आया कि शक्ति का प्रयोग अत्यन्त आवश्यक होने पर ही उचित है और आम जनता के तमाम आन्दोलनों के लिए अहिंसा की नीति अपरिहार्य है। यह तो हुई तरीक़ों की बात। सबसे महत्त्वपूर्ण बात थी उस आदर्श की स्पष्ट अवधारणा जिसके लिए हमें लड़ना था। चूँकि उस समय सक्रियता के स्तर पर कोई ख़ास गतिविधियाँ नहीं थीं, इसलिए विश्व-क्रान्ति के विभिन्न आदर्शों का अध्ययन करने के अवसर मुझे ख़ूब मिले। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, थोड़ा-सा साम्यवाद के जनक मार्क्स को पढ़ा, और अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति करने वाले लेनिन, त्रात्स्की तथा अन्य लोगों को ख़ूब पढ़ा। ये सब नास्तिक थे। बाकुनिन की पुस्तक ‘ईश्वर और राज्य’ अधूरी-सी होने के बावजूद इस विषय का एक रोचक अध्ययन है। बाद में निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मेरे पढ़ने में आयी। उसमें महज एक रहस्यवादी नास्तिकता थी। अब यह विषय मेरे लिए सबसे ज़्यादा रोचक बन गया। 1926 के अन्त तक मैं इस बात का कायल हो गया कि सारी दुनिया को बनाने, चलाने और नियन्त्रित करने वाली सर्वशक्तिमान परमसत्ता के अस्तित्व का सिद्धान्त निराधार है। मैंने अपने अविश्वास के बारे में दूसरों को बता भी दिया था। मित्रों के साथ मैं इस विषय पर बहस करने लगा। मैं घोषित रूप से नास्तिक बन चुका था। मगर इसका मतलब क्या था, इसकी चर्चा नीचे की जा रही है।
मई 1927 में लाहौर में मेरी गिरफ्तारी हुई। गिरफ्तारी अचानक हुई। मुझे ज़रा भी अन्देशा नहीं था कि पुलिस मेरी तलाश में है। अचानक एक बाग़ में से गुज़रते हुए मैंने पाया कि मैं पुलिस द्वारा घेर लिया गया हूँ। मुझे ख़ुद इस बात की हैरानी है कि मैं उस समय एकदम शान्त रहा। न तो मुझे कोई घबराहट हुई, न मैंने किसी उत्तेजना का अनुभव किया। मुझे हिरासत में ले लिया गया। अगले दिन मुझे रेलवे पुलिस की हवालात में ले जाया गया जहाँ मैंने पूरा एक महीना गुज़ारा।
पुलिस अफ़सरों से कई दिन की बातचीत के बाद मैंने अनुमान लगाया कि उन्हें काकोरी दल से मेरे सम्बन्ध होने तथा क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बन्धित मेरी अन्य गतिविधियों के बारे में कुछ जानकारी है। उन्होंने मुझे बताया कि जिन दिनों मुक़दमा चल रहा था, मैं लखनऊ गया था; कि मैंने अभियुक्तों से मिलकर उन्हें छुड़ाने की योजना बनाई थी; कि उनकी अनुमति पाकर हम लोगों ने कुछ बम जमा किये; कि जाँच के तौर पर उनमें से एक बम 1926 के दशहरे के दिन भीड़ में फेंका गया था, फिर उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम क्रान्तिकारी दल की गतिविधियों पर प्रकाश डालते हुए एक बयान दे दो, इससे तुम्हें जेल में नहीं डाला जायेगा। बल्कि अदालत में मुख़बिर बतौर पेश किये बिना ही तुम्हें छोड़ दिया जायेगा। मैं उनके इस प्रस्ताव पर हँस दिया। उनकी सब बातें वाहियात थीं। हमारे जैसे विचारों वाले लोग अपनी बेकसूर जनता पर बम नहीं फेंका करते। एक दिन सी.आई.डी. के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक मिस्टर न्यूमैन मेरे पास आये। और काफ़ी देर तक सहानुभूति जताने वाली बातें करने के बाद उन्होंने मुझे यह ख़बर सुनायी – जो उनके हिसाब से अत्यन्त दुखद थी – कि वे लोग जैसा बयान मुझसे चाहते हैं, मैंने नहीं दिया तो मजबूर होकर उन्हें मुझ पर काकोरी काण्ड के सिलसिले में शासन के विरुद्ध लड़ाई छेड़ने के षड्यन्त्र और दशहरा बमकाण्ड के सिलसिले में हुई क्रूर हत्याओं के लिए मुक़दमा चलाना पड़ेगा। फिर उन्होंने मुझे बताया कि उनके पास मुझे सज़ा दिलाने और फाँसी चढ़ाने के लिए काफ़ी सबूत मौजूद हैं। उन दिनों मैं यह मानता था – हालाँकि मैं बिल्कुल निर्दोष था – कि पुलिस चाहे तो ऐसा कर सकती है। उसी दिन कुछ पुलिस अफ़सरों ने मुझे सुबह-शाम दोनों समय नियम से प्रार्थना करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया। अब मैं ठहरा नास्तिक। मैंने अपने मन में यह फ़ैसला कर लेना चाहा कि मैं सुख-शान्ति के दिनों में ही नास्तिक होने की शेखी बघारता हूँ या ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी अपने सिद्धान्तों पर अटल रह सकता हूँ। बहुत सोच-विचार के बाद मैंने यह निश्चय किया कि मैं स्वयं को ईश्वर में विश्वास करने और उसकी प्रार्थना करने के लिए तैयार नहीं कर सकता। और मैंने प्रार्थना नहीं की। एक बार भी नहीं की। यह असली परीक्षा थी और मैं उसमें उत्तीर्ण हुआ। एक क्षण के लिए भी मेरे मन में यह विचार नहीं आया कि कुछ अन्य चीज़ों की क़ीमत पर मैं अपनी जान बचा लूँ। इस तरह मैं पक्का नास्तिक था और तब से आज तक हूँ। उस परीक्षा में उत्तीर्ण होना कोई आसान काम नहीं था। आस्तिकता मुश्किलों को आसान कर देती है, यहाँ तक कि उन्हें ख़ुशगवार भी बना सकती है। आदमी ईश्वर में बड़ी ज़बरदस्त राहत और दिलासा पा सकता है। उसके बिना आदमी को अपने ऊपर ही भरोसा करना पड़ता है। और आँधियों-तूफ़ानों के बीच अपने पैरों पर खड़े रहना बच्चों का खेल नहीं है। परीक्षा की ऐसी घड़ियों में अहम्मन्यता अगर हो भी तो कपूर की तरह उड़ जाती है और आदमी प्रचलित विश्वासों को ठुकराने की हिम्मत नहीं कर पाता, अगर करता है तो हमें कहना पड़ेगा कि उसमें निरी अहम्मन्यता के अलावा कोई और ताक़त है।
ठीक यही स्थिति आज है। सब लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हमारे मुक़दमे का फ़ैसला क्या होना है। हफ्तेभर में वह सुना भी दिया जायेगा। मेरे लिए इस ख़याल के अलावा और क्या राहत हो सकती है कि मैं एक उद्देश्य के लिए अपने प्राणों का बलिदान करने जा रहा हूँ? ईश्वर में विश्वास करने वाला हिन्दू राजा बनकर पुनर्जन्म लेने की आशा कर सकता है, मुसलमान या ईसाई जन्नत में मिलने वाले मज़े लूटने और अपनी मुसीबतों और क़ुर्बानियों के बदले इनाम हासिल करने के सपने देख सकता है। मगर मैं किस चीज़ की उम्मीद करूँ? मैं जानता हूँ कि जब मेरी गरदन में फाँसी का फन्दा डालकर मेरे पैरों के नीचे से तख़्ते खींचे जायेंगे, सबकुछ समाप्त हो जायेगा। वही मेरा अन्तिम क्षण होगा। मेरा, अथवा आध्यात्मिक शब्दावली में कहूँ तो मेरी आत्मा का, सम्पूर्ण अन्त उसी क्षण हो जायेगा। बाद के लिए कुछ नहीं रहेगा। अगर मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस है तो एक छोटा-सा संघर्षमय जीवन ही, जिसका अन्त भी कोई शानदार अन्त नहीं, अपनेआप में मेरा पुरस्कार होगा। बस और कुछ नहीं। किसी स्वार्थपूर्ण इरादे के बिना, इहलोक या परलोक में कोई पुरस्कार पाने की इच्छा के बिना, बिल्कुल अनासक्त भाव से मैंने अपना जीवन आज़ादी के उद्देश्य के लिए अर्पित किया है, क्योंकि मैं ऐसा किये बिना रह नहीं सका।
जिस दिन ऐसी मानसिकता वाले बहुत से लोग हो जायेंगे जो मानव-सेवा और पीड़ित मानवता की मुक्ति को हर चीज़ से ऊपर समझ कर उसके लिए अपनेआप को अर्पित करेंगे, उसी दिन आज़ादी का युग शुरू होगा। जब वे राजा बनने के लिए नहीं; इहलोक में, अगले जन्म या मृत्यु के उपरान्त स्वर्ग में जाकर कोई अन्य पुरस्कार पाने के लिए नहीं बल्कि मानवता की गरदन पर रखा दासता का जुवा उतार फेंकने के लिए और स्वतन्त्रता एवं शान्ति की स्थापना के लिए दमनकारियों, शोषकों और अत्याचारियों को चुनौती देने की प्रेरणा ग्रहण करेंगे, तभी वे इस मार्ग पर चल सकेंगे जो व्यक्तिगत रूप से उनके लिए भले ही ख़तरनाक हो लेकिन उनकी महान आत्माओं के लिए एकमात्र गौरवपूर्ण मार्ग है।
इस महान उद्देश्य के लिए स्वयं को अर्पित करने में उन्हें जो गर्व होगा, क्या उसे अहम्मन्यता कहा जा सकता है? उन पर ऐसा घृणित लांछन लगाने की हिम्मत कौन कर सकता है? अगर कोई करता है तो मैं कहूँगा कि या तो वह मूर्ख है या धूर्त। चलिए, हम उसे माफ़ किये देते हैं, क्योंकि वह हृदय की गहराई और आवेग को, उसमें उठने वाली भावनाओं और उदात्त अनुभूतियों को समझ ही नहीं सकता। उसका दिल मांस का बेजान लोथड़ा है। उसकी आँखों पर अन्य स्वार्थों का परदा पड़ा हुआ है, इसलिए वे अच्छी तरह देख ही नहीं सकतीं।
आत्मनिर्भरता को अहम्मन्यता के रूप में व्याख्यायित कर लेने की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। यह बड़ी दुखद और बुरी बात है, लेकिन इसके बारे में कुछ किया नहीं जा सकता। आप किसी प्रचलित विश्वास का विरोध करके देखिये, किसी ऐसे नायक या महान व्यक्ति की आलोचना करके देखिये, जिसके बारे में लोग यह मानते हों कि वह कभी कोई ग़लती कर ही नहीं सकता इसलिए उसकी आलोचना की ही नहीं जा सकती, आप के तर्कों की ताक़त लोगों को मजबूर करेगी कि वे अहंकारी कहकर आप का मज़ाक़ उड़ायें। इसका कारण मानसिक जड़ता है। आलोचना और स्वतन्त्र चिन्तन क्रान्तिकारी के दो अनिवार्य गुण होते हैं। यह नहीं कि महात्माजी महान हैं इसलिए किसी को उनकी आलोचना नहीं करनी चाहिए; चूँकि वे पहुँचे हुए आदमी हैं इसलिए राजनीति, धर्म, अर्थशास्त्र या नीतिशास्त्र पर वे जो कुछ कह देंगे वह सही ही होगा; आप सहमत हों या न हों पर आप को कहना ज़रूर पड़ेगा कि यही सत्य है। यह मानसिकता प्रगति की ओर नहीं ले जाती। साफ़ ज़ाहिर है कि यह प्रतिक्रियावादी मानसिकता है।
चूँकि हमारे पूर्वजों ने किसी परमसत्ता में – सर्वशक्तिमान ईश्वर में विश्वास बना लिया था, इसलिए उस विश्वास को या उस परम सत्ता को चुनौती देने वालों को अगर काफ़िर और ग़द्दार कहा जाना है; चूँकि उसके तर्क इतने वज़नी हैं कि उनकी काट सम्भव नहीं और उसकी भावना इतनी प्रबल है कि सर्वशक्तिमान के कोप से उस पर पड़ने वाली मुसीबतों का भय दिखा कर भी उसे दबाया नहीं जा सकता, इसलिए अहंकारी कह कर उसका और अहम्मन्यता कहकर उसकी भावना का मज़ाक़ उड़ाया ही जाना है तो फिर इस बेकार बहस में समय नष्ट करने की ज़रूरत ही क्या? इस सारे मसले पर जिरह करने की कोशिश ही क्यों? मैं जो यह विस्तृत चर्चा छेड़ बैठा हूँ, उसकी वजह यह है कि जनता के सामने यह सवाल पहली बार आ रहा है और पहली बार इस पर किसी लागलपेट के बिना बातचीत हो रही है।
जहाँ तक पहले सवाल का सम्बन्ध है, मेरा ख़याल है मैंने यह स्पष्ट कर दिया है कि मैं अहम्मन्यता से प्रेरित होकर नास्तिक नहीं बना। मेरी तर्कपद्धति स्वीकार्य है या नहीं, यह फ़ैसला मुझे नहीं, बल्कि मेरे पाठकों को करना है। मैं जानता हूँ कि यदि मैं आस्तिक होता तो इन परिस्थितियों में मेरी ज़िन्दगी आसान हो गयी होती, मेरा बोझ हलका हो गया होता। ईश्वर में विश्वास न करने के कारण मेरी हालत खुश्क है और इससे भी बदतर हो सकती है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इस स्थिति को ख़ुशगवार बना सकता था, मगर मैं अपनी नियति का सामना करने के लिए किसी नशे का सहारा लेना नहीं चाहता। मैं यथार्थवादी हूँ। मैं अपनी सहजवृत्ति पर विवेक से विजय पाने की कोशिश करता रहा हूँ। मैं इस कोशिश में हमेशा क़ामयाब नहीं रहा हूँ। मगर इन्सान का फ़र्ज़ है कि वह कोशिश करे। सफलता तो संयोग और परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
जहाँ तक दूसरे सवाल का सम्बन्ध है कि यदि ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी पुराने और प्रचलित विश्वास में अविश्वास अहम्मन्यता के कारण नहीं तो उसका कोई और कारण होना चाहिए, मुझे यह कहना है कि हाँ, कारण है। मेरे विचार से जिस आदमी में थोड़ा-सा भी विवेक होता है, वह हमेशा अपनी परिस्थितियों को तर्कसंगत ढंग से समझना चाहता है। जहाँ सीधे प्रमाण नहीं मिलते वहाँ दर्शन हावी हो जाता है। जैसाकि मैं पहले कह चुका हूँ, मेरे एक क्रान्तिकारी मित्र कहा करते थे कि दर्शन मानवीय दुर्बलता का परिणाम है। हमारे पूर्वज जब इस दुनिया के रहस्यों की गुत्थी सुलझाने की कोशिश करते थे; इसके अतीत, वर्तमान और भविष्य को तथा इससे सम्बन्धित ‘क्यों’ और ‘कहाँ से’ आदि को समझने चलते थे, तो उनके पास फ़ुरसत की तो कोई कमी नहीं होती थी मगर प्रत्यक्ष प्रमाण बहुत ही कम होते थे। इसलिए हर आदमी अपने ढंग से समस्या को हल करने की कोशिश करता था। यही कारण है कि विभिन्न धार्मिक मतों में बुनियादी सिद्धान्त पर भारी मतभेद मिलते हैं, जो कभी-कभी नितान्त विरोधी और शत्रुतापूर्ण रूप ग्रहण कर लेते हैं।
प्राच्य और पाश्चात्य दर्शनों में भिन्नता है ही, विश्व के प्रत्येक भू-भाग की अपनी विचार प्रणालियों में भी मतभेद है। प्राच्य धर्मों में इस्लाम और हिन्दू धर्मों में कोई अनुकूलता नहीं है। केवल भारत में ही देखें तो बौद्ध और जैन धर्म कहीं-कहीं ब्राह्मणवाद से बिल्कुल अलग हैं, जो स्वयं आर्यसमाज और सनातन धर्म जैसे परस्पर विरोधी विश्वासों में बँटा हुआ है। इन सबसे अलग प्राचीन काल में चार्वाक दर्शन में एक अपने ही ढंग का स्वतन्त्र विचार मिलता है। चार्वाक ने बहुत पहले ही ईश्वर की प्रभुसत्ता को चुनौती दे दी थी। जीवन और जगत-सम्बन्धी आधारभूत प्रश्न पर इन सभी मतों में भिन्नता है और हर कोई अपनेआप को ही सही मानता है। यही है सारी बुराई की जड़।
प्राचीन काल के विद्वानों और चिन्तकों के प्रयोगों तथा उद्गारों को आधार बनाकर अज्ञान के विरुद्ध आगे की लड़ाई लड़ने और इस रहस्यमयी समस्या का समाधान खोजने के बजाय हम निकम्मे लोग – हमने सिद्ध कर दिया है कि हम निकम्मे हैं – विश्वास की, अपने-अपने मतों में अटल और अडिग विश्वास की, चीख़-पुकार मचाते रहते हैं। इस प्रकार हम मानवीय प्रगति को अवरुद्ध कर देने के दोषी हैं।
प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से सम्बन्धित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे। प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अन्तरे की विवेकपूर्ण जाँच-पड़ताल उसे करनी होगी। यदि कोई विवेकपूर्ण ढंग से पर्याप्त सोच-विचार के बाद किसी सिद्धान्त या दर्शन में विश्वास करता है तो उसके विश्वास का स्वागत है। उसकी तर्क-पद्धति भ्रान्तिपूर्ण, ग़लत, पथ-भ्रष्ट और कदाचित हेत्वाभासी हो सकती है, लेकिन ऐसा आदमी सुधरकर सही रास्ते पर आ सकता है, क्योंकि विवेक का ध्रुवतारा सही रास्ता बनाता हुआ उसके जीवन में चमकता रहता है। मगर कोरा विश्वास और अन्धविश्वास ख़तरनाक होता है। क्योंकि वह दिमाग़ को कुन्द करता है और आदमी को प्रतिक्रियावादी बना देता है।
यथार्थवादी होने का दावा करने वाले को तो समूचे पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी। यदि विश्वास विवेक की आँच बरदाश्त नहीं कर सकता तो ध्वस्त हो जायेगा। तब यथार्थवादी आदमी को सबसे पहले उस विश्वास के ढाँचे को पूरी तरह गिराकर उस जगह एक नया दर्शन खड़ा करने के लिए ज़मीन साफ़ करनी होगी।
यह तो हुआ नकारात्मक पक्ष। इसके बाद शुरू होता है सकारात्मक कार्य, जिसमें कई बार पुराने विश्वास की कुछ सामग्री पुनर्निर्माण के लिए इस्तेमाल की जा सकती है। जहाँ तक मेरी बात है, पहले ही कह दूँ कि मैं इस विषय का ज़्यादा अध्ययन नहीं कर पाया हूँ। मेरी बड़ी इच्छा थी कि प्राच्य दर्शन का अध्ययन करूँ, लेकिन वैसा कोई संयोग या अवसर मुझे नहीं मिला, मगर जहाँ तक नकारात्मक पक्ष का सम्बन्ध है, मैं पुराने विश्वास के सही होने की बात पर प्रश्नचिह्न लगाने का कायल हो चुका हूँ। मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि प्रकृति का निर्देशन और संचालन करने वाली किसी चेतन परम सत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है। हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रकृति को मानव सेवा में नियोजित करने के लिए उसे मनुष्य की वशवर्ती बनाना समूचे प्रगतिशील आन्दोलन का लक्ष्य है। उसे चलाने वाली कोई चेतन शक्ति उसके पीछे नहीं है, यही हमारा दर्शन है।
नकारात्मक पक्ष की ओर से हम आस्तिकों से कुछ सवाल पूछते हैं: यदि आप के विश्वास के अनुसार कोई सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञ ईश्वर है, जिसने इस पृथ्वी या दुनिया की सृष्टि की तो कृपया यह बताइये कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने ऐसी दुनिया क्यों बनाई जिसमें तमाम दुख हैं, तकलीफ़ें हैं, जिसमें वास्तविक जीवन की त्रासदियों का एक अनन्त सिलसिला है और जिसमें एक भी प्राणी पूरी तरह सन्तुष्ट नहीं है?
कृपा करके यह न कहिये कि यह उसका नियम है, क्योंकि वह किसी नियम से बँधा हुआ है तो सर्वशक्तिमान नहीं है, तब तो वह हम जैसा ही एक ग़ुलाम है। कृपया यह भी न कहिये कि यह उसकी लीला या क्रीड़ा है जिसमें उसे आनन्द आता है। नीरो ने तो एक ही रोम को जलाया था। उसने तो थोड़े-से लोगों की ही जानें ली थीं। उसने तो पूर्णतः अपने आनन्द के लिए कुछ ही त्रासदियों को जन्म दिया था। और इतिहास में उसकी जगह कहाँ है? इतिहासकार उसे किस नाम से याद करते हैं? दुनियाभर की नफ़रतभरी लानतें उस पर बरसायी जाती हैं। अत्याचारी, हृदयहीन और दुष्ट नीरो की भर्त्सना करते हुए पृष्ठ पर पृष्ठ गालियों से भरी कटु निन्दाओं से काले किये गये हैं। एक चंगेज़ख़ाँ था, जिसने हत्या का आनन्द लेने के लिए कुछ हज़ार लोगों की जानें ले ली थी और हम उसके नाम तक से नफ़रत करते हैं। तब आप अपने सर्वशक्तिमान, शाश्वत नीरो को उचित कैसे ठहरायेंगे जो हर दिन, हर घण्टे और हर मिनट असंख्य त्रासदियों को जन्म देता रहा है और आज भी दे रहा है? कैसे आप उसके उन दुष्कृत्यों का समर्थन करेंगे, जो प्रतिक्षण चंगेज़ख़ाँ के दुष्कृत्यों को मात करते हैं?
मैं पूछता हूँ, उसने यह दुनिया बनायी ही क्यों, जो साक्षात नर्क है, जो अनन्त और तल्ख़ बेचैनी का घर है? उस सर्वशक्तिमान ने मनुष्य की सृष्टि क्यों की जबकि उसके पास ऐसी सृष्टि न करने की शक्ति थी? इस सबका औचित्य क्या है? क्या कहा, परलोक में निर्दोष उत्पीड़ितों को पुरस्कार और कुकर्म करने वालों को दण्ड देने के लिए? अच्छा, तो यह बताइये कि उस आदमी को आप कहाँ तक सही ठहरायेंगे जो बाद में मुलायम और आरामदेह मरहम लगाने के लिए आपके शरीर को ज़ख़्मों से छलनी कर दे? ग्लैडिएटरों की संस्था के समर्थक और प्रबन्धक, जो पहले तो लोगों को भूखे और क्रुद्ध शेरों के सामने फेंक देते थे और बाद में अगर वे लोग ज़िन्दा बच जाते तो उनकी बड़ी अच्छी देखभाल करते थे, कहाँ तक सही थे? इसीलिए मैं पूछता हूँ कि उस चेतन परम सत्ता ने इस दुनिया की और उसमें मनुष्य की सृष्टि क्यों की? अपने मज़े के लिए? तो फिर उसमें और नीरो में क्या फ़र्क़ है?
हिन्दू दर्शन के पास तो अभी और भी तर्क होंगे, लेकिन मुसलमानो और ईसाइयो, मैं आप लोगों से पूछता हूँ कि आप के पास ऊपर के सवाल का क्या जवाब है? आप तो पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते। हिन्दुओं की तरह आप यह तर्क नहीं दे सकते कि प्रत्यक्ष रूप से निर्दोष लोग इसलिए दुख पा रहे हैं कि पूर्वजन्म में उन्होंने बुरे कर्म किये थे। मैं तो आप से पूछता हूँ कि उस सर्वशक्तिमान ने छह दिनों तक शब्द के द्वारा इस दुनिया को बनाने की मेहनत क्यों की और क्यों प्रतिदिन यह कहा कि सब ठीक है? आज उसे बुलाइये। उसे पिछला इतिहास दिखाइए। उससे कहिये कि वह वर्तमान स्थिति का अध्ययन करे। देखें वह कैसे कहता है कि “सब ठीक है”! जेलों की कालकोठरियों, गन्दी बस्तियों और झुग्गी-झोंपड़ियों में भूखे मरते लाखों लोग, पूँजीवादी राक्षसों द्वारा अपना रक्त चूसे जाने की प्रक्रिया को धैर्यपूर्वक या रिक्त भाव से देखने वाले शोषित मज़दूरों, मामूली समझ वाले आदमी को भी आतंकित कर देने वाली मानवीय ऊर्जा की फ़िज़ूलख़र्चियों और ज़रूरतमन्द उत्पादकों में बाँटने के बजाय अतिरिक्त उत्पादन को समुद्र में फेंक देने जैसे कार्यों से लेकर नरकंकालों की नींव पर खड़े किये गये शाही महलों तक, हर चीज़ उसे दिखाइये और ज़रा उससे कहलाइये कि “सब ठीक है”! यह सब क्यों और कहाँ से आया? यह है मेरा सवाल। आप ख़ामोश हैं? तो ठीक है, मैं अपनी बात आगे बढ़ाता हूँ।
अच्छा, हिन्दुओ, आप कहते हैं कि जो लोग आज दुख पा रहे हैं वे पूर्वजन्मों के पापी हैं। ठीक, आप यह भी कहते हैं कि आज के उत्पीड़क लोग पूर्वजन्मों के धर्मात्मा हैं इसलिए उनके हाथ में सत्ता है। मानना पड़ेगा कि आप के पूर्वज बड़े चालाक थे। उन्होंने ऐसे सिद्धान्त खोज निकालने का प्रयास किया जिनसे विवेक और अविश्वास के आधार पर की जाने वाली तमाम कोशिशों को दबा दिया जाये। लेकिन आइये, विश्लेषण करके देखें कि वास्तव में इस तर्क में कितना दम है।
क़ानून के प्रसिद्धतम जानकारों की राय में दुष्कर्म करने वाले को दी जाने वाली सज़ा केवल तीन-चार उद्देश्यों की दृष्टि से ही उचित ठहरायी जाती है। ये उद्देश्य हैं: प्रतिकार, यानी बदला लेना; सुधार यानी दोषी व्यक्ति को सुधारकर सही रास्ते पर लाना; और निवारण यानी दण्ड का भय दिखाकर लोगों को दुष्कर्म करने से रोकना। प्रतिकार के सिद्धान्त की भर्त्सना तो आज के सभी प्रगतिशील विचारक करते ही हैं, निवारण के सिद्धान्त का भी यही हश्र होने वाला है। एकमात्र सुधार का सिद्धान्त ही सारवान और मानवीय प्रगति के लिए अपरिहार्य है। इसका उद्देश्य है दोषी व्यक्ति को अत्यन्त सुयोग्य एवं शान्तिप्रिय नागरिक बनाकर समाज को लौटा देना। लेकिन अगर हम सभी मनुष्यों को अपराधी मान भी लें तो ईश्वर द्वारा उन्हें दी जाने वाली सज़ा कैसी है? आप कहते हैं कि वह उन्हें गाय, बिल्ली, वृक्ष, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर दुनिया में भेजता है। आप इन सज़ाओं की संख्या 84 लाख बताते हैं। मैं पूछता हूँ, इसका मनुष्य पर कौन-सा सुधारात्मक प्रभाव पड़ता है? आप को ऐसे कितने लोग मिले जो कहते हों कि पाप करने के कारण पिछले जन्म में वे गधा बने थे? एक भी नहीं। अपने पुराणों के उद्धरण रहने दीजिये। आप की पौराणिक कहानियों में उलझने की फ़ुरसत मेरे पास नहीं है। आप तो यह बताइये, क्या आप जानते हैं कि इस दुनिया में सबसे बड़ा पाप ग़रीब होना है, लेकिन आप के अनुसार यह लोगों को ईश्वर द्वारा दी गयी सज़ा है। मैं पूछता हूँ, आप उस अपराधविज्ञानी को, उस विधिवेत्ता या विधायक को कैसे उचित ठहरायेंगे जो आदमी को अनिवार्यतः और ज़्यादा अपराध करने के लिए मजबूर करने वाली सज़ाएँ तजवीज़ करे? क्या आपके ईश्वर ने इस चीज़ पर ग़ौर नहीं किया? या उसे भी ऐसी बातें अनुभव से सीखनी पड़ती हैं? लेकिन मानवता को अकथनीय दुख झेलकर इसके लिए कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है!
किसी ग़रीब और अनपढ़ चमार या भंगी के घर पैदा होने वाले आदमी की नियति आप के ख़याल से क्या होगी? वह ग़रीब है इसलिए पढ़-लिख नहीं सकता। तथाकथित ऊँची जाति में पैदा होने के कारण स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले उसके संगी-साथी उससे नफ़रत करते हैं और अछूत मानकर अलग-थलग रखते हैं। उसका अज्ञान, उसकी ग़रीबी और उसके साथ किया जाने वाला बरताव समाज के प्रति उसके हृदय को कठोर बना देगा। मान लीजिये, वह कोई पाप करता है, तो उसकी सज़ा कौन भुगतेगा? ईश्वर? वह स्वयं, या समाज के ज्ञानवान लोग? घमण्डी और स्वार्थी ब्राह्मणों द्वारा जान-बूझकर अज्ञानी बनाकर रखे गये उन लोगों की सज़ा के बारे में आप क्या कहते हैं जिन्हें आप के पवित्र ज्ञान-ग्रन्थों, यानी वेदों की कुछ पंक्तियाँ सुन लेने का दण्ड अपने कानों में पिघले हुए गरम सीसे की धार झेलकर भरना पड़ता था? अगर उनका कोई अपराध था भी तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन था और उसका नतीजा किसको भुगतना चाहिए था?
मेरे प्यारे दोस्तो, ये सिद्धान्त विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के मनगढ़न्त सिद्धान्त हैं। वे इन सिद्धान्तों के जरिये ज़बरदस्ती हथियाई हुई अपनी शक्ति, सम्पन्नता और श्रेष्ठता को उचित ठहराते हैं। याद आया, शायद अप्टन सिक्लेयर ने कहीं लिखा है कि आदमी को अमरता में विश्वास करने वाला बना दो और उसके पास धन-सम्पत्ति आदि जो कुछ भी है, सब लूट लो। वह उफ़ नहीं करेगा, यहाँ तक कि अपने को लूटने में ख़ुद आप की मदद करेगा। धार्मिक उपदेशकों और सत्ताधारियों की मिलीभगत से ही जेलों, फाँसियों, कोड़ों और इन सिद्धान्तों का निर्माण हुआ है।
मैं पूछता हूँ, जब कोई आदमी पाप या अपराध करना चाहता है तो आपका सर्वशक्तिमान ईश्वर उसे रोकता क्यों नहीं? उसके लिए तो यह बहुत ही आसान काम होगा। उसने जंगबाज़ों को मारकर या उनके भीतर युद्धोन्माद को मारकर मनुष्यता को विश्वयुद्ध की महाविपत्ति से क्यों नहीं बचाया? वह अंग्रेज़ों के मन में कोई ऐसी भावना क्यों नहीं पैदा कर देता कि वे हिन्दुस्तान को आज़ाद कर दें? वह तमाम पूँजीपतियों के दिलों में परोपकार का ऐसा जज़्बा क्यों नहीं भर देता कि वे उत्पादन के साधनों पर अपने निजी स्वामित्व के अधिकार को त्याग दें और इस प्रकार सारे मेहनतकश वर्ग को ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज को पूँजीवाद के बन्धन से मुक्त कर दें? आप समाजवाद के सिद्धान्त की व्यावहारिकता पर बहस करना चाहते हैं। चलिये, मैं यह ज़िम्मेदारी आपके सर्वशक्तिमान पर ही डालता हूँ कि वह उसे व्यावहारिक बना दे। लोग इतना तो मानते ही हैं कि आम जनता की भलाई के लिए समाजवाद अच्छी चीज़ है। उसका विरोध करने के लिए उनके पास एक ही बहाना है कि वह व्यावहारिक नहीं है। तो अपने सर्वशक्तिमान को बुलाइये और उससे कहिए कि वह बाक़ायदा सारी दुनिया में समाजवाद क़ायम कर दे।
अब आप गोलमाल तर्क देना बन्द कीजिये, वे चलेंगे नहीं। मैं आपको बता दूँ, अंग्रेज़ों का शासन यहाँ इसलिए नहीं है कि यह ईश्वर की इच्छा है, बल्कि इसलिए है कि उनके पास ताक़त है और हम उनका विरोध नहीं करते। वे ईश्वर की सहायता से नहीं, बल्कि तोपों, बन्दूक़ों, बमों और गोलियों, पुलिस और प़फ़ौज तथा हमारी उदासीनता की सहायता से हमें ग़ुलाम बनाये हुए हैं और एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का निर्लज्ज शोषण करने का सबसे घृणित पाप समाज के विरुद्ध सफलतापूर्वक करते चले जा रहे हैं। ईश्वर कहाँ है? वह क्या कर रहा है? क्या वह मानवजाति के इन सब दुखों और तकलीफ़ों का मज़ा ले रहा है? तब तो वह नीरो है, चंगेज़ख़ाँ है, उसका नाश हो!
क्या आप मुझसे यह जानना चाहते हैं कि यदि मैं ईश्वर को नहीं मानता तो दुनिया और इन्सान को कहाँ से पैदा हुआ मानता हूँ? ठीक है, बताता हूँ। चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसका अध्ययन कीजिये। निर्लम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ पढ़िए। इससे कुछ हद तक आपके सवाल का जवाब मिल जायेगा। यह प्राकृतिक घटना है। विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक संयोग से उत्पन्न नीहारिका से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। कब? यह जानने के लिए इतिहास देखिये। इसी प्रकार जीवधारी उत्पन्न हुए और उनमें से ही एक लम्बे अरसे के बाद मनुष्य का विकास हुआ। डार्विन की पुस्तक ‘जीवों की उत्पत्ति’ पढ़िए। और इसके बाद की तमाम प्रगति प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए मनुष्य द्वारा उसके विरुद्ध किये गये अनवरत संघर्ष से हुई है। इस घटना की यह संक्षिप्ततम व्याख्या है।
आपका दूसरा तर्क यह हो सकता है कि जन्म से ही अन्धे या लंगड़े पैदा होने वाले बच्चे यदि पूर्वजन्म के कर्मों के कारण नहीं तो और किस कारण से ऐसे पैदा होते हैं। जीवविज्ञानी इसकी व्याख्या कर चुके हैं और उनके अनुसार यह महज एक जीववैज्ञानिक घटना है। उनके अनुसार इसके लिए माता-पिता उत्तरदायी होते हैं, चाहे वे गर्भावस्था में ही बच्चे में हो जाने वाली विकृतियों को जन्म देने वाले अपने कार्यों के प्रति सचेत हों या न हों।
स्वाभाविक है कि अब आप एक और सवाल पूछेंगे – हालाँकि सारतः वह सवाल बचकाना है। आपका सवाल होगा: यदि ईश्वर था ही नहीं तो लोग उसमें विश्वास कैसे करने लगे? मेरा उत्तर स्पष्ट और संक्षिप्त है। लोग जिस तरह भूतों और प्रेतात्माओं में विश्वास करने लगे, उसी तरह ईश्वर में विश्वास करने लगे; फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि ईश्वर में विश्वास सर्वव्यापी है और इसका दर्शन बहुत विकसित है। कुछ परिवर्तनवादी यह मानते हैं कि ईश्वर की उत्पत्ति शोषकों की चालबाज़ी से हुई, जो एक परमसत्ता के अस्तित्व का प्रचार करके और फिर उससे प्राप्त सत्ता और विशेष अधिकारों का दावा करके लोगों को ग़ुलाम बनाना चाहते थे। मैं यह नहीं मानता कि उन्हीं लोगों ने ईश्वर को पैदा किया, हालाँकि मैं इस मूल बात से सहमत हूँ कि सभी विश्वास, धर्म, मत और इस प्रकार की अन्य संस्थाएँ अन्ततः दमनकारी तथा शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों और वर्गों की समर्थक बनकर ही रहीं। राजा के विरुद्ध विद्रोह करना हर धर्म के मुताबिक़ पाप है।
ईश्वर की उत्पत्ति के बारे में मेरा अपना विचार यह है कि मनुष्य ने जब अपनी कमियों और कमज़ोरियों पर विचार करते हुए अपनी सीमाओं का अहसास किया तो मनुष्य को तमाम कठिन परिस्थितियों का साहसपूर्वक सामना करने और तमाम ख़तरों के साथ वीरतापूर्वक जूझने की प्रेरणा देने वाली तथा सुख-समृद्धि के दिनों में उसे उच्छृंखल हो जाने से रोकने और नियन्त्रित करने वाली सत्ता के रूप, ईश्वर, की कल्पना की। अपने निजी नियमों वाले और पालनहार जैसी उदारता वाले ईश्वर की कल्पना ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर की गयी और वैसा ही उसका विशद चित्रण किया गया। उसके क्रोध और मनमाने नियमों की चर्चा करके उसका इस्तेमाल एक निवारक तत्त्व के रूप में किया जाता था, ताकि आदमी समाज के लिए ख़तरा न बन जाये। उसके पालनहार जैसे गुणों की चर्चा करके उससे पिता, माता, बहिन और भाई, मित्र और सहायक का काम लिया जाता था, ताकि आदमी जब भारी मुसीबत में हो और सब लोग धोखा देकर उसका साथ छोड़ गये हो तो वह इस विचार से तसल्ली पा सके कि कम से कम एक तो उसका सच्चा मित्र है जो उसकी सहायता करेगा, उसे सहारा देगा, और जो ऐसा सर्वशक्तिमान है कि कुछ भी कर सकता है। आदिम युग के समाज में यह चीज़ सचमुच बड़ी उपयोगी थी। मुसीबत में पडे़ आदमी के लिए ईश्वर का विचार मददगार होता था।
समाज ने जिस प्रकार मूर्तिपूजा और धार्मिक संकीर्णताओें के विरुद्ध संघर्ष किया है, उसी प्रकार उसे इस विश्वास के विरुद्ध भी संघर्ष करना होगा। इसी तरह इन्सान जब अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश करेगा और यथार्थवादी बनेगा, तो उसे अपनी आस्तिकता को झटककर फेंक देना पड़ेगा और परिस्थितियाँ चाहे उसे कैसी भी मुसीबत और परेशानी में डाल दें, उनका सामना मर्दानगी के साथ करना पड़ेगा। मेरी हालत ठीक इसी तरह की है।
मेरे दोस्तो, यह अहम्मन्यता नहीं है। यह मेरे सोचने का तरीक़ा है, जिसने मुझे नास्तिक बना दिया है। मैं नहीं जानता कि ईश्वर में विश्वास करने और रोज़ प्रार्थना करने से – जिसे मैं आदमी का सबसे स्वार्थपूर्ण और घटिया काम समझता हूँ – मुझे राहत मिलती या मेरी हालत और भी बदतर हुई होती। मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने साहसपूर्वक सारी मुसीबतों का सामना किया। उन्हीं की तरह मैं भी यह कोशिश कर रहा हूँ कि आखि़र तक, फाँसी के तख़्ते पर भी, मर्द की तरह सिर ऊँचा किये खड़ा रहूँ।
देखिये, इस कोशिश में कहाँ तक क़ामयाब होता हूँ। एक मित्र ने मुझसे प्रार्थना करने के लिए कहा था। जब उन्हें पता चला की मैं नास्तिक हूँ, तो उन्होंने कहा, “अपने अन्तिम दिनों में तुम ईश्वर को मानने लगोगे।” मैंने कहा, “नहीं जनाब, यह नहीं होगा। मैं इसे अपने लिए अपमान और पस्तहिम्मती का काम समझूँगा। स्वार्थपूर्ण इरादों से प्रार्थना हरगिज़ नहीं करूँगा।” पाठको और मित्रो, क्या यह अहम्मन्यता है? अगर है तो मैं इसका हामी हूँ।
(अक्टूबर, 1930)