Monday, 16 April 2001

“लाल परचा” – भगत सिंह और बी.के. दत्त

हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना (सूचना)
“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की आवश्यकता होती है।”, प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद बैलियाँ के यह अमर शब्द हमारे काम के औचित्य के साक्षी हैं।
पिछले दस वर्षों में ब्रिटिश सरकार ने शासन/सुधार के नाम पर इस देश का जो अपमान किया है, उसकी कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं और ना ही हिंदुस्तानी पार्लियामेंट पुकारी जाने वाली इस सभा ने भारतीय राष्ट्र के सिर पर पत्थर फेंक कर उसका जो अपमान किया है, उसके उदाहरणों को याद दिलाने की आवश्यकता है। यह सब सर्वविदित और स्पष्ट है। आज फिर जब लोग ‘साइमन कमीशन’ से कुछ सुधारों के टुकड़ों की आशा में आंखें फैलाएं हैं और इन टुकड़ों के लोभ में आपस में झगड़ रहे हैं। विदेशी सरकार ‘सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक’ (पब्लिक सेफ्टी बिल) और ‘उद्योगिक विवाद विधेयक’ (ट्रेड डिस्प्यूटस बिल) के रूप में अपने दमन को और भी कड़ा कर लेने का यतन कर रही है। इसके साथ ही आने वाले अधिवेशन में “अखबार द्वारा राजधरोह रोकने का कानून” (प्रेस सडीशन एक्ट) जनता पर कसने की भी धमकी दी जा रही है। सार्वजनिक काम करने वाले मजदूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारीयां यह स्पष्ट कर देती हैं कि सरकार किस रवैये पर चल रही है।
राष्ट्रीय दमन और अपमान कि इस उत्तेजना पूर्ण परिस्थिति में अपने उत्तरदायित्व की गंभीरता को महसूस कर ‘हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र सेना’ ने अपनी सेना को यह कदम उठाने की आज्ञा दी है। इस कार्य का प्रयोजन है कि कानून का यह अपमानजनक प्रहसन समाप्त कर दिया जाए। विदेशी शोषक नौकरशाही जो चाहे करे, परंतु उसकी वैधानिकता का नकाब फाड़ देना आवश्यक है।
जनता के प्रतिनिधियों से हमारा आग्रह है कि वह इस पार्लियामेंट के पखंड को छोड़कर अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों को लौट जाएं और जनता को विदेशी दमन और शोषण के विरुद्ध क्रांति के लिए तैयार करें। हम विदेशी सरकार को यह बतला देना चाहते हैं कि हम ‘सार्वजनिक सुरक्षा’ और ‘औद्योगिक विवाद’ के दमनकारी कानूनों को, लाला लाजपत राय की हत्या के विरोध में, देश की जनता की ओर से यह कदम उठा रहे हैं।
हम मनुष्य के जीवन को पवित्र समझते हैं। हम ऐसे उज्जवल भविष्य में विश्वास रखते हैं, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण शांति और सवतंत्रता का अवसर मिल सके। हम इंसान का खून बहाने की अपनी विवशता पर दुखी हैं। परंतु क्रांति द्वारा सबको सम्मान सवतंत्रता देने और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त कर देने के लिए क्रांति में कुछ ना कुछ रक्तपात अनिवार्य है।
इंकलाब जिंदाबाद
बलराज
कमांडर इन चीफ
हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना

“ਲਾਲ ਪਰਚਾ” – ਭਗਤ ਸਿੰਘ ਅਤੇ ਬੀ.ਕੇ ਦੱਤ

{08 ਅਪਰੈਲ 1929 ਨੂੰ ਭਗਤ ਸਿੰਘ ਤੇ ਬੀ.ਕੇ. ਦੱਤ ਨੇ ਦਿੱਲੀ ਅਸੈਂਬਲੀ ਵਿੱਚ ‘ਪਬਲਿਕ ਸੇਫਟੀ ਬਿੱਲ’ ਅਤੇ ‘ਟਰੇਡ ਡਿਸਪਿੳੂਟ ਬਿੱਲ’ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਵਿੱਚ ਬੰਬ ਸੁਟਣ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ੲਿਹ ਪਰਚਾ ਸੁੱਟਿਅਾ। ੳੁਹ ਬੰਬ ਸੁੱਟਣ ਦਾ ਕਾਰਨ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖੀ ਜਿੰਦਗੀ ਨਾਲ ਪਿਅਾਰ ਵਿਅੱਕਤ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਜਿਸ ਕਾਰਨ ੳੁਹਨਾਂ ਸੱਰਿਅਾਂ ਤੋਂ ਬਗੈਰ ਬੰਬਾਂ ਨੂੰ ਵਰਤਿਅਾ}
“ਲਾਲ ਪਰਚਾ”
ਹਿੰਦਸਤਾਨ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਪਰਜਾਤੰਤਰ ਸੈਨਾ (ਸੂਚਨਾ)
“ਬੋਲਿਆਂ ਨੂੰ ਸੁਣਾਉਣ ਲਈ ਗਰਜ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ” ਇਹ ਅਮਰ ਸ਼ਬਦ ਫਰਾਂਸ ਦੇ ਇੱਕ ਬਹਾਦਰ ਅਰਾਜਕਤਾਵਾਦੀ ਸ਼ਹੀਦ ਵੈਲਿੰਨਟ ਨੇ ਇੱਕ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਮੌਕੇ ਤੇ ਹੀ ਆਖੇ ਸਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਹੀ ਸ਼ਬਦਾਂ ਨਾਲ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਆਪਣੇ ਕੰਮ ਦੀ ਪ੍ਰੋੜ੍ਹਤਾ ਕਰਦੇ ਹਾਂ।
ਇੱਥੇ ਅਸੀਂ ਸੁਧਾਰਾਂ (ਮੌਨਟੈਗੋ-ਚੇਲਮਸਫੋਰਡ ਰਿਫਾਰਮ) ਦੇ ਪਿਛਲੇ ਦਸ ਵਰ੍ਹਿਆਂ ਦੇ ਬੇਇੱਜ਼ਤੀ ਭਰੇ ਇਤਿਹਾਸ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਦੁਹਰਾਵਾਂਗਾ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਇਸ ਸਭਾ ਯਾਨੀ ਅਖੌਤੀ ਪਾਰਲੀਮੈਂਟ ਰਾਹੀਂ ਭਾਰਤੀ ਕੌਮ ਦੇ ਮੱਥੇ ਜੋ ਅਪਮਾਨ ਥੋਪੇ ਗਏ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਕਰਾਂਗੇ। ਅਸੀਂ ਤਾਂ ਸਿਰਫ ਇਹ ਦੱਸਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਜਦ ਇਹ ਲੋਕੀਂ ਸਾਈਮਨ ਕਮਿਸ਼ਨ ਤੋਂ ਹੋਰ ਕੁਝ ਸੁਧਾਰਾਂ ਦੀ ਜੂਠ ਦੀ ਆਸ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਉਡੀਕੀਆਂ ਜਾ ਰਹੀਆਂ ਹੱਡੀਆਂ ਦੀ ਵੰਡ ਲਈ ਆਪਸ ਵਿੱਚ ਲੜ ਝਗੜ ਵੀ ਰਹੇ ਹਨ, ਉਸ ਸਮੇਂ ਸਰਕਾਰ ਸਾਡੇ ਉੱਤੇ ‘ਪਬਲਿਕ ਸੇਫਟੀ ਬਿੱਲ’ ਅਤੇ ‘ਟ੍ਰੇਡ ਡਿਸਪਿਊਟ ਬਿੱਲ’ ਜਿਹੇ ਦਮਨਕਾਰੀ ਕਾਨੂੰਨ ਠੋਸ ਰਹੀ ਹੈ ਅਤੇ ਅਖਬਾਰਾਂ ਰਾਹੀਂ ਰਾਜਧ੍ਰੋਹ ਰੋਕਣ ਦਾ ਕਾਨੂੰਨ (ਪ੍ਰੈੱਸ ਸੇਡੀਸ਼ਨ ਬਿੱਲ) ਨੂੰ ਆਉਣ ਵਾਲੇ ਇਜਲਾਸਾਂ ਵਿੱਚ ਪੇਸ਼ ਕਰਨਾ ਮਿੱਥਿਆ ਗਿਆ ਹੈ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਤੌਰ ਤੇ ਕੰਮ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਮਜ਼ਦੂਰ ਆਗੂਆਂ ਦੀਆਂ ਅੰਨ੍ਹੇਵਾਹ ਗ੍ਰਿਫ਼ਤਾਰੀਆਂ ਤੋਂ ਸਾਫ ਦਿੱਸਦਾ ਹੈ ਕਿ ਹਵਾ ਦਾ ਰੁੱਖ ਕਿੱਧਰ ਹੈ।
ਇਨ੍ਹਾਂ ਬੇਹੱਦ ਭੜਕਾਊ ਹਾਲਤਾਂ ਵਿੱਚ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਪਰਜਾਤੰਤਰ ਸੰਘ ਨੇ ਪੂਰੀ ਸੰਜੀਦਗੀ ਨਾਲ ਅਤੇ ਪੂਰੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਕਰਦੇ ਹੋਏ, ਇਹ ਫੈਸਲਾ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਅਤੇ ਆਪਣੀ ਫ਼ੌਜ ਨੂੰ, ਇਹ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ ਕੰਮ ਕਰਨ ਦਾ ਹੁਕਮ ਦਿੱਤਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਕਿ ਇਸ ਜ਼ਲੀਲ ਕਰਨ ਵਾਲੀ ਸ਼ਕਤੀ ਨੂੰ ਠੱਲ੍ਹ ਪਾਈ ਜਾ ਸਕੇ। ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਦੇ ਲੁਟੇਰੇ ਮਨਮਾਨੀ ਪਏ ਕਰਨ, ਪਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਅਸਲ ਰੂਪ ਜਨਤਾ ਸਾਹਮਣੇ ਨੰਗਾ ਕਰਨਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ।
ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਪ੍ਰਤੀਨਿਧ ਆਪਣੇ ਹਲਕਿਆਂ ਨੂੰ ਵਾਪਸ ਚਲੇ ਜਾਣ ਅਤੇ ਜਨਤਾ ਨੂੰ ਆ ਰਹੇ ਇਨਕਲਾਬ ਲਈ ਤਿਆਰ ਕਰਨ। ਸਰਕਾਰ ਵੀ ਸਮਝ ਲਵੇ ਕਿ ਭਾਰਤ ਦੀ ਬੇਵੱਸ ਜਨਤਾ ਵੱਲੋਂ ਪਬਲਿਕ ਸੇਫਟੀ ਬਿੱਲ, ਟਰੇਡ ਡਿਸਪਿਊਟ ਬਿੱਲ ਅਤੇ ਲਾਲਾ ਲਾਜਪਤ ਰਾਏ ਦੇ ਵਹਿਸ਼ੀਆਨਾ ਕਤਲ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਰੋਸ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਅਸੀਂ ਇਸ ਇਤਿਹਾਸਕ ਸਬਕ ‘ਤੇ ਜ਼ੋਰ ਦੇਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਤੁਸੀਂ ਵਿਅਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਖ਼ਤਮ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹੋ ਪਰ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨੂੰ ਨਹੀਂ ਵਿਸ਼ਾਲ ਸਾਮਰਾਜ ਮਿੱਟੀ ਵਿੱਚ ਮਿਲ ਗਏ ਪਰ ਵਿਚਾਰ ਕਾਇਮ ਰਹੇ। ਬਰਬਨ (Bourbons) ਤੇ ਜ਼ਾਰ ਢਹਿ ਢੇਰੀ ਹੋ ਗਏ ਅਤੇ ਇਨਕਲਾਬ ਜਿੱਤ ਦੇ ਤਰਾਨੇ ਗਾਉਂਦਾ ਅੱਗੇ ਵੱਧਦਾ ਗਿਆ।
ਅਸੀਂ ਮਨੁੱਖੀ ਜੀਵਨ ਨੂੰ ਬੜਾ ਪਵਿੱਤਰ ਮੰਨਦੇ ਹਾਂ ਅਤੇ ਉਸ ਦੇ ਸੁਨਹਿਰੀ ਭਵਿੱਖ ਦਾ ਸੁਪਨਾ ਵੇਖਦੇ ਹਾਂ ਜਦੋਂ ਮਨੁੱਖ ਪੁੂਰਣ ਸ਼ਾਂਤੀ ਤੇ ਆਜ਼ਾਦੀ ਵਿੱਚ ਵਿਚਰੇਗਾ। ਸਾਨੂੰ ਇਹ ਪ੍ਰਵਾਨ ਕਰਦਿਆਂ ਦੁੱਖ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਇਨਕਲਾਬ ਅਸੀਂ ਇਨਸਾਨੀ ਖੂਨ ਡੋਲ੍ਹਣ ‘ਤੇ ਮਜਬੂਰ ਕੀਤੇ ਗਏ ਹਾਂ।
ਪਰ ਸਭਨਾਂ ਲਈ ਆਜ਼ਾਦੀ ਲਿਆਉਣ ਵਾਲੇ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖ ‘ਹੱਥੋਂ’ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਲੁੱਟ ਖਸੁੱਟ ਨੂੰ ਜੜ੍ਹੋਂ ਖ਼ਤਮ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਮਹਾਨ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਵੇਦੀ ਉੱਤੇ ਕੁਝ ਕੁ ਵਿਅਕਤੀ ਦੀ ਬਲੀ ਅਟੱਲ ਹੈ।
ੲਿਨਕਲਾਬ ਜਿੰਦਾਬਾਦ
ਦਸਤਖਤ
ਬਲਰਾਜ
ਕਮਾਂਡਰ ਇਨ ਚੀਫ
ਹਿ.ਸ.ਪ੍ਰ.ਸ.
8.4.29

Sunday, 15 April 2001

शहीद कर्तार सिंह सराभा

रणचण्डी के इस परम भक्त विद्रोही कर्तार सिंह की आयु अभी बीस वर्ष की भी नहीं हुई थी कि जब उन्होंने स्वतन्त्रता-देवी की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे दिया। आँधी की तरह वह अचानक कहीं से आये, अग्नि प्रज्वलित की और सपनों में पड़ी रणचण्डी को जगाने की कोशिश की। विद्रोह का यज्ञ रचा और आख़िर वह स्वयं इसमें भस्म हो गये। वे क्या थे, किस दुनिया से अचानक आये और झट कहाँ चले गये? हम कुछ भी न जान सके। 19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाये कि सोचकर हैरानी होती है। इतनी ज़ुर्रत, इतना आत्मविश्वास, इतना आत्मत्याग और ऐसी लगन बहुत कम देखने को मिलती है। भारतवर्ष में ऐसे इन्सान बहुत कम पैदा हुए हैं, जिनको सही अर्थों में विद्रोही कहा जा सकता है, परन्तु इन गिने-चुने नेताओं में कर्तार सिंह का नाम सूची में सबसे ऊपर है। उनकी रग-रग में क्रान्ति का जज़्बा समाया हुआ था। उनकी ज़िन्दगी का एक ही लक्ष्य, एक ही इच्छा और एक ही आशा, जो भी था – क्रान्ति थी, इसीलिए उन्होंने ज़िन्दगी में पाँव रखा और आख़िर इसीलिए इस दुनिया से कूच कर गये।
आपका जन्म 1896 में गाँव सराभा, ज़िला लुधियाना में हुआ था। आप माता-पिता के इकलौते बेटे थे। अभी इनकी आयु बहुत कम थी कि पिताजी का देहावसान हो गया। परन्तु आपके दादा ने बहुत प्रयत्न से आपको पाला। नवीं कक्षा पढ़ने के बाद आप अपने चाचा के यहाँ चले गये। वहाँ उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और कॉलेज में पढ़ने लगे। यह 1910-11 के दिन थे। इधर आपको स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम के तंग दायरे से बाहर की बहुत-सी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। यह आन्दोलन का ज़माना था। इस वातावरण में रहकर आपकी देशप्रेम की भावना पल्लवित हुई।
इसके बाद आपकी अमेरिका जाने की इच्छा हुई। घरवालों ने उसका कोई विरोध नहीं किया। आपको अमेरिका भेज दिया गया। सन् 1912 में आप सानफ्रांसिस्को की बन्दरगाह पर पहुँचे। आज़ाद देश में पहुँचकर क़दम-क़दम पर आपके कोमल हृदय पर चोट पड़ने लगी। इन गोरों की ज़बान से Damn Hindu (तुच्छ हिन्दू) और Black Man (काला आदमी) आदि सुनते ही वे पागल हो उठते थे। उनको क़दम-क़दम पर देश की इज़्ज़त व सम्मान ख़तरे में नज़र आने लगे। घर की याद आने पर ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ विवश भारत सामने आ जाता। उनका कोमल दिल धीरे-धीरे सख़्त होने लगा और देश की आज़ादी के लिए ज़िन्दगी क़ुर्बान करने का निश्चय दृढ़ होता गया। उनके दिल पर उस समय क्या गुज़रती थी, यह हम कैसे समझ सकते हैं।
यह असम्भव था कि वे चैन से रह पाते। हर समय उनके सामने यह प्रश्न उठने लगा कि यदि शान्ति से काम न चला तो देश आज़ाद किस तरह होगा? फिर बिना अधिक सोचे उन्होंने भारतीय मज़दूरों का संगठन शुरू कर दिया। उनमें आज़ादी की भावना उभरने लगी। हर मज़दूर के पास घण्टों बैठकर वे समझाने लगे कि अपमान से भरी ग़ुलामी की ज़िन्दगी से तो मौत हज़ार दर्जा अच्छी है। काम शुरू होने पर और लोग भी उनसे आ मिले। मई, 1912 में इन लोगों की एक ख़ास बैठक हुई। इसमें कुछ चुनिन्दा हिन्दुस्तानी शामिल हुए। सभी ने देश की आज़ादी के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने का प्रण लिया। इन्हीं दिनों पंजाब के जलावतन देशभक्त भगवान सिंह वहाँ पहुँचे। धड़ाधड़ जलसे होने लगे, उपदेश होने लगे। काम से काम चलता गया। मैदान तैयार हो गया। फिर अख़बार की ज़रूरत महसूस होने लगी। ‘ग़दर’ नामक अख़बार निकाला गया। इसका प्रथम अंक नवम्बर 1913 में निकाला गया। इसके सम्पादकीय विभाग में कर्तार सिंह भी थे। आपकी क़लम में अथाह जोश था। सम्पादकीय विभाग के लोग अख़बार को हैण्ड प्रेस पर छापते थे। कर्तार सिंह क्रान्ति-पसन्द मतवाले नौजवान थे। प्रेस चलाते हुए थक जाने पर वे गीत गाया करते थे –
सेवा देश दी जिन्दड़िए बड़ी औखी,
गल्लाँ करनीआँ ढेर सुखल्लीयाँ ने।
जिन्नाँ देशसेवा विच पैर पाया,
उन्नाँ लक्ख मुसीबताँ झल्लियाँ ने।
(देशसेवा करनी बहुत मुश्किल है, जबकि बातें करना ख़ूब आसान है। जिन्होंने देशसेवा के रास्ते पर क़दम उठा लिया वे लाख मुसीबतें झेलते हैं।)
कर्तार सिंह जिस लगन से परिश्रम करते थे उससे सभी की हिम्मत बढ़ जाती थी। भारत को किस तरह आज़ाद कराया जाये, यह किसी और को पता चले या नहीं, और किसी ने इस सवाल पर सोचा हो या नहीं, लेकिन कर्तार सिंह ने इस सवाल पर बहुत कुछ सोच रखा था। इसी दौरान आप न्यूयार्क में विमान कम्पनी में भरती हो गये और वहीं दिल लगाकर काम सीखने लगे।
सितम्बर, 1914 में कामागाटामारू जहाज़ को अत्याचारी गोरे साम्राज्यवादियों के हाथ से अवर्णनीय यातनाएँ झेलने पर वैसे लौटना पड़ा। तब हमारे कर्तार सिंह, क्रान्तिप्रिय गुप्ता और एक अमेरिकी अराजकतावादी जैक को साथ लेकर जापान आये और कोबे में बाबा गुरदित्त सिंह जी से मिलकर सब बातचीत की। युगान्तर आश्रम, सानफ्रांसिस्को के ग़दर प्रेस में ‘ग़दर और ग़दर की गूँज’ और अन्य बहुत-सी पुस्तकें छापकर बाँटी जाती रहीं। दिनोदिन प्रचार बढ़ता गया। जोश बढ़ता गया। फ़रवरी, 1914 में स्टाकरन के पब्लिक जलसे में आज़ादी का झण्डा लहराया गया और आज़ादी और बराबरी के नाम पर क़समें खायी गयीं। इस जलसे के मुख्य वक्ताओं में कर्तार सिंह भी थे। सभी ने घोषणा की कि वह अपने ख़ून-पसीने की कमाई एक-एक कर देश की आज़ादी के संघर्ष में लगा देंगे। इसी तरह दिन गुज़रते रहे। अचानक यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने की ख़बर आयी। वे ख़ुशी से फूले नहीं समाते थे। एकदम सभी गाने लगे –
चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,
यही आख़िरी वचन व फ़रमान हो गये।
कर्तार सिंह ने देश लौटने का ज़ोरों से प्रचार किया। फिर स्वयं जहाज़ पर सवार होकर कोलम्बो (श्रीलंका) पहुँच गये। इन दिनों अमेरिका से पंजाब आने वाले प्रायः डिफ़ेंस ऑफ़ इण्डिया क़ानून (डी.आई.आर.) की पकड़ में आ जाते थे। बहुत कम सही-सलामत पहुँच पाते थे। कर्तार सिंह सही-सलामत आ गये। बड़े ज़ोरों से काम शुरू हुआ। संगठन की कमी थी, लेकिन किसी तरह वह पूरी की गयी। दिसम्बर, 1914 में मराठा नौजवान विष्णु गणेश पिगले भी आ गये। इनकी कोशिश से श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और रासबिहारी पंजाब आये। कर्तार सिंह हर समय हर जगह पहुँचते। आज मोगा में गुप्त मीटिग है। आप वहाँ भी हैं। कल लाहौर के विद्यार्थियों में प्रचार हो रहा है, आप फिर प्रथम पंक्ति में हैं। अगले दिन फ़िरोज़पुर छावनी के सैनिकों से गँठजोड़ हो रहा है। फिर हथियारों के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। रुपये की कमी का प्रश्न उठने पर आपने डाका डालने की सलाह दी। डकैती का नाम सुनते ही बहुत-से लोग स्तम्भित रह गये, लेकिन आपने कह दिया कि कोई भय नहीं है। भाई परमानन्द भी डकैती से सहमत हैं। उनसे पुष्टि करवाने की ज़िम्मेदारी आप पर डाली गयी। अगले दिन बग़ैर उनसे मिले ही कह दिया, “पूछ आया हूँ, वे सहमत हैं।” वे यह सहन नहीं कर सकते थे कि केवल रुपये की कमी से विद्रोह की तैयारी में देरी हो।
एक दिन वे डकैती डालने एक गाँव गये। कर्तार सिंह नेता थे। डकैती चल रही थी। घर में एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की भी थी। उसे देखकर एक पापी आत्मा का मन डोल गया। उसने ज़बरदस्ती लड़की का हाथ पकड़ लिया। लड़की ने घबराकर शोर मचा दिया। कर्तार सिंह एकदम रिवाल्वर तानकर उसके नज़दीक पहुँच गये और उस आदमी के माथे पर पिस्तौल रखकर उसे निहत्था कर दिया। फिर कड़ककर बोले, “पापी! तेरा अपराध बहुत गम्भीर है। तुम्हें सज़ा-ए-मौत मिलनी चाहिए, लेकिन हालात की मजबूरी से तुम्हें माफ़ किया जाता है। फ़ौरन इस लड़की के पाँवों में गिरकर माफ़ी माँग कि हे बहिन! मुझे माफ़ कर दो। और इसकी माता जी के पैर छूकर कह कि माता जी, मैं इस पतन के लिए माफ़ी चाहता हूँ। यदि वे तुम्हें माफ़ कर दें तो तुम्हें ज़िन्दा छोड़ दिया जायेगा वरना गोली से उड़ा दिया जायेगा।” उसने ऐसा ही किया। बात अभी ज़्यादा नहीं बढ़ी थी। यह देखकर माँ-बेटी की आँखें भर आयीं। माँ ने कर्तार सिंह को प्यार भरे लहजे में कहा, “बेटा! ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर आप इस काम में किस तरह शामिल हुए?” कर्तार सिंह का भी दिल भर आया और कहा, “माँ जी! रुपये के लालच में हमने यह काम शुरू नहीं किया। अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर डकैती डालने आये हैं। हथियार ख़रीदने के लिए रुपये की ज़रूरत है। वह कहाँ से लायें? माँ जी, इसी महान काम के लिए आज इस काम पर मजबूर हुए हैं।” इस समय पर यह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। माँ ने फिर कहा, “इस लड़की की शादी करनी है। इसके लिए कुछ छोड़ जाओ तो अच्छा है।” इसके बाद उन्होंने अपना सारा धन माँ के सामने रख दिया और कहा, “जितना चाहें ले लें।” कुछ पैसा रखकर माँ ने बाक़ी सारा रुपया कर्तार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया, “जाओ बेटा, तुम्हें सफलता मिले।” डकैती जैसे भयानक काम में शामिल होकर भी कर्तार सिंह का दिल कितना भावनामय, पवित्र व विशाल था, यह इस घटना से ज़ाहिर है।
फ़रवरी, 1915 में विद्रोह की तैयारी थी। पहले सप्ताह आप पिगले और दूसरे दो-तीन साथियों के साथ आगरा, कानपुर, इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ व अन्य कई स्थानों पर मत और विद्रोह के लिए उनसे मेल-मिलाप कर आये। आख़िर वह दिन क़रीब आने लगा, जिसका बड़ी देरी से इन्तज़ार हो रहा था। 21 फ़रवरी, 1915 भारत में विद्रोह का दिन नियत हुआ था। इसी के अनुसार तैयारी हो रही थी। लेकिन इसी समय उनकी आशाओं के वृक्ष की जड़ में बैठा एक चूहा उसे कुतर रहा था। चार-पाँच दिन पहले सन्देह हुआ कि किरपाल सिंह की ग़द्दारी से सब ध्वस्त हो जायेगा। इसी आशंका से कर्तार सिंह ने रासबिहारी बोस से विद्रोह की तारीख़ 21 की बजाय 19 फ़रवरी करने के लिए कहा। ऐसा होने पर भी इसकी भनक किरपाल सिंह को मिल गयी। इस क्रान्तिकारी दल में एक ग़द्दार का होना कितने ख़तरनाक परिणाम का कारण बना। रासबिहारी और कर्तार सिंह भी कोई उचित प्रबन्ध न होने से अपना भेद छिपा नहीं पाये। इसका कारण भारत के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या हो सकता है?
कर्तार सिंह पिछले फ़ैसले के अनुसार पचास-साठ साथियों के साथ फ़िरोज़पुर जा पहुँचे। अपने साथी सैनिक हवलदार से मिले और विद्रोह की बात की। लेकिन किरपाल सिंह ने तो पहले से ही सारा मामला बिगाड़ दिया था। हिन्दुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिये गये। धड़ाधड़ गिरफ्तारियाँ होने लगीं। हवलदार ने सहायता करने से इन्कार कर दिया। कर्तार सिंह की कोशिश असफल रही। निराश हो लाहौर आये। पंजाबभर में गिरफ्तारियों का चक्कर तेज़ हो गया। अब साथी भी टूटने लगे। ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे हुए थे। कर्तार सिंह भी वहीं आकर एक चारपाई पर दूसरी ओर मुँह फेर लेट गये। परस्पर कोई बात नहीं की, लेकिन चुपचाप ही एक-दूसरे के दिल की हालत समझ गये। इनकी हालत का अनुमान हम क्या लगा सकते हैं!
दरे-तदबीर पर सर फोड़ना शेवः रहा अपना,
वसीले हाथ ही ना आये क़िस्मत आज़माई के।
(हमारा काम भाग्य के दर पर सर फोड़ना ही रहा, लेकिन भाग्य आज़माने के साधन ही हाथ नहीं आये।)
उनकी तो यही ख़्वाहिश थी कि कहीं लड़ाई हो और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण दे दें। फिर सरगोधा के नज़दीक चक्क नम्बर पाँच में आ गये। फिर विद्रोह का चर्चा छेड़ दिया। वहीं पकड़े गये। ज़ंजीरों में जकड़े गये। निर्भीक विद्रोही कर्तार सिंह को लाहौर स्टेशन पर लाया गया। पुलिस कप्तान से कहा, “मिस्टर टामकिन, कुछ खाना तो लाइये।” वह कितना मस्त-मौला था। इस आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर दोस्त व दुश्मन सब ख़ुश हो जाते थे। गिरफ्तारी के समय वे बहुत ख़ुश थे। प्रायः कहा करते थे, “वीरता और हिम्मत से मरने पर मुझे विद्रोही की उपाधि देना। कोई याद करे तो विद्रोही कर्तार सिंह कहकर याद करे।” मुक़दमा चला। उस समय कर्तार सिंह की आयु कुल साढ़े अठारह वर्ष थी। सबसे कम आयु के अपराधी आप ही थे, लेकिन जज ने इनके सम्बन्ध में यह लिखा –
“वह इन अपराधियों में, सबसे ख़तरनाक अपराधियों में एक है। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस षड्यन्त्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका न निभायी हो।”
एक दिन आपके बयान देने की बारी आयी। आपने सबकुछ मान लिया। आप क्रान्तिकारी बयान देते रहे। जज क़लम दाँतों के नीचे दबाये देखता रहा। एक शब्द न लिखा। बाद में इतना कहा, “कर्तार सिंह, अभी आपका बयान लिखा नहीं गया। आप सोच-समझकर बयान दें। आप जानते हैं कि आपके बयान का क्या परिणाम हो सकता है?” देखने वाले कहते हैं कि जज के इन शब्दों को कर्तार सिंह ने बड़ी मस्तानी अदा से केवल इतना कहा, “फाँसी ही तो चढ़ा देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।” इस दिन अदालत की कार्रवाई समाप्त हो गयी। अगले दिन फिर कर्तार सिंह का अदालत में बयान शुरू हुआ। पहले दिन जजों का कुछ ऐसा विचार था कि कर्तार सिंह भाई परमानन्द के इशारे पर ऐसा बयान दे रहे हैं, लेकिन वह विद्रोही कर्तार सिंह के दिल की गहराइयों में नहीं उतर सकते थे। कर्तार सिंह का बयान अधिक ज़ोरदार, अधिक जोशीला और पहले दिन की तरह ही इक़बालिया था। आख़िर में आपने कहा, “अपराध के लिए मुझे उम्रक़ैद की सज़ा मिलेगी या फाँसी। लेकिन मैं फाँसी को प्राथमिकता दूँगा, ताकि फिर जन्म लेकर – जब तक हिन्दुस्तान आज़ाद नहीं हो, तब तक मैं बार-बार जन्म लेकर – फाँसी पर लटकता रहूँगा। यही मेरी अन्तिम इच्छा है…”
आपकी वीरता से जज बहुत प्रभावित हुए, लेकिन उन्होंने विशाल दिलवाले दुश्मन की तरह आपकी वीरता को वीरता न कहकर बेशर्मी के शब्दों में याद किया। कर्तार सिंह को सिर्फ़ गालियाँ ही नहीं, मौत की सज़ा भी मिली। आपने मुस्कुराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। कर्तार सिंह फाँसी की कोठरी में क़ैद थे। आपके दादा ने आकर कहा, “कर्तार सिंह, जिनके लिए मर रहे हो, वे तुम्हें गालियाँ देते हैं। तुम्हारे मरने से देश को कुछ लाभ होगा, ऐसा भी दिखायी नहीं देता।” कर्तार सिंह ने बहुत धीमे से पूछा –
“दादा जी, फलाँ रिश्तेदार कहाँ है?”
“प्लेग में मर गया।”
“फलाँ कहाँ है?”
“हैजे से मर गया।”
“तो क्या आप चाहते हैं कि कर्तार सिंह महीनों बिस्तर पर पड़ा रहे और पीड़ा से दुखी किसी रोग से मरे! क्या उस मौत से यह मौत हज़ार गुना अच्छी नहीं?” दादा चुप हो गये।
आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने से क्या लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे। उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज़्यादा कुछ नहीं चाहते थे। मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।
चमन ज़ारे मुहब्बत में, उसी ने बाग़बानी की,
जिसने मिहनत को ही मिहनत का समर जाना।
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फ़ैज़ शबनम का,
अँधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में।
डेढ़ साल तक मुक़दमा चला। 16 नवम्बर, 1915 का दिन था, जब उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। उस दिन भी हमेशा की तरह ख़ुश थे। इनका वज़न दस पौण्ड बढ़ गया था। ‘भारतमाता की जय’ कहते हुए वे फाँसी के तख़्ते पर झूल गये।

भगतसिंह


ਲੈਨਿਨ ਦੀ ਬਰਸੀ ਉੱਤੇ ਟੈਲੀਗਰਾਮ – ਭਗਤ ਸਿੰਘ

[21 ਜਨਵਰੀ 1930 ਨੂੰ ਲਾਹੌਰ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਕੇਸ ਦੇ ਅਰੋਪੀ ਲਾਲ ਰੁਮਾਲ ਬੰਨ ਕੇ ਅਦਾਲਤ ਵਿਚ ਪੇਸ਼ ਹੋਏ। ਜਿਸ ਵੇਲੇ ਹੀ ਮੈਜਿਸਟ੍ਰੇਟ ਆਪਣੀ ਕੁਰਸੀ ‘ਤੇ ਬੈਠਾ ਉਹਨਾਂ ਨੇ “ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਇਨਕਲਾਬ ਜਿੰਦਾਬਾਦ”, “ਕਮੀਊਨਿਸਟ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਜਿੰਦਾਬਾਦ”, “ਅਵਾਮ ਜਿੰਦਾਬਾਦ”, “ਲੈਨਿਨ ਦਾ ਨਾਂਅ ਸਦਾ ਜਿਉਂਦਾ ਰਹੇਗਾ” ਅਤੇ “ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਮੁਰਦਾਬਾਦ” ਦੇ ਨਾਅਰੇ ਲਾਉਣੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੇ, ਤਦੇ ਭਗਤ ਸਿੰਘ ਨੇ ਅਦਾਲਤ ਵਿੱਚ ਆਪਣੇ ਟੈਲੀਗਰਾਮ ਵਾਲਾ ਪੱਤਰ ਪੜ੍ਹਿਆ ਅਤੇ ਜੱਜ ਨੂੰ ਇਹ ਟੈਲੀਗਰਾਮ ‘ਤੀਜੀ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਨੂੰ ਭੇਜਣ ਨੂੰ ਆਖਿਆ।]

ਲੈਨਿਨ-ਦਿਵਸ ਉੱਤੇ ਅਸੀਂ ਉਹਨਾਂ ਸਭ ਨੂੰ ਦਿਲੋਂ ਸ਼ਰਧਾਂਜਲੀ ਭੇਟ ਕਰਦੇ ਹਾਂ ਜਿਹੜੇ ਮਹਾਨ ਲੈਨਿਨ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਵਧਾਉਣ ਲਈ ਕੁੱਝ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ। ਅਸੀਂ ਰੂਸ ਵਿਚ ਚਲ ਰਹੇ ਮਹਾਨ ਪ੍ਰਯੋਗ ਦੀ ਸਫਲਤਾ ਦੀ ਕਾਮਨਾ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਅਸੀਂ ਆਪਣੀ ਆਵਾਜ ਕਿਰਤੀਅਾਂ ਦੀ ਕੌਮਾਂਤਰੀ ਜਮਾਤੀ ਮੁਹਿੰਮ ਦੀ ਆਵਾਜ ਨਾਲ ਮਿਲਾਉਂਦੇ ਹਾਂ। ਪਰੋਲਤਾਰੀ ਦੀ ਜਿੱਤ ਅਟਲ ਹੈ, ਸਰਮਾਏਦਾਰੀ ਹਾਰੇਗੀ, ਸਾਮਰਾਜਵਾਦ ਦੀ ਮੌਤ ਹੋਵੇਗੀ।   



ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਅਤੇ ਰਾਜਨੀਤੀ


ਬੜਾ ਭਾਰੀ ਰੌਲਾ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਸੁਣਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਪੜਨ ਵਾਲੇ ਨੌਜਵਾਨ (ਵਿਦਿਆਰਥੀ) ਰਾਜਸੀ ਕੰਮਾਂ ਵਿਚ ਹਿੱਸਾ ਨਾ ਲੈਣ। ਪੰਜਾਬ ਗਵਰਨਮੈਂਟ ਦਾ ਰੱਬ ਬਿਲਕੁਲ ਹੀ ਨਿਆਰਾ ਹੈ। ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਕੋਲੋਂ ਕਾਲਜਾਂ ਵਿਚ ਦਾਖਲ ਹੋਣ ਤੋਂ ਪਹਿਲੋਂ ਇਸ ਮਤਲਬ ਦੀ ਸ਼ਰਤ ਪੁਰ ਦਸਤਖਤ ਕਰਾਏ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਕਿ ਉਹ ਰਾਜਸੀ ਕੰਮਾਂ ਵਿਚ ਹਿੱਸਾ ਨਹੀਂ ਲਵੇਗਾ। ਅੱਗੇ ਤਕਦੀਰ ਸਾਡੀ ਫੁੱਟੀ ਹੋਈ, ਲੋਕਾਂ ਵੱਲੋਂ ਚੁਣਿਆਂ ਹੋਇਆ ਮਨੋਹਰ ਲਾਲ ਜੋ ਕਿ ਹੁਣ ਵਜ਼ੀਰੇ-ਤਾਲੀਮ ਬਣਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ, ਸਕੂਲਾਂ ਕਾਲਜਾਂ ਦੇ ਨਾਮ ਇੱਕ ਸਰਕੁਲਰ ਜਾਂ ਗਸ਼ਤੀ ਚਿੱਠੀ ਭੇਜਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੋਈ ਪੜ੍ਹਨ ਅਤੇ ਪੜ੍ਹਾਉਣ ਵਾਲਾ ਰਾਜਨੀਤੀ ਵਿਚ ਹਿੱਸਾ ਨਾ ਲੈ ਸਕੇ। ਕੁੱਝ ਦਿਨ ਹੋਏ ਹਨ ਜਦੋਂ ਕਿ ਲਾਹੌਰ ਵਿਚ ਸਟੂਡੈਂਟਸ ਯੂਨੀਅਨ ਜਾਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਜਥੇਬੰਦੀ ਵੱਲੋਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਹਫ਼ਤਾ ਮਨਾਇਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਉੱਥੇ ਵੀ ਸਰ ਅਬਦੁਲ ਕਾਦਰ ਅਤੇ ਸ਼੍ਰੀਮਾਨ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਈਸ਼ਵਰ ਚੰਦਰ ਨੰਦਾ ਨੇ ਇਸ ਗੱਲ ਤੇ ਜ਼ੋਰ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਰਾਜਨੀਤੀ ਵਿਚ ਹਿੱਸਾ ਨਹੀਂ ਲੈਣਾ ਚਾਹੀਦਾ।
              ਪੰਜਾਬ ਰਾਜਸੀ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਸਭ ਤੋਂ ਨਖਿੱਧ (Politically Backward) ਕਹਾਉਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਦੀ ਕੀ ਵਜ੍ਹਾ ਹੈ? ਕੀ ਪੰਜਾਬ ਨੇ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਘੱਟ ਦਿੱਤੀਆਂ ਹਨ? ਕੀ ਪੰਜਾਬ ਨੇ ਮੁਸੀਬਤਾਂ ਘੱਟ ਝੱਲੀਆਂ ਹਨ? ਫਿਰ ਵੀ ਕੀ ਵਜ੍ਹਾ ਹੈ ਕਿ ਅਸੀਂ ਇਸ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਸਭ ਤੋਂ ਪਿੱਛੇ ਹਾਂ? ਇਸ ਦੀ ਵਜ੍ਹਾ ਸਾਫ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੀ ਤਾਲੀਮ ਯਾਫਤਾ (ਉੱਚ ਵਿੱਦਿਆ ਪ੍ਰਾਪਤ) ਲੋਕੀਂ ਬਿਲਕੁਲ ਹੀ ਬੁੱਧੂ ਹਨ ਅੱਜ ਪੰਜਾਬ ਕੌਂਸਲ ਦੀ ਕਾਰਵਾਈ ਪੜ੍ਹ ਕੇ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪਤਾ ਲੱਗਦਾ ਹੈ ਇਸ ਦਾ ਕਾਰਨ ਇਹੋ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੀ ਤਾਲੀਮ ਨਿਕੰਮੀ ਅਤੇ ਫਜ਼ੂਲ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਦੁਨੀਆ ਛੱਡ ਕੇ ਆਪਣੇ ਮੁਲਕ ਦੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਵਿਚ ਕੋਈ ਹਿੱਸਾ ਨਹੀਂ ਲੈਂਦੇ। ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਦੇ ਸੰਬੰਧ ਵਿਚ ਕੁੱਝ ਵੀ ਗਿਆਨ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ।
              ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੇ ਕੱਲ੍ਹ ਨੂੰ ਮੁਲਕ ਦੀ ਵਾਗਡੋਰ ਹੱਥ ਵਿਚ ਲੈਣੀ ਹੈ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਅੱਜ ਅਕਲ ਦੇ ਅੰਨ੍ਹੇ ਬਣਾਏ ਜਾਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ ਤੇ ਜੋ ਨਤੀਜਾ ਨਿਕਲੇਗਾ, ਉਹ ਸਾਨੂੰ ਆਪ ਹੀ ਸਮਝ ਲੈਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਅਸੀਂ ਮੰਨਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਦਾ ਮੁੱਖ ਕੰਮ ਵਿੱਦਿਆ ਪੜ੍ਹਨਾ ਹੈ। ਉਸ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਸਾਰੀ ਤਵੱਜੋ ਉਸੇ ਪਾਸੇ ਲਾ ਦੇਣੀ ਚਾਹੀਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਕੀ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਹਾਲਾਤ ਦਾ ਗਿਆਨ ਅਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਸੁਧਾਰ ਦੇ ਉਪਾਅ ਸੋਚਣ ਦੀ ਯੋਗਤਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨਾ ਉਸੇ ਵਿੱਦਿਆ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਿਲ ਨਹੀਂ? ਜੇ ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਉਸ ਵਿੱਦਿਆ ਨੂੰ ਨਿਕੰਮਾ ਸਮਝਦੇ ਹਾਂ ਜੋ ਕਿ ਕੇਵਲ ਕਲਰਕੀ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਹੀ ਹਾਸਿਲ ਕੀਤੀ ਜਾਵੇ। ਐਸੀ ਵਿੱਦਿਆ ਦੀ ਲੋੜ ਹੀ ਕੀ ਹੈ? ਕੁੱਝ ਜ਼ਿਆਦਾ ਚਲਾਕ ਆਦਮੀ ਇਹ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ:
              ”ਕਾਕਾ! ਤੁਸੀਂ ਰਾਜਨੀਤੀ ਦੇ ਮੁਤੱਲਕ, ਪੜ੍ਹੋ ਤੇ ਸੋਚੋ ਜ਼ਰੂਰ, ਪਰ ਕੋਈ ਅਮਲੀ ਹਿੱਸਾ ਨਾ ਲਵੋ। ਕਿਉਂਕਿ ਤੁਸੀਂ ਜਿਆਦਾ ਲਾਇਕ ਹੋ ਕੇ ਦੇਸ਼ ਦੇ ਵਾਸਤੇ ਫਾਇਦੇਮੰਦ ਸਾਬਤ ਹੋਵੋਗੇ।” ਗੱਲ ਬੜੀ ਸੋਹਣੀ ਲੱਗਦੀ ਹੈ। ਪਰ ਅਸੀਂ ਦੱਸਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਇਹ ਵੀ ਕੇਵਲ ਓਪਰੀ-ਓਪਰੀ ਹੀ ਗੱਲ ਹੈ। ਇਸ ਗੱਲ ਤੋਂ ਇਹ ਸਾਫ ਜ਼ਾਹਿਰ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇੱਕ ਦਿਨ ਇੱਕ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਇੱਕ ਕਿਤਾਬ ”ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਦੇ ਨਾਮ ਅਪੀਲ” ਵੱਲੋਂ ਕ੍ਰੌਪਟਿਨ (”Appeal to the Young” by Peter Kropotkin) ਪੜ੍ਹ ਰਿਹਾ ਸੀ। ਇੱਕ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਸਾਹਿਬ ਕਹਿਣ ਲੱਗੇ, ਇਹ ਕੀ ਕਿਤਾਬ ਹੈ? ਅਤੇ ਇਹ ਤਾਂ ਕਿਸੇ ਬੰਗਾਲੀ ਦਾ ਨਾਮ ਜਾਪਦਾ ਹੈ। ਮੁੰਡਾ ਹੱਸ ਪਿਆ। ਪ੍ਰਿੰਸ ਕੌਪਟਕਿਨ ਦਾ ਨਾਮ ਬੜਾ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਹੈ। ਉਹ ਅਰਥ ਸ਼ਾਸਤਰ ਦੇ ਵਿਸ਼ੇ ਦੇ ਖਾਸ ਵਿਦਵਾਨ ਸਨ। ਆਪ ਦੇ ਨਾਮ ਤੋਂ ਵਾਕਫ਼ ਹੋਣਾ ਹਰ ਇੱਕ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਨੂੰ ਬੜਾ ਜ਼ਰੂਰੀ ਸੀ। ਪਰ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਦੀ ਲਿਆਕਤ ‘ਤੇ ਮੁੰਡਾ ਹੱਸ ਪਿਆ ਤੇ ਉਸ ਕਿਹਾ: ਕਿ ਜੀ ਇਹ ਤਾਂ ਰੂਸੀ ਸੱਜਣ ਸਨ। ਬੱਸ! ”ਰੂਸੀ”? ਹੋਇਆ ਕਹਿਰ! ਝੱਟ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਨੇ ਕਹਿ ਦਿੱਤਾ ਕਿ ਤੂੰ ਤਾਂ ਬਾਲਸ਼ਵਿਕ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਤੂੰ ਪੁਲਿਟੀਕਲ ਕਿਤਾਬਾਂ ਪੜ੍ਹਦਾ ਹੈ। ਮੈਂ ਹੁਣੇ ਹੀ ਪ੍ਰਿੰਸੀਪਲ ਨੂੰ ਕਹਿੰਦਾ ਹਾਂ। ਦੇਖੋ ਤੁਸੀਂ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਦੀ ਲਿਆਕਤ। ਹੁਣ ਉਹਨਾਂ ਮੁੰਡਿਆਂ ਵਿਚਾਰਿਆਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਕੋਲ਼ੋਂ ਕੀ ਸਿੱਖਣਾ ਹੈ? ਐਸੀ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਉਹ ਨੌਜਵਾਨ ਕੀ ਸਿੱਖ ਸਕਦੇ ਹਨ।
              ਅਤੇ ਦੂਜੀ ਗੱਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਅਮਲੀ ਪਾਲਿਟਿਕਸ ਕੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ? ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ, ਜਵਾਹਰ ਲਾਲ ਨਹਿਰੂ ਅਤੇ ਸੁਭਾਸ਼ ਚੰਦਰ ਬੋਸ ਦਾ ਸਵਾਗਤ ਕਰਨਾ ਅਤੇ ਲੈਕਚਰ ਸੁਣਨਾ ਤੇ ਹੋਇਆ ਨਾ ਅਮਲੀ ਪਾਲਿਟਿਕਸ। ਤੇ ਕਮਿਸ਼ਨ ਜਾਂ ਵਾਇਸਰਾਏ ਦਾ ਸਵਾਗਤ ਕਰਨਾ ਕੀ ਹੋਇਆ? ਕੀ ਉਹ ਪਾਲਿਟਿਕਸ ਦਾ ਹੀ ਦੂਜਾ ਪਹਿਲੂ ਨਹੀਂ? ਸਰਕਾਰਾਂ ਅਤੇ ਮੁਲਕਾਂ ਦੇ ਇੰਤਜ਼ਾਮਾਂ ਦੇ ਮੁਤੱਲਕ (ਸਬੰਧੀ) ਕੋਈ ਵੀ ਗੱਲ ਪਾਲਿਟਿਕਸ ਦੇ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਹੀ ਗਿਣੀ ਜਾਵੇਗੀ। ਤਾਂ ਫਿਰ ਇਹ ਵੀ ਪਾਲਿਟਿਕਸ ਹੋਇਆ ਕਿ ਨਾ? ਕਿਹਾ ਜਾਵੇਗਾ ਕਿ ਇਸ ਤੋਂ ਸਰਕਾਰ ਖੁਸ਼ ਹੁੰਦੀ ਹੈ ਤੇ ਦੂਜੇ ਤੋਂ ਨਰਾਜ਼? ਤੇ ਫਿਰ ਸਵਾਲ ਤਾਂ ਸਰਕਾਰ ਦੀ ਖੁਸ਼ੀ ਤੇ ਨਰਾਜ਼ਗੀ ਦਾ ਹੋਇਆ। ਕੀ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਨੂੰ ਜੰਮਦਿਆਂ ਹੀ ਖੁਸ਼ਾਮਦ ਦਾ ਸਬਕ ਪੜ੍ਹਾਇਆ ਜਾਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ? ਅਸੀਂ ਤੇ ਸਮਝਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਜਦੋਂ ਤੀਕ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਵਿਚ ਵਿਦੇਸ਼ੀ ਡਾਕੂ ਹਕੂਮਤ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਤੋਂ ਤੀਕ ਵਫ਼ਾਦਾਰੀ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਵਫ਼ਾਦਾਰ ਨਹੀਂ ਬਲਕਿ ਗੱਦਾਰ ਹਨ, ਇਨਸਾਨ ਨਹੀਂ ਪਸ਼ੂ ਹਨ, ਪੇਟ ਦੇ ਗੁਲਾਮ ਹਨ। ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਕਿਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਕਹੀਏ ਕਿ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਵਫ਼ਾਦਾਰੀ ਦਾ ਸਬਕ ਸਿੱਖਣ।
              ਸਾਰੇ ਹੀ ਮੰਨਦੇ ਹਨ ਕਿ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਨੂੰ ਇਸ ਵੇਲੇ ਦੇਸ਼ ਸੇਵਕਾਂ ਦੀ ਲੋੜ ਹੈ, ਜੋ ਤਨ ਮਨ ਧਨ ਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਵਾਰ ਦੇਣ ਅਤੇ ਪਾਗਲਾਂ ਵਾਂਗ ਸਾਰੀ ਉਮਰ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਖਾਤਰ ਨਿਛਾਵਰ ਕਰ ਦੇਣ। ਪਰ ਕੀ ਬੁੱਢਿਆਂ ਵਿਚੋਂ ਵੀ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਆਦਮੀ ਮਿਲ ਸਕਣਗੇ? ਕੀ ਟੱਬਰਾਂ ਦੇ ਤੇ ਦੁਨੀਆਦਾਰੀ ਦੇ ਟੰਟਿਆਂ ਵਿਚ ਫਸੇ ਹੋਏ ਸਿਆਣੇ ਲੋਕਾਂ ਵਿਚੋਂ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਨਿਕਲ ਸਕਣਗੇ? ਇਹ ਤਾਂ ਉਹ ਨੌਜਵਾਨ ਹੀ ਨਿਕਲ ਸਕਦੇ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕੋਈ ਜੰਜਾਲ ਨਾ ਪਏ ਹੋਏ ਹੋਣ ਅਤੇ ਜੰਜਾਲਾਂ ਵਿਚ ਪੈਣ ਤੋਂ ਪਹਿਲੋਂ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਜਾਂ ਹੋਰ ਨੌਜਵਾਨ ਤਦੇ ਹੀ ਸੋਚ ਸਕਦੇ ਹਨ ਜੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਕੁੱਝ ਅਸਲੀ ਇਲਮ ਵੀ ਹਾਸਿਲ ਕੀਤਾ ਹੋਵੇ। ਨਿਰੇ ਹਿਸਾਬ ਤੇ ਜੁਗਰਾਫ਼ੀਏ ਨੂੰ ਹੀ ਇਮਤਿਹਾਨ ਦੇ ਪਰਚਿਆਂ ਵਾਸਤੇ ਘੋਟੇ ਨਾ ਲਾਏ ਹੋਏ ਹੋਣ।
              ਕੀ ਇੰਗਲੈਂਡ ਦੇ ਸਾਰੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਦਾ ਕਾਲਜ ਛੱਡ ਕੇ ਜਰਮਨੀ ਦੇ ਬਰਖ਼ਿਲਾਫ ਲੜਨ ਤੁਰ ਜਾਣਾ ਪਾਲਿਟਿਕਸ ਨਹੀਂ ਸੀ? ਓਦੋਂ ਸਾਡੇ ਉਪਦੇਸ਼ਕ ਕਿੱਥੇ ਸਨ? ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕਹਿੰਦੇ ਕਿ ਜਾਓ ਜਾ ਕੇ ਹਾਲੇ ਵਿੱਦਿਆ ਹਾਸਿਲ ਕਰੋ। ਅੱਜ ਕੌਮੀ ਕਾਲਜ ਅਹਿਮਦਾਬਾਦ ਦੇ ਜੋ ਲੜਕੇ ਸੱਤਿਆਗ੍ਰਹਿ ਵਿਚ ਬਾਰਦੌਲੀ ਵਾਲਿਆਂ ਦੀ ਸਹਾਇਤਾ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ, ਕੀ ਉਹ ਐਵੇਂ ਮੂਰਖ ਹੀ ਰਹਿ ਜਾਣਗੇ? ਦੇਖਾਂਗੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਮੁਕਾਬਲੇ ਵਿਚ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਯੂਨੀਵਰਸਿਟੀ ਕਿੰਨੇ ਕੁ ਲਾਇਕ ਆਦਮੀ ਪੈਦਾ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਸਾਰੇ ਹੀ ਮੁਲਕਾਂ ਨੂੰ ਆਜ਼ਾਦ ਕਰਾਉਣ ਵਾਲੇ ਉੱਥੋਂ ਦੇ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਅਤੇ ਨੌਜਵਾਨ ਹੀ ਹੋਇਆ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਕੀ ਹਿੰਦੁਸਤਾਨ ਦੇ ਨੌਜਵਾਨ ਵੱਖਰੇ ਰਹਿ ਕੇ ਆਪਣੀ ਅਤੇ ਆਪਣੇ ਦੇਸ਼ ਦੀ ਹਸਤੀ ਬਚਾ ਸਕਣਗੇ? ਨੌਜਵਾਨਾਂ ਨੂੰ 1919 ਵਿਚ ਵਿਦਿਆਰਥੀਆਂ ਤੇ ਢਾਹੇ ਗਏ ਜ਼ੁਲਮ ਭੁੱਲ ਨਹੀਂ ਸਕਦੇ। ਉਹ ਇਹ ਵੀ ਸਮਝਦੇ ਹਨ ਕਿ ਇੱਕ ਭਾਰੀ ਇਨਕਲਾਬ ਦੀ ਜ਼ਰੂਰਤ ਹੈ। ਉਹ ਪੜ੍ਹਨ ਜ਼ਰੂਰ ਪੜ੍ਹਨ! ਨਾਲ ਹੀ ਪਾਲਿਟਿਕਸ ਦਾ ਵੀ ਗਿਆਨ ਹਾਸਿਲ ਕਰਨ, ਅਤੇ ਜਦੋਂ ਜ਼ਰੂਰਤ ਆ ਪਵੇ ਉਦੋਂ ਮੈਦਾਨ ਵਿਚ ਆ ਕੁੱਦਣ ਅਤੇ ਆਪਣੀਆਂ ਜ਼ਿੰਦਗੀਆਂ ਇਸੇ ਕੰਮ ਵਿਚ ਲਾ ਦੇਣ। ਆਪਣੀਆਂ ਜਾਨਾਂ ਇਸੇ ਕੰਮ ਵਿਚ ਦੇ ਦੇਣ! ਵਰਨਾ ਕੋਈ ਬਚਣ ਦਾ ਉਪਾਅ ਨਜ਼ਰ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ।

  ਭਗਤ ਸਿੰਘ


ਅਛੂਤ ਦਾ ਸਵਾਲ – ਭਗਤ ਸਿੰਘ

ਸਾਡੇ ਮੁਲਕ ਜਿੰਨੀ ਭੈੜੀ ਹਾਲਤ ਹੋਰ ਕਿਸੇ ਮੁਲਕ ਦੀ ਨਹੀਂ ਹੋਣੀ। ਇੱਥੇ ਅਜੀਬ ਤੋਂ ਅਜੀਬ ਸਵਾਲ ਪੈਦਾ ਹੋਏ ਹਨ। ਇੱਕ ਬੜਾ ਭਾਰੀ ਸਵਾਲ ਅਛੂਤ ਦਾ ਸਵਾਲ ਹੈ। ਸਵਾਲ ਇਹ ਕੀਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਤੀਹ ਕਰੋੜ ਦੀ ਅਬਾਦੀ ਵਾਲੇ ਮੁਲਕ ਵਿਚ 6 ਕਰੋੜ ਆਦਮੀ ਜੋ ਅਛੂਤ ਕਹਾਉਂਦੇ ਹਨ, ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਛੁਹ ਲੈਣ ਨਾਲ ਧਰਮ ਭ੍ਰਿਸ਼ਟ ਤਾਂ ਨਾ ਹੋਵੇਗਾ? ਕੀ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਮੰਦਰਾਂ ਵਿਚ ਜਾਣ ਦੇਣ ਨਾਲ ਦੇਵਤੇ ਨਾਰਾਜ਼ ਤੇ ਨਾ ਹੋ ਜਾਣਗੇ? ਕੀ ਉਹਨਾਂ ਵਲੋਂ ਖੂਹ ਵਿਚੋਂ ਪਾਣੀ ਕੱਢ ਲੈਣ ਨਾਲ ਖੂਹ ਪਲੀਤ ਤੇ ਨਹੀਂ ਹੋ ਜਾਵੇਗਾ? ਇਹ ਸਵਾਲ ਵੀਹਵੀਂ ਸਦੀ ਵਿਚ ਕੀਤੇ ਜਾ ਰਹੇ ਹਨ, ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸੁਣਦਿਆਂ ਹੀ ਸ਼ਰਮ ਆਉਂਦੀ ਹੈ।
       ਸਾਡਾ ਮੁਲਕ ਬੜਾ ਹੀ ਅਧਿਆਤਮਵਾਦੀ ਹੈ ਯਾਨੀ ਰੂਹਾਨਿਯਤ ਪਸੰਦ ਹੈ। ਅਸੀਂ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਦਰਜਾ ਦੇਣੋਂ ਵੀ ਝਕਦੇ ਹਾਂ, ਤੇ ਉਹ ਬਿਲਕੁੱਲ ਹੀ ਮਾਇਆਵਾਦੀ ਕਹਾਉਣ ਵਾਲਾ ਯੂਰਪ ਕਈ ਸਦੀਆਂ ਤੋਂ ਇੱਕਮਈ ਦਾ ਸ਼ੋਰ ਮਚਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਉਨਾਂ ਨੇ Equality (ਬਰਾਬਰੀ) ਦਾ ਐਲਾਨ ਅਮਰੀਕਾ ਅਤੇ ਫ਼ਰਾਂਸ ਦੇ ਇਨਕਲਾਬ ਵਿਚ ਹੀ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਸੀ ਤੇ ਅੱਜ ਰੂਸ ਨੇ ਹੋਰ ਵੀ ਕਿਸੇ ਕਿਸਮ ਦਾ ਭਿੰਨ ਭੇਦ ਮਿਟਾਉਣ ਦੀ ਖਾਤਰ ਇੱਕਮਈ ਦੇ ਅਸੂਲ ‘ਤੇ ਲੱਕ ਬੱਧਾ ਹੋਇਆ ਹੈ ਤੇ ਅਸੀਂ ਅਸੀਂ ਸਦਾ ਹੀ ਆਤਮਾ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾਂ ਦੇ ਹੀ ਰੋਣੇ ਰੋਣ ਵਾਲੇ ਅੱਜ ਵੀ ਇਸ ਗੱਲ ‘ਤੇ ਉੱਤੇ ਜੋਰ ਨਾਲ ਬਹਿਸਾਂ ਕਰਕੇ ਕਿ ਕੀ ਅਛੂਤਾਂ ਨੂੰ ਜਨੇਊ ਦੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇਗਾ, ਕੀ ਉਹ ਵੇਦ ਸ਼ਾਸ਼ਤਰ ਪੜ੍ਹਨ ਦੇ ਹੱਕਦਾਰ ਹਨ ਕਿ ਨਹੀਂ! ਅਸੀਂ ਨਾ ਮਨਜ਼ੂਰ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਹਾਂ ਅਤੇ ਸਾਨੂੰ ਸ਼ਿਕਾਇਤ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਦੂਜੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਚੰਗਾ ਸਲੂਕ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਗੋਰੇਸ਼ਾਹੀ ਵਿਚ ਸਾਨੂੰ ਗੋਰੇ ਬਰਾਬਰ ਨਹੀਂ ਸਮਝਿਆ ਜਾਂਦਾ ਸਾਨੂੰ ਇਹ ਸ਼ਿਕਾਇਤ ਕਰਨ ਦਾ ਹੱਕ ਹੀ ਕੀ ਹੈ?
ਸਿੰਧ ਦੇ ਇੱਕ ਮੁਸਲਮਾਨ ਸੱਜਣ, ਮਿ. ਨੂਰ ਮੁਹੰਮਦ, ਮੈਂਬਰ ਬੰਬਈ ਕੌਂਸਲ ਨੇ ਇਸ ਮਸਲੇ ਬਾਰੇ 1926 ਵਿਚ ਖੂਬ ਕਿਹਾ ਸੀ :-
“if the Hindu Society refuses to allow other human beings, fellow creatures so that to attend public schools, and if….the president of local board representing so many lakhs of people in this house refuses to ’allow his fellows and brothers the elementary human right of having water to drink, what right have they to ask for more rights from the bureaucracy?Before we accuse people coming from other lands, we should see how we ourselves behave toward our own people… .How can we ask for greater political rights when we ourselves deny elementary rights of human beings.”

      ਉਹ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਜਦੋਂ ਤੁਸੀਂ ਇੱਕ ਇਨਸਾਨ ਨੂੰ ਪੀਣ ਵਾਲਾ ਪਾਣੀ ਦੇਣ ਤੋਂ ਵੀ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋ ਜਾਂ, ਜਦੋਂ ਤੁਸੀਂ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਮਦਰਸੇ ਵਿਚ ਪੜ੍ਹਨ ਵੀ ਨਹੀਂ ਦੇਂਦੇ, ਤਾਂ ਤੁਹਾਡਾ ਕੀ ਹੱਕ ਬਣਦਾ ਹੈ ਕਿ ਆਪਣੇ ਵਾਸਤੇ ਹੋਰ ਹੱਕੂਕ (ਹੱਕ) ਮੰਗੋ? ਜਦੋਂ ਤੁਸੀਂ ਇੱਕ ਇਨਸਾਨ ਦੇ ਸਾਧਰਨ ਅਧਿਕਾਰ ਦੇਣ ਤੋਂ ਵੀ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋ, ਤਾਂ ਤੁਸੀਂ ਹੋਰ ਪੁਲੀਟੀਕਲ ਹੱਕ ਮੰਗਣ ਦੇ ਅਧਿਕਾਰੀ ਕਿਵੇਂ ਬਣ ਗਏ?ਗੱਲ ਬੜੀ ਸੱਚੀ ਹੈ, ਪਰ ਚੂੰਕਿ ਇੱਕ ਮੁਸਲਮਾਨ ਨੇ ਇਹ ਗੱਲ ਕਹੀ ਹੈ,ਇਸ ਵਾਸਤੇ ਹਿੰਦੂ ਇਹ ਕਹਿਣ ਲੱਗ ਪੈਂਦੇ ਹਨ, ਦੇਖੋ ਜੀ, ਉਹ ਉਹਨਾਂ ਅਛੂਤਾਂ ਨੂੰ ਮੁਸਲਮਾਨ ਬਣਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਵਿੱਚ ਰਲਾਉਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਉਹਨਾਂ ਤੇ ਸਾਫ ਮੰਨ ਲਿਆ ਹੈ ਕਿ ਜਦੋਂ ਤੁਸੀ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਤਰਾਂ ਪਸ਼ੂਆਂ ਨਾਲੋਂ ਵੀ ਗਿਆ ਗੁਜ਼ਾਰਿਆ ਸਮਝੋਗੇ ਤੇ ਉਹ ਜਰੂਰ ਹੀ ਦੂਜੇ ਮਜ੍ਹਬਾਂ ਵਿੱਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋਣਗੇ। ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਵਿੱਚ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਵਧੇਰੇ ਅਧਿਕਾਰ ਮਿਲਣਗੇ, ਜਿੱਥੇ ਕਿ ਉਹਨਾਂ ਨਾਲ ਆਦਮੀਆਂ ਵਰਗਾ ਸਲੂਕ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਫਿਰ ਇਹ ਕਹਿਣਾ ਕਿ ਦੇਖੋ ਜੀ ਈਸਾਈ ਅਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨ ਹਿੰਦੂ ਕੌਮ ਨੂੰ ਨੁਕਸਾਨ ਪਹੁੰਚਾ ਰਹੇ ਹਨ, ਫਜ਼ੂਲ ਹੋਵੇਗਾ।
       ਕਿੰਨੀ ਸੱਚੀ ਗੱਲ ਹੈ, ਪਰ ਇਹ ਸੁਣ ਕੇ ਸਾਰੇ ਤੜਪ ਉਠੱਦੇ ਹਨ। ਖੈਰ ! ਠੀਕ ਏਸੇ ਗੱਲ ਦਾ ਫਿਕਰ ਹਿੰਦੂਆਂ ਨੂੰ ਵੀ ਪਿਆ। ਸਨਾਤਨੀ ਪੰਡਤ ਵੀ ਇਸ ਮਸਲੇ ‘ਤੇ ਸੋਚਾਣ ਲੱਗੇ। ਵਿਚ-ਵਿਚ ਵੱਡੇ “ਯੁੱਗ ਪਲਟਾਊ’ ਕਹਾਉਣ ਵਾਲੇ ਵੀ ਸ਼ਾਮਿਲ ਹੋਏ। ਪਟਨਾ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਮਹਾਂਸਭਾ ਹੋਈ। ਲਾਲਾ ਲਾਜਪਾਤ ਰਾਏ, ਜਿਹੜੇ ਕਿ ਅਛੂਤਾਂ ਦੇ ਬੜੇ ਪੁਰਾਣੇ ਹਮਾਇਤੀ ਚਲੇ ਆਉਂਦੇ ਹਨ, ਪ੍ਰਧਾਨ ਸਨ। ਬੜੀ ਬਹਿਸ ਛਿੜੀ, ਗਰਮਾ-ਗਰਮ ਝੜਪਾਂ ਹੋਈਆਂ, ਮਾਮਲਾ ਇਹ ਦਰਪੇਸ਼ ਸੀ ਕਿ ਕੀ ਅਛੂਤਾਂ ਨੂੰ ਯਗੋ-ਪਵੀਤ (ਜਨੇਊ) ਪਾਉਣ ਦਾ ਹੱਕ ਹੈ? ਤੇ ਕੀ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਵੇਦ ਸ਼ਾਸਤਰ ਪੜ੍ਹਨ ਦਾ ਹੱਕ ਹੈ? ਬੜੇ-ਬੜੇ Reformer (ਸਮਾਜ ਸੁਧਾਰਕ) ਗਰਮ ਹੋ ਪਏ, ਪਰ ਲਾਲਾ ਜੀ ਨੇ ਸਾਰਿਆਂ ਨੂੰ ਸਮਝਾ ਲਿਆ ਅਤੇ ਇਹ ਦੋਵੇਂ ਗੱਲਾਂ ਮਨਜੂਰ ਕਰ ਕੇ ਹਿੰਦੂ ਧਰਮ ਦੀ ਲਾਜ ਰੱਖ ਲਈ। ਨਹੀਂ ਤਾਂ ਕਿੱਥੇ ਠਿਕਾਣਾ ਸੀ, ਜਰਾ ਸੋਚੋ ਤਾਂ ਸਹੀ ਕਿੱਡੀ ਸ਼ਰਮ ਦੀ ਗੱਲ ਹੈ। ਕੁੱਤਾ ਸਾਡੀ ਗੋਦ ਵਿਚ ਬੈਠ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਸਾਡੇ ਚੌਂਕੇ ਵਿੱਚ ਨਿਸ਼ੰਗ ਫਿਰ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਇੱਕ ਪਰ ਇੱਕ ਆਦਮੀ ਸਾਡੇ ਨਾਲ ਛੂਹ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਬੱਸ ਧਰਮ ਖਰਾਬ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਫੇਰ ਤਾਂ ਪੰਡਤ ਮਾਲਵੀਆ ਜੈਸੇ ਬੜੇ ਸਮਾਜ ਸੁਧਾਰਕ, ਅਛੂਤਾਂ ਦੇ ਬਹੁਤ ਬੜੇ ਪ੍ਰੇਮੀ ਤੇ ਹੋਰ ਵੀ ਨਾ ਜਾਣੇ ਕੀ- ਪਹਿਲੋਂ ਇੱਕ ਚੂਹੜੇ ਦੇ ਹੱਥੋਂ ਹਾਰ ਪੁਆ ਲੇਂਦੇ ਹਨ, ਪਿੱਛੋਂ ਕੱਪੜਿਆਂ ਸਮੇਤ ਇਸ਼ਨਾਨ ਕੀਤਿਆ ਬਿਨ੍ਹਾਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਅਸ਼ੁੱਧ ਸਮਝਦੇ ਹਨ। ਕਿਆ ਖੂਬ ਇਹ ਚਾਲ ਹੈ ਸਭ ਨੂੰ ਪਿਆਰ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਰੱਬ! ਉਸ ਦੀ ਪੂਜਾ ਕਰਨ ਵਾਸਤੇ ਜੋ ਮੰਦਰ ਬਣਿਆ ਹੈ, ਉੱਥੇ ਅਗਰ ਉਹ ਗਰੀਬ ਜਾ ਵੜੇ ਤਾਂ ਮੰਦਰ ਪਲੀਤ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ, ਰੱਬ ਨਾਰਾਜ਼ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਘਰ ਦੀ ਇਹ ਹਾਲਤ ਹੋਵੇ ਤੇ ਬਾਹਰ ਅਸੀਂ Equality ਜਾਂ ਬਰਾਬਰੀ ਦੇ ਨਾਮ ‘ਤੇ ਝਗੜਦੇ ਚੰਗੇ ਲੱਗਦੇ ਹਾਂ? ਫਿਰ ਸਾਡੇ ਰਵੱਈਏ ਵਿਚ ਕ੍ਰਿਤਘਣਤਾ ਦੀ ਹੱਦ ਪਾਈ ਜਾਂਦੀ ਹੈ। ਜੋ ਸਾਡੇ ਵਾਸਤੇ ਨੀਚ ਤੋਂ ਨੀਚ ਕੰਮ ਕਰਕੇ ਸਾਡੇ ਸੁੱਖਾਂ ਵਿਚ ਵਾਧਾ ਕਰਦੇ ਹਨ, ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਹੀ ਅਸੀਂ ਪਰੇ-ਪਰੇ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਜਾਨਵਰਾਂ ਦੀ ਪੂਜਾ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਾਂ, ਪਰ ਇਨਸਾਨ ਨੂੰ ਕੋਲ ਵੀ ਨਹੀਂ ਬਿਠਾ ਸਕਦੇ ?
       ਅੱਜ ਇਸ ਸਵਾਲ ‘ਤੇ ਬਹੁਤ ਸ਼ੋਰ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ: ਉਨਾਂ ਵਿਚਾਰਿਆਂ ਵੱਲ ਅੱਜ-ਕੱਲ ਖ਼ਾਸ ਧਿਆਨ ਦਿੱਤਾ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ। ਮੁਲਕ ਵਿਚ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦਾ ਜੋ ਵਿਕਾਸ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਉਸ ਵਿਚ ਫਿਰਕਾਵਾਰਾਨਾ ਨਿਆਬੁਤ ਨੇ ਹੋਰ ਕੋਈ ਫਾਇਦਾ ਕੀਤਾ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਨਾ ਕੀਤਾ ਹੋਵੇ, ਇਹ ਫਾਇਦਾ ਜ਼ਰੂਰ ਕੀਤਾ ਹੈ ਕਿ ਵਧੀਕ ਹਕੂਕ ਮੰਗਣ ਵਾਸਤੇ ਆਪਣੀ ਕੌਮ ਦੀ ਗਿਣਤੀ ਵਧਾਉਣ ਦਾ ਫਿਕਰ ਸਭਨਾਂ ਨੂੰ ਪਿਆ। ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਨੇ ਜ਼ਰਾ ਵਧੇਰੇ ਜ਼ੋਰ ਦਿੱਤਾ। ਉਹਨਾਂ ਅਛੂਤਾਂ ਨੂੰ ਮੁਸਲਮਾਨ ਬਣਾ-ਬਣਾ ਕੇ ਆਪਣੇ ਬਰਾਬਰ ਦੇ ਇਨਸਾਨ ਬਣਾ ਕੇ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਆਦਮੀ ਦੇ ਹਕੂਕ ਦੇਣੇ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੇ। ਹੁਣ ਹਿੰਦੂਆਂ ਦੇ ਵੀ ਸੱਟ ਵੱਜੀ। ਜ਼ਿਦ ਵਧੀ। ਫ਼ਸਾਦ ਵੀ ਹੋਏ। ਖ਼ੈਰ! ਹੌਲੀ-ਹੌਲੀ ਸਿੱਖਾਂ ਵਿੱਚ ਵੀ ਖਿਆਲ ਪੈਦਾ ਹੋਇਆ ਕਿ ਅਸੀਂ ਨਾ ਪਿੱਛੇ ਰਹਿ ਜਾਈਏ। ਉਨਾਂ ਵੀ ਅੰਮ੍ਰਿਤ ‘ਛਕਾਉਣਾ’ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਹਿੰਦੂਆਂ ਸਿੱਖਾਂ ਵਿਚ ਅਛੂਤਾਂ ਦੇ ਜਨੇਊ ਲਾਹੁਣ ਜਾਂ ਕੇਸ ਕਟਾਵਾਉਣ ਦੇ ਸਵਾਲਾਂ ‘ਤੇ ਝਗੜੇ ਹੋਏ। ਹੁਣ ਤਿੰਨੇ ਕੌਮਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪਣੇ ਵੱਲ ਖਿੱਚ ਰਹੀਆਂ ਹਨ ਤੇ ਬੜਾ ਸ਼ੋਰ ਸ਼ਰਾਬਾ ਹੈ। ਓਧਰ ਈਸਾਈ ਚੁੱਪ-ਚਾਪ ਉਨਾਂ ਦਾ ਰੁਤਬਾ ਵਧਾ ਰਹੇ ਹਨ। ਇਸ ਸਾਰੀ ਹਲ ਚਲ ਨਾਲ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਦੀ ਲਾਹਨਤ ਦੂਰ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ।
       ਇਧਰ ਜਦ ਅਛੂਤਾਂ ਨੇ ਦੇਖਿਆ ਕੀ ਸਾਡੀ ਖਾਤਰ ਇਨਾਂ ਵਿੱਚ ਫ਼ਸਾਦ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਹਰ ਕੋਈ ਸਾਨੂੰ ਹਰ ਕੋਈ ਆਪਣੀ ਆਪਣੀ ਖ਼ੁਰਾਕ ਸਮਝ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਜੁਦੇ ਹੀ ਕਿਉਂ ਨਾ ਸੰਗਠਤ ਹੋਈਏ। ਇਸੇ ਖਿਆਲ ਨੂੰ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰਨ ਵਿੱਚ ਸਰਕਾਰ ਅੰਗਰੇਜ਼ੀ ਦਾ ਕੋਈ ਹੱਥ ਹੋਵੇ ਜਾਂ ਨਾ ਹੋਵੇ, ਏਨਾ ਜ਼ਰੂਰ ਹੈ ਕਿ ਉਸ ਦੇ ਪ੍ਰਚਾਰ ਵਿਚ ਸਰਕਾਰੀ ਆਦਮੀਆਂ ਦਾ ਵੀ ਕਾਫੀ ਹੱਥ ਹੈ ਸੀ। ਆਦਿ ਧਰਮ ਮੰਡਲ ਆਦਿਕ ਉਸੇ ਵਿਚਾਰ ਦੇ ਪ੍ਰਚਾਰ ਦਾ ਨਤੀਜਾ ਹਨ।
       ਹੁਣ ਇੱਕ ਸਵਾਲ ਹੋਰ ਉੱਠਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਸ ਮਸਲੇ ਦਾ ਠੀਕ-ਠੀਕ ਹੱਲ ਕੀ ਹੈ? ਇਸ ਦਾ ਜਵਾਬ ਬੜਾ ਸੈਹਲ ਹੈ। ਸਭ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਇਹ ਫੈਸਲਾ ਕਰ ਲੈਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਸਭ ਇਨਸਾਨ ਇਕੋ ਜਿਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਨਾ ਤੇ ਜਨਮ ਨਾਲ ਕੋਈ ਭਿੰਨ ਭੇਦ ਪੈਂਦਾ ਹੈ ਤੇ ਨਾ ਕੰਮਕਾਜ ਨਾਲ। ਯਾਨੀ ਚੂੰਕਿ ਇੱਕ ਆਦਮੀ ਗਰੀਬ ਭੰਗੀ ਦੇ ਘਰ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਿਆ ਹੈ, ਇਸ ਕਰਕੇ ਸਾਰੀ ਉਮਰ ਟੱਟੀਆਂ ਹੀ ਸਾਫ ਕਰੇਗਾ ਅਤੇ ਦੁਨੀਆਂ ਵਿਚ ਕਿਸੇ ਕਿਸਮ ਦੀ ਤਰੱਕੀ ਦਾ ਉਸਨੂੰ ਕੋਈ ਹੱਕ ਨਹੀਂ। ਇਹ ਗੱਲਾਂ ਫਜੂਲ ਹਨ। ਇਹਨਾਂ ਵਰਗਿਆਂ ਆਦਮੀਆਂ ਨਾਲ ਜਦੋਂ ਸਾਡੇ ਬਜ਼ੁਰਗ ਆਰੀਅਨ ਲੋਕਾਂ ਨੇ ਇਹ ਜ਼ੁਲਮ ਕੀਤਾ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਨੀਚ ਕਹਿ ਕੇ ਪਰ੍ਹੇ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਨੀਚ ਕੰਮ ਕਰਵਾਉਣ ਲੱਗ ਪਏ ਅਤੇ ਨਾਲ ਹੀ ਇਹ ਵੀ ਫਿਕਰ ਪਿਆ ਕਿ ਇਹ ਬਗਾਵਤ ਨਾ ਕਰ ਦੇਣ, ਤਦੋਂ ਪੁਨਰ-ਜਨਮ ਦੀ ਫਿਲਾਸਫੀ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਇਹ ਤੁਹਾਡੇ ਪੁਰਾਣੇ ਜਨਮ ਦੇ ਪਾਪਾਂ ਦਾ ਫਲ ਹੈ। ਕੀ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ? ਚੁੱਪ ਕਰਕੇ ਕਰੋ। ਇਸ ਤਰਾਂ ਉਹਨਾਂ ਨੂੰ ਸਬਰ ਦਾ ਸਬਕ ਪੜ੍ਹਾ ਕੇ ਉਹ ਲੋਕੀ ਇਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਚਿਰ ਵਾਸਤੇ ਚੁੱਪ ਕਰਵਾ ਗਏ। ਪਰ ਉਹਨਾਂ ਬੜਾ ਪਾਪ ਕੀਤਾ। ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੇ ਅੰਦਰੋਂ ਇਨਸਾਨੀਅਤ ਦਾ ਮਾਦਾ ਆਤਮ-ਵਿਸ਼ਵਾਸ਼, ਅਤੇ ਆਤਮ-ਨਿਰਭਰਤਾ ਦਾ ਭਾਵ ਮਾਰ ਸੁੱਟਿਆ। ਬੜਾ ਜ਼ੁਲਮ ਤੇ ਕਹਿਰ ਕਮਾਇਆ। ਖੈਰ, ਅੱਜ ਉਹਦੇ ਪਰਾਸ਼ਚਿਤ ਦਾ ਵੇਲਾ ਹੈ।
       ਇਸੇ ਦੇ ਨਾਲ ਹੀ ਇੱਕ ਹੋਰ ਖਰਾਬੀ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਈ। ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਦਿਲਾਂ ਵਿੱਚ ਜ਼ਰੂਰੀ ਕੰਮਾਂ ਵਾਸਤੇ ਘਿਰਣਾ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਈ। ਅਸੀਂ ਜੁਲਾਹੇ ਨੂੰ ਵੀ ਪਰੇ ਦੁਰਕਾਰ ਦਿੱਤਾ ਅਤੇ ਅੱਜ ਕੱਪੜਾ ਬੁਣਨ ਵਾਲੇ ਅਛੂਤ ਸਮਝੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਯੂ.ਪੀ. ਵੱਲ ਕਹਾਰ (ਝੀਰ) ਨੂੰ ਵੀ ਅਛੂਤ ਸਮਝਿਆ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਨਾਲ ਬੜੀ ਖਰਾਬੀ ਪੈਦਾ ਹੋ ਗਈ, ਜਿਸ ਨਾਲ ਸਾਡੀ ਤਰੱਕੀ ਵਿਚ ਬੜੀ ਰੁਕਾਵਟ ਪੈਂਦੀ ਹੈ।
       ਇਨਾਂ ਗੱਲਾਂ ਨੂੰ ਸਾਹਮਣੇ ਰੱਖਦੇ ਹੋਏ ਅਸੀਂ ਅੱਗਾਂਹ ਵਧੀਏ। ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਅਛੂਤ ਨਾ ਕਹੀਏ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਸਮਝੀਏ। ਬਸ, ਮੁਆਮਲਾ ਸਾਫ ਹੋ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਨੌਜਵਾਨ ਭਾਰਤ ਸਭਾ ਅਤੇ ਨੌਜਵਾਨ ਕਾਨਫਰੰਸ ਨੇ ਜੋ ਤਰੀਕਾ ਅਖਤਿਆਰ ਕੀਤਾ ਹੈ, ਉਹ ਡਾਢਾ ਸੁੰਦਰ ਹੈ। ਜਿਨਾਂ ਭਰਾਵਾਂ ਨੂੰ ਅੱਜ ਤੀਕ ਅਛੂਤ-ਅਛੂਤ ਕਿਹਾ ਕਰਦੇ ਸਾਂ, ਉਨਾਂ ਕੋਲੋਂ ਇਸ ਪਾਪ ਵਾਸਤੇ ਖਿਮਾਂ ਮੰਗਣੀ ਅਤੇ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਰਗਾ ਆਦਮੀ ਸਮਝਣਾਂ, ਬਿਨਾਂ ਅਮ੍ਰਿਤ ਛਕਾਇਆਂ, ਕਲਮਾਂ ਪੜਾਇਆਂ ਜਾਂ ਸ਼ੁੱਧ ਕੀਤਿਆਂ ਹੀ ਉਹਨੂੰ ਆਪਣੇ ਵਿਚ ਰਲ੍ਹਾ ਲੈਣਾ, ਉਹਦੇ ਹੱਥ ਦਾ ਪਾਣੀ ਪੀਣਾ ਇਹੋ ਠੀਕ ਤਰੀਕਾ ਹੈ ਤੇ ਆਪੋ ਵਿੱਚ ਖਿੱਚਧੂਹੀ ਕਰਨੀ ਅਤੇ ਅਮਲ ਵਿਚ ਕੋਈ ਵੀ ਹੱਕ ਨਾ ਦੇਣਾ, ਕੋਈ ਠੀਕ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਹੈ।
       ਜਦੋਂ ਪਿੰਡਾਂ ਵਿਚ ਕਿਰਤੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਇਆ, ਉਦੋਂ ਜੱਟਾਂ ਨੂੰ ਸਰਕਾਰੀ ਆਦਮੀ ਇਹ ਗੱਲ ਸਮਝਾ ਕੇ ਭੜਕਾਉਂਦੇ ਸਨ ਕਿ ਦੇਖੌ ਇਹ ਚੂਹੜਿਆਂ ਚੱਪੜੀਆਂ ਨੂੰ ਸਿਰ ‘ਤੇ ਚੜ੍ਹਾ ਰਹੇ ਹਨ ਅਤੇ ਤੁਹਾਡਾ ਕੰਮ ਬੰਦ ਕਰਾਊ ਹਨ। ਬਸ, ਜੱਟ ਏਨੇ ਵਿੱਚ ਹੀ ਭੂਤ ਪਏ। ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਯਾਦ ਰੱਖਣਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ ਕਿ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਹਾਲਤ ਓਨਾਂ ਚਿਰ ਨਹੀਂ ਸੁਧਰ ਸਕਦੀ ਜਿਨਾਂ ਚਿਰ ਕਿ ਉਹ ਇਨਾਂ ਗ਼ਰੀਬਾਂ ਨੂੰ ਕਮੀਣ ਅਤੇ ਨੀਚ ਕਹਿ ਕੇ ਆਪਣੇ ਪੈਰਾਂ ਹੇਠ ਦੱਬੀ ਰੱਖਣਾ ਚਾਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਕਿ ਉਹ ਸਾਫ ਨਹੀਂ ਰਹਿੰਦੇ? ਇਸਦਾ ਜਵਾਬ ਸਾਫ ਹੈ, ਉਹ ਗਰੀਬ ਹਨ। ਗ਼ਰੀਬੀ ਦਾ ਇਲਾਜ਼ ਕਰੋ। ਉੱਚੀਆਂ-ਉੱਚੀਆਂ ਕੁਲਾਂ ਦੇ ਗ਼ਰੀਬ ਲੋਕੀ ਕੋਈ ਘੱਟ ਗੰਦੇ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦੇ। ਗੰਦਾ ਕੰਮ ਕਰਨ ਦਾ ਬਹਾਨਾ ਵੀ ਨਹੀਂ ਲੱਗ ਸਕਦਾ। ਮਾਵਾਂ ਬੱਚਿਆਂ ਦਾ ਗੰਦ ਸਾਫ ਕਰਨ ਨਾਲ ਚੂਹੜੀਆਂ ਤੇ ਅਛੂਤ ਨਹੀਂ ਹੋ ਜਾਂਦੀਆਂ।
       ਪਰ ਇਹ ਕੰਮ ਉਨ੍ਹਾਂ ਚਿਰ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ, ਜਦੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਅਛੂਤ ਕੌਮਾਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸੰਗਠਿਤ ਨਾ ਕਰ ਲੈਣ।ਅਸੀਂ ਤਾਂ ਸਮਝਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਉਨਾਂ ਦਾ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਵੱਖਰਾ ਜੱਥਬੰਦ ਕਰਨਾਂ ਤੇ ਮੁਸਲਮਾਨਾਂ ਦੇ ਬਰਾਬਰ ਗਿਣਤੀ ਵਿਚ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਬਰਾਬਰ ਦੇ ਹੱਕ-ਹਕੂਕ ਮੰਗਣਾ ਬੜੀ ਆਸ਼ਾਜਨਕ ਤਹਿਰੀਕ ਹੈ। ਜਾਂ ਤੇ ਫਿਰਕਾਵਾਰਾਨਾ ਨਿਆਂਬੁਤ ਦਾ ਟੰਟਾ ਹੀ ਮੁਕਾਓ ਨਹੀਂ ਤੇ ਉਨਾਂ ਦੇ ਵੱਖਰੇ ਹਕੂਕ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਦੇਵੋ। ਕੌਸਲਾਂ ਅਤੇ ਅਸੈਂਬਲੀਆਂ ਦਾ ਫ਼ਰਜ਼ ਹੈ ਕਿ ਸਕੂਲ, ਕਾਲਜ, ਖੂਹ ਅਤੇ ਸੜਕਾਂ ਦੇ ਇਸਤੇਮਾਲ ਦੀ ਪੂਰੀ ਅਜਾਦੀ ਇਹਨਾਂ ਨੂੰ ਦੁਵਾਉਣ। ਜ਼ਬਾਨੀ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਬਲਕਿ ਨਾਲ ਲਿਜਾ ਕੇ ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਖੂਹਾਂ ਉੱਤੇ ਚੜਾਉਣ, ਨਾਲ ਲੈ ਜਾਕੇ ਉਨਾਂ ਦੇ ਬੱਚਿਆਂ ਨੂੰ ਮਦਰੱਸਿਆਂ ਵਿਚ ਭਰਤੀ ਕਰਵਾਉਣ। ਪਰ, ਜਿਸ ਲੈਜੀਸਲੇਟਿਵ ਵਿੱਚ ਛੋਟੀ ਉਮਰ ਵਿਚ ਵਿਆਹ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਪੇਸ਼ ਕੀਤੇ ਗਏ ਬਿੱਲ ‘ਤੇ ਮੱਜ਼ਹਬ ਦੇ ਬਹਾਨੇ ਲੈ ਕੇ ਹਾਏ-ਤੌਬਾ ਮਚਾ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਉਥੇ ਅਛੂਤਾਂ ਨੂੰ ਨਾਲ ਰਲਾਉਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਉਹ ਕਿਸ ਤਰਾਂ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਨ।
       ਇਸ ਕਰਕੇ ਅਸੀਂ ਕਹਿੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਉਨਾਂ ਦੇ ਆਪਣੇ ਨੁਮਾਇੰਦੇ ਕਿਉਂ ਨਾ ਹੋਣ? ਉਹ ਆਪਣੀ ਵੱਖਰੀ ਤਾਦਾਦ ਕਿਉਂ ਨਾ ਮੰਗਣ? ਅਸੀਂ ਤਾਂ ਸਾਫ ਕਹਿੰਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਉਠੋ! ਅਛੂਤ ਕਹਾਉਣ ਵਾਲੇ ਅਸਲੀ ਸੇਵਕੋ ਤੇ ਵੀਰੋ ਉੱਠੋ! ਆਪਣਾ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇਖੋ! ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ਜੀ ਦੀ ਫੌਜ ਦੀ ਅਸਲੀ ਤਾਕਤ ਤੁਹਾਡੀ ਸੀ। ਸ਼ਿਵਾ ਜੀ ਤੁਹਾਡੇ ਆਸਰੇ ਹੀ ਸਭ ਕੁਝ ਕਰ ਸਕਿਆ, ਜਿਸ ਨਾਲ ਕਿ ਅੱਜ ਉਸਦਾ ਨਾਂ ਅੱਜ ਤੱਕ ਜਿੰਦਾ ਹੈ। ਤੁਹਾਡੀਆਂ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਸੋਨੇ ਦੇ ਅੱਖਰਾਂ ਵਿਚ ਲਿਖੀਆਂ ਹੋਈਆਂ ਹਨ। ਤੁਸੀਂ ਜੋ ਨਿੱਤ ਸੇਵਾ ਕਰਕੇ, ਕੌਮ ਦੇ ਸੁੱਖ ਵਿਚ ਵਾਧਾ ਕਰਕੇ ਅਤੇ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਮੁਮਕਿਨ ਬਣਾ ਕੇ ਇੱਕ ਬੜਾ ਭਾਰੀ ਅਹਿਸਾਨ ਕਰ ਰਹੇ ਹੋ, ਉਸ ਨੂੰ ਅਸੀਂ ਲੋਕ ਨਹੀਂ ਸਮਝਦੇ। (Land Alienation Act) ਇੰਤਕਾਲੇ- ਇਰਾਜ਼ੀ ਐਕਟ ਦੇ ਮੁਤਾਬਿਕ ਤੁਸੀਂ ਪੈਸੇ ਇੱਕਠ ਕਰਕੇ ਵੀ ਜ਼ਮੀਨ ਨਹੀਂ ਖਰੀਦ ਸਕਦੇ। ਤੁਹਾਡੇ ‘ਤੇ ਏਨਾਂ ਜ਼ੁਲਮ ਹੋ ਰਿਹਾ ਹੈ ਕਿ ਅਮਰੀਕਾ ਦੀ ਮਿਸ ਮੇਯੋ, (less than men) ਮਨੁੱਖਾਂ ਨਾਲੋਂ ਬਹੁਤ ਹੇਠਾਂ ਕਹਿੰਦੀ ਹੈ। ਉੱਠੋ! ਆਪਣੀ ਤਾਕਤ ਪਛਾਣੋ। ਜਥੇਬੰਦ ਹੋ ਜਾਓ। ਅਸਲ ਵਿਚ ਤੇ ਤੁਹਾਡੇ ਆਪਣੇ ਯਤਨ ਕੀਤਿਆਂ ਬਿਨਾਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਕੁਝ ਵੀ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਸਕੇਗਾ। (Those who would be free must themselves strike the blow) ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੀ ਖਾਤਰ ਆਜ਼ਾਦੀ ਚਾਹੁਣ ਵਾਲਿਆਂ ਨੂੰ ਜਤਨ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ।
       ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਹੌਲੀ-ਹੌਲੀ ਕੁੱਝ ਇਹੋ ਜਹੀ ਆਦਤ ਹੋ ਗਈ ਹੈ ਕਿ ਆਪਣੇ ਵਾਸਤੇ ਤੇ ਉਹ ਹੱਕ ਮੰਗਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਜਿਨਾਂ ‘ਤੇ ਉਹਦਾ ਆਪਣਾ ਦਬਦਬਾ ਹੋਵੇ, ਉਨਾਂ ਨੂੰ ਉਹ ਪੈਰਾਂ ਥੱਲੇ ਹੀ ਰੱਖਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਇਸ ਕਰਕੇ ‘ਲੱਤਾਂ ਦੇ ਭੂਤ ਗੱਲਾਂ ਨਾਲ ਨਹੀਂ ਮੰਨਿਆ ਕਰਦੇ’। ਜਥੇਬੰਦ ਹੋ ਕੇ ਹੋ ਕੇ ਆਪਣੇ ਪੈਰਾਂ ‘ਤੇ ਖਲ੍ਹੋ ਕੇ ਸਾਰੇ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਚੈਲੰਜ ਕਰ ਦਿਓ। ਦੇਖੋ ਤਾਂ ਫਿਰ ਕੌਣ ਤੁਹਾਡੇ ਹੱਕ ਦੇਣ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰ ਕਰਨ ਦੀ ਜੁਅਰਤ ਕਰ ਸਕੇਗਾ। ਤੁਸੀਂ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਖੁਰਾਕ ਨਾ ਬਣੋ। ਦੂਜਿਆਂ ਦੇ ਮੂੰਹ ਵੱਲ ਨਾ ਤੱਕੋ। ਪਰ ਖਿਅਲ ਰੱਖਣਾ। ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਦੇ ਝਾਂਸੇ ਵਿਚ ਵੀ ਨਾ ਆਉਣਾ। ਇਹ ਤੁਹਾਡੀ ਮਦਦ ਨਹੀਂ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦੀ। ਬਲਕਿ ਤੁਹਾਨੂੰ ਆਪਣਾ ਟੂਲ (ਸੰਦ) ਬਣਾਉਣਾ ਚਾਹੁੰਦੀ ਹੈ। ਇਹ ਸਰਮਾਏਦਾਰ ਨੌਕਰਸ਼ਾਹੀ ਤੁਹਾਡੀ ਗੁਲਾਮੀ ਅਤੇ ਗ਼ਰੀਬੀ ਦਾ ਮੁੱਖ ਕਾਰਨ ਹੈ। ਇਸ ਕਰੇ ਉਸ ਨਾਲ ਤੁਸੀਂ ਨਾ ਮਿਲਣਾ। ਉਸ ਦੀਆਂ ਚਾਲਾਂ ਕੋਲੋਂ ਬਚਣਾ। ਬਸ! ਫਿਰ ਕੰਮ ਬਣ ਜਾਵੇਗਾ। ਤੁਸੀਂ ਅਸਲੀ ਕਿਰਤੀ ਹੋ। ਕਿਰਤੀਉ ਜਥੇਬੰਦ ਹੋ ਜਾਓ। ਤੁਹਾਡਾ ਕੁਝ ਨੁਕਸਾਨ ਨਹੀਂ ਹੋਵੇਗਾ ਕੇਵਲ ਗੁਲਾਮੀ ਦੀਆਂ ਜ਼ੰਜੀਰਾਂ ਕੱਟੀਆਂ ਜਾਣਗੀਆਂ। ਉਠੋ! ਅਤੇ ਮੌਜੂਦਾ ਨਿਜ਼ਾਮ ਦੇ ਵਿਰੁੱਧ ਬਗਾਵਤ ਖੜ੍ਹੀ ਕਰ ਦਿਓ। ਹੋਲੀ-ਹੋਲੀ ਸੁਧਾਰ ਅਤੇ ਰੀਫਾਰਮਾਂ ਨਾਲ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਬਣ ਸਕਦਾ। ਸਮਾਜਕ (Social) ਐਜੀਟੇਸ਼ਨ/ਇਨਕਲਾਬ ਪੈਦਾ ਕਰ ਦਿਓ ਅਤੇ ਪਲੀਟੀਕਲ ਤੇ ਆਰਥਿਕ ਇਨਕਲਾਬ ਵਾਸਤੇ ਕਮਰਕੱਸੇ ਕਰ ਲਵੋ। ਤੁਸੀਂ ਹੀ ਤੇ ਮੁਲਕ ਦੀ ਜੜ੍ਹ ਹੋ, ਅਸਲੀ ਤਾਕਤ ਹੋ। ਉਠੋ! ਸੁੱਤੇ ਹੋਏ ਸ਼ੇਰੋ, ਵਿਦਰੋਹੀਓ, ਵਿਪੱਲਵ ਜਾਂ ਵਿਦਰੋਹ ਖੜ੍ਹਾ ਕਰ ਦਿਓ!                                           
– ਵਿਦਰੋਹੀ
(ਭਗਤ ਸਿੰਘ ਵਲੋਂ ਜੂਨ 1928 ਦੇ ‘ਕਿਰਤੀ’ ਰਸਾਲੇ ਵਿਚ ਵਿਦਰੋਹੀ ਦੇ ਕਲਮੀ ਨਾਮ ਹੇਠ ਲਿਖਿਆ ਗਿਆ ਲੇਖ)

अछूत का सवाल भगत सिंह

       हमारे देश-जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश के नहीं हुए। यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं। एक अहम सवाल अछूत-समस्या है। सवाल यह है कि 30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ लोग अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट तो नहीं होगा? उनके मन्दिरों में प्रवेश से देवगण नाराज हो उठेंगे?क्या कुएं से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जाएगा? ये सवाल बीसवीं सदी में किए जा रहे हैं, जिन्हें कि सुनते ही शर्म आती है।
       हमारा देश बहुत अध्यात्मवादी है, मतलब रूहानियत पसंद है। हम मनुष्य को मनुष्य का दर्जा देने से भी झिझकते हैं। जबकि पूर्णतया भौतिकवादी कहलाने वाला यूरोप कई सदियों से इन्कलाब की आवाज उठा रहा है। उन्होंने अमेरिका और फ्रांस की क्रांतियों के दौरान ही समानता की घोषणा कर दी थी। आज रूस ने भी हर प्रकार का भेदभाव मिटा कर क्रांति के लिए कमर कसी हुई है। हम सदा ही आत्मा-परमात्मा के वजूद को लेकर चिन्तित होने तथा इस जोरदार बहस में उलझे हुए हैं कि क्या अछूत को जनेऊ दे दिया जाएगा? वे वेद-शास्त्र पढ़ने के अधिकारी हैं अथवा नहीं? हम उलाहना देते हैं कि हमारे साथ विदेशों में अच्छा सलूक नहीं होता। अंग्रेजी शासन हमें अंग्रजों के समान नहीं समझता। लेकिन क्या हमें यह शिकायत करने का अधिकार ही क्या है?
      सिन्ध के एक मुस्लिम सज्जन श्री नूर मुहम्मद ने, जो बम्बई कौंसिल के सदस्य हैं, इस विषय पर 1926 में खूब कहा:-
“If the Hundu society refuses to allow other human beings, fellow creatures so that to attend public school, and if।। the president of local board representing so many lakhs of people in this house refuses to allow his fellows and brothers the elementary human right of having water to drink, what right have they to ask for more rights from the bureaucracy? Before we accuse people coming from other lands, we should see how we ourselves behave toward our own people।। How can we ask for greater political rights when we ourselves deny elementary rights of human beings.”
     वे कहते हैं कि जब तुम एक इन्सान को पीने के लिए पानी देने से भी इनकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की माँग करो? जब तुम एक इन्सान को समान अधिकार देने से भी इनकार करते हो तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार माँगने के अधिकारी कैसे बन गए?
      बात बिल्कुल खरी है। लेकिन यह क्योंकि एक मुस्लिम ने कही है इसलिए हिन्दू कहेंगे कि: देखो, वह उन अछूतों को मुसलमान बना कर अपने में शामिल करना चाहते हैं।
      जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे। जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहाँ उनसे इन्सानों-जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुँचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।
     कितना स्पष्ट कथन है, लेकिन यह सुन कर सभी तिलमिला उठते हैं। ठीक इसी तरह की चिन्ता हिन्दुओं को भी हुई। सनातनी पण्डित भी कुछ-न-कुछ इस मसले पर सोचने लगे। बीच-बीच में बड़े ‘युगांतरकारी’ कहे जानेवाले भी शामिल हुए। पटना में हिन्दू महासभा का सम्मेलन लाला लाजपतराय- जोकि अछूतों के बहुत पुराने समर्थक चले आ रहे हैं- की अध्यक्षता में हुआ, तो जोरदार बहस छिड़ी। अच्छी नोंक-झोंक हुई। मामला यह था कि अछूतों को यज्ञोपवीत धारण करने का हक है अथवा नहीं? तथा क्या उन्हें वेद-शास्त्रों का अध्ययन करने का अधिकार है? बड़े-बड़े समाज-सुधारक तमतमा गये, लेकिन लालाजी ने सबको सहमत कर दिया तथा यह दो बातें स्वीकृत कर हिन्दू धर्म की लाज रख ली। वरना जरा सोचो, कितनी शर्म की बात होती। कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है! सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान नराज हो जाता है। घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पाई जाती है। जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुरदुराते हैं। पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इन्सान को पास नहीं बिठा सकते!
      आज इस सवाल पर बहुत शोर हो रहा है। उन बेचारों पर आजकल विशेष ध्यान दिया जा रहा है। देश में मुक्ति कामना जिस तरह बढ़ रही है, उसमें साम्प्रदायिक भावना ने और कोई लाभ पहुँचाया हो अथवा नहीं लेकिन एक लाभ जरूर पहुँचाया है। अधिक अधिकारों की माँग के लिए अपनी-अपनी कौमों की संख्या बढ़ाने की चिन्ता सबको हुई। मुस्लिमों ने जरा ज्यादा जोर दिया। उन्होंने अछूतों को मुसलमान बना कर अपने बराबर अधिकार देने शुरू कर दिए। इससे हिन्दुओं के अहम को चोट पहुँची। स्पर्धा बढ़ी। फसाद भी हुए। धीरे-धीरे सिखों ने भी सोचा कि हम पीछे न रह जायें। उन्होंने भी अमृत छकाना आरम्भ कर दिया। हिंदू-सिखों के बीच अछूतों के जनेऊ उतारने या केश कटवाने के सवालों पर झगड़े हुए। अब तीनों कौमें अछूतों को अपनी-अपनी ओर खींच रही है। इसका बहुत शोर-शराबा है। उधर ईसाई चुपचाप उनका रुतबा बढ़ा रहे हैं। चलो, इस सारी हलचल से ही देश के दुर्भाग्य की लानत दूर हो रही है।
      इधर जब अछूतों ने देखा कि उनकी वजह से इनमें फसाद हो रहे हैं तथा उन्हें हर कोई अपनी-अपनी खुराक समझ रहा है तो वे अलग ही क्यों न संगठित हो जाएं? इस विचार के अमल में अंग्रेजी सरकार का कोई हाथ हो अथवा न हो लेकिन इतना अवश्य है कि इस प्रचार में सरकारी मशीनरी का काफी हाथ था। ‘आदि धर्म मण्डल` जैसे संगठन उस विचार के प्रचार का परिणाम हैं।
      अब एक सवाल और उठता है कि इस मसले का सही समाधान क्या हो? इसका जबाब बड़ा अहम है। सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान हैं तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ और न कार्य-विभाजन से। अर्थात् क्योंकि एक आदमी गरीब मेहतर के घर पैदा हो गया है, इसलिए जीवन भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक नहीं है, ये बातें फिजूल हैं। इस तरह हमारे पूर्वज आर्यों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कह कर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार आरंभ दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है। अब क्या हो सकता है?चुपचाप दिन गुजारो! इस तरह उन्हें धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गए। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया। मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया। आत्मविश्वास एवं स्वावलम्बन की भावनाओं को समाप्त कर दिया। बहुत दमन और अन्याय किया गया। आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है।
        इसके साथ एक दूसरी गड़बड़ी हो गयी। लोगों के मनों में आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गई। हमने जुलाहे को भी दुत्कारा। आज कपड़ा बुननेवाले भी अछूत समझे जाते हैं। यू. पी. की तरफ कहार को भी अछूत समझा जाता है। इससे बड़ी गड़बड़ी पैदा हुई। ऐसे में विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा हो रही हैं।
         इन तबकों को अपने समक्ष रखते हुए हमें चाहिए कि हम न इन्हें अछूत कहें और न समझें। बस, मामला हल हो गया। नौजवान भारत सभा तथा नौजवान कांग्रेस ने जो ढंग अपनाया है वह काफी सुंदर है। जिन्हें आज तक अछूत कहा जाता रहा उनसे अपने इन पापों के लिए क्षमायाचना करनी चाहिए तथा उन्हें अपने जैसा इन्सान समझना, बिना अमृत छकाए, बिना कलमा पढ़ाए या शुद्धि किए उन्हें अपने में शामिल करके उनके हाथ से पानी पीना, यही उचित ढंग है। और आपस में खींचतान करना और व्यवहार में कोई भी हक न देना, कोई ठीक बात नहीं है।
     जब गाँवों में मजदूर-प्रचार शुरू हुआ उस समय किसानों को सरकारी आदमी यह बात समझा कर भड़काते थे कि देखो, यह भंगी-चमारों को सिर पर चढ़ा रहे हैं और तुम्हारा काम बंद करवाएंगे। बस किसान इतने में ही भड़क गए। उन्हें याद रहना चाहिए कि उनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती जब तक कि वे इन गरीबों को नीच और कमीन कह कर अपनी जूती के नीचे दबाए रखना चाहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि वह साफ नहीं रहते। इसका उत्तर साफ है- वे गरीब हैं। गरीबी का इलाज करो। ऊँचे-ऊँचे कुलों के गरीब लोग भी कोई कम गन्दे नहीं रहते। गन्दे काम करने का बहाना भी नहीं चल सकता, क्योंकि माताएँ बच्चों का मैला साफ करने से मेहतर तथा अछूत तो नहीं हो जातीं।
       लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें। हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की माँग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं। या तो साम्प्रदायिक भेद को झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कालेज, कुएँ तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतन्त्रता उन्हें दिलाएं। जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं। लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बालविवाह के विरुद्ध पेश किए बिल तथा मजहब के बहाने हाय-तौबा मचाई जाती है, वहाँ वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं?
      इसलिए हम मानते हैं कि उनके अपने जन-प्रतिनिधि हों। वे अपने लिए अधिक अधिकार माँगें। हम तो साफ कहते हैं कि उठो,अछूत कहलानेवाले असली जनसेवको तथा भाइयो! उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविन्दसिंह की फौज की असली शक्ति तुम्हीं थे! शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सके, जिस कारण उनका नाम आज भी जिन्दा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई हैं। तुम जो नित्यप्रति सेवा करके जनता के सुखों में बढ़ोतरी करके और जिन्दगी संभव बना कर यह बड़ा भारी अहसान कर रहे हो, उसे हम लोग नहीं समझते। लैण्ड-एलियेनेशन एक्ट के अनुसार तुम धन एकत्र कर भी जमीन नहीं खरीद सकते। तुम पर इतना जुल्म हो रहा है कि मिस मेयो मनुष्यों से भी कहती हैं- उठो, अपनी शक्ति पहचानो। संगठनबद्ध हो जाओ। असल में स्वयं कोशिश किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा। (Those who would be free must themselves strike the blow.) स्वतन्त्रता के लिए स्वाधीनता चाहनेवालों को यत्न करना चाहिए। 
     इन्सान की धीरे-धीरे कुछ ऐसी आदतें हो गई हैं कि वह अपने लिए तो अधिक अधिकार चाहता है, लेकिन जो उनके मातहत हैं उन्हें वह अपनी जूती के नीचे ही दबाए रखना चाहता है। कहावत है- ‘लातों के भूत बातों से नहीं मानते’। अर्थात् संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इन्कार करने की जुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की खुराक मत बनो। दूसरों के मुँह की ओर न ताको। लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है। यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और गरीबी का असली कारण है। इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना। उसकी चालों से बचना। तब सब कुछ ठीक हो जायेगा। तुम असली सर्वहारा हो… संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ भी हानि न होगी। बस गुलामी की जंजीरें कट जाएंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होनेवाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो। सोए हुए शेरो! उठो और बगावत खड़ी कर दो।
विद्रोही
भगत सिंह की ओर से जून 1928 के “किरती” पत्रिका में ‘विद्रोही’ के कलमी नाम के नीचे लिखा लेख।

8th April, 1929 “The Red Pamphlet” – Bhagat Singh and B.K. Dutt.

On the 8th April, 1929, the Viceroy’s proclamation, enacting the two Bills, was to be made, despite the fact that the majority of members were opposed to it, and had rather rejected in earlier.

THE HINDUSTAN SOCIALIST REPUBLICAN ARMY (NOTICE)

It takes a loud voice to make the deaf hear, with these immortal words uttered on a similar occasion by Valiant, a French anarchist martyr, do we strongly justify this action of ours.
Without repeating the humiliating history of the past ten years of the working of the reforms (Montague-Chelmsford Reforms) and without mentioning the insults hurled at the Indian nation through this House-the so-called Indian Parliament-we want to point out that, while the people expecting some more crumbs of reforms from the Simon Commission, and are ever quarreling over the distribution of the expected bones, the Government is thrusting upon us new repressive measures like the Public Safety and the Trade Disputes Bill, while reserving the Press Sedition Bill for the next session. The indiscriminate arrests of labour leaders working in the open field clearly indicate whither the wind blows.
In these extremely provocative circumstances, the Hindustan Socialist Republican Association, in all seriousness, realizing their full responsibility, had decided and ordered its army to do this particular action, so that a stop be put to this humiliating farce and to let the alien bureaucratic exploiters do what they wish, but they must be made to come before the public eve in their naked form.
Let the representatives of the people return to their constituencies and prepare the masses for the coming revolution, and let the Government know that while protesting against the Public Safety and Trade Disputes Bills and the callous murder of Lala Lajpat Rai, on behalf of the helpless Indian masses, we want to emphasize the lesson often repeated by history, that it is easy to kill individuals but you cannot kill the ideas. Great empires crumbled while the ideas survived, Bourbons and Czars fell, while the revolution marched ahead triumphantly.
We are sorry to admit that we who attach so great a sanctity to human life, who dream of a glorious future, when man will be enjoying perfect peace and full liberty, have been forced to shed human blood. But the sacrifice of individuals at the altar of the ‘Great Revolution’ that will bring freedom to all, rendering the exploitation of man by man impossible, is inevitable.
“Long Live the Revolution.” [B]
Signed,
Balraj [C]
Commander-in-Chief
The Red Pamphlet ; This document was primarily written by Bhagat Singh. On April 8, 1929, Bhagat Singh and Batukeshwar Dutt showered copies of the leaflet on the floor of Central Assembly Hall in New Delhi after tossing two bombs into the Assembly Hall corridors.
[B] This phrase (translated from “Inquilab Zindabad!” )became one of the most enduring slogans of the Indian Independence Movement. Bhagat Singh and Batukeshwar Dutta repeated the slogan at their June 1929 trial on charges related to the bomb-throwing incident.
[C] “Balraj” was the pen name for the Commander-in-chief of the Hindustan Socialist Republican Army, Chander Shekhar Azad.

ਮੈਂ ਨਾਸਤਿਕ ਕਿਉਂ ਹਾਂ ?

ਨਵੀਂ ਸਮੱਸਿਆ ਖੜ੍ਹੀ ਹੋ ਗਈ ਹੈ: ਕੀ ਸਰਬ ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ, ਸਰਬ ਵਿਆਪਕ ਤੇ ਸਰਬ ਹਿਤਕਾਰੀ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਮੇਰਾ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ, ਮੇਰੇ ਅਹੰਕਾਰ ਕਰ ਕੇ ਹੈ? ਮੈਨੂੰ ਕਦੇ ਚਿੱਤ-ਚੇਤਾ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਕਿਸੇ ਵੇਲੇ ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ। ਆਪਣੇ ਕੁਝ ਦੋਸਤਾਂ ਨਾਲ ਗੱਲਬਾਤ ਕਰਨ ਤੋਂ ਪਤਾ ਲੱਗਾ ਕਿ ਮੇਰੇ ਕੁਝ ਦੋਸਤਾਂ (ਜੇ ਦੋਸਤੀ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਗ਼ਲਤ ਨਾ ਹੋਵੇ) ਨੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਥੋੜ੍ਹੇ ਜਿਹੇ ਮੇਲ-ਜੋਲ ਮਗਰੋਂ (ਭਾਈ ਰਣਧੀਰ ਸਿੰਘ ਵੱਲ ਇਸ਼ਾਰਾ) ਹੀ ਇਹ ਸਿੱਟਾ ਕੱਢ ਲਿਆ ਕਿ ਮੇਰਾ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋਣਾ ਮੇਰੀ ਹਿਮਾਕਤ ਹੈ ਤੇ ਇਹ ਵੀ ਕਿ ਮੇਰਾ ਅਹੰਕਾਰ ਹੀ ਮੇਰੇ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਾ ਕਾਰਨ ਹੈ। ਫਿਰ ਵੀ ਸਮੱਸਿਆ ਤਾਂ ਗੰਭੀਰ ਹੀ ਹੈ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਇਨਸਾਨੀ ਵਤੀਰਿਆਂ ਤੋਂ ਉਪਰ ਹੋਣ ਦਾ ਮੈਂ ਦਾਅਵਾ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ। ਮੈਂ ਵੀ ਆਖਰ ਇਨਸਾਨ ਹਾਂ, ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕੁਝ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਕੋਈ ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਹੋਣ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਅੰਦਰ ਵੀ ਇਕ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਹੈ। ਅਹੰਕਾਰ (vanity) ਮੇਰੇ ਸੁਭਾਅ ਦਾ ਵੀ ਅੰਗ ਹੈ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਸਾਥੀਆਂ ਵਿਚ ਤਾਨਾਸ਼ਾਹ ਕਰ ਕੇ ਜਾਣਿਆ ਜਾਂਦਾ ਸਾਂ। ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਮੇਰਾ ਦੋਸਤ ਬੀ.ਕੇ. ਦੱਤ ਕਦੀ ਕਦੀ ਤਾਨਾਸ਼ਾਹ ਕਹਿੰਦਾ ਹੁੰਦਾ ਸੀ। ਕਈ ਮੌਕਿਆਂ ਉਤੇ ਮੈਨੂੰ ਹੈਂਕੜਬਾਜ਼ ਵੀ ਕਿਹਾ ਗਿਆ। ਕੁਝ ਦੋਸਤ ਪੂਰੀ ਗੰਭੀਰਤਾ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਉਤੇ ਦੋਸ਼ ਲਾਉਂਦੇ ਰਹੇ ਕਿ ਮੈਂ ਦੂਜਿਆਂ 'ਤੇ ਆਪਣੀ ਰਾਇ ਮੜ੍ਹਦਾ ਹਾਂ ਤੇ ਆਪਣੀ ਗੱਲ ਮੰਨਵਾ ਲੈਂਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਇਨਕਾਰ ਨਹੀਂ ਕਰਦਾ ਕਿ ਇਹ ਗੱਲ ਕਿਸੇ ਹੱਦ ਤੱਕ ਸਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਨੂੰ ਅਹੰਵਾਦ (egotism) ਵੀ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਜਿਥੋਂ ਤੱਕ ਸਮਾਜ ਦੀਆਂ ਰੂੜ੍ਹੀਵਾਦੀ ਰਵਾਇਤਾਂ ਦੇ ਵਿਰੋਧ ਦਾ ਸਵਾਲ ਹੈ, ਮੈਂ ਅਹੰਕਾਰੀ ਹਾਂ, ਪਰ ਇਹ ਜ਼ਾਤੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ। ਇਹ ਆਪਣੇ ਵਿਚਾਰਾਂ 'ਤੇ ਮਾਣ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੈ। ਇਸ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਨਹੀਂ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ। ਅਭਿਮਾਨ, ਜਾਂ ਕਹਿ ਲਓ ਅਹੰਕਾਰ ਕਿਸੇ ਮਨੁੱਖ ਵਿਚ ਲੋੜੋਂ ਵੱਧ ਆਪਣੇ ਆਪ ਮਾਣ ਦਾ ਪ੍ਰਗਟਾਵਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਕੀ ਮੈਂ ਬੇਲੋੜੇ ਮਾਣ ਕਰ ਕੇ ਨਾਸਤਿਕ ਬਣਿਆ ਹਾਂ, ਜਾਂ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਬਾਰੇ ਡੂੰਘਾ ਮੁਤਾਲਿਆ ਤੇ ਗੰਭੀਰ ਸੋਚ ਵਿਚਾਰ ਮਗਰੋਂ ਨਾਸਤਿਕ ਬਣਿਆ ਹਾਂ? ਇਹ ਸਵਾਲ ਹੈ ਜਿਸ ਬਾਰੇ ਮੈਂ ਇਥੇ ਚਰਚਾ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ; ਇਸ ਤੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਇਹ ਨਬੇੜਾ ਕਰ ਲਈਏ ਕਿ ਅਭਿਮਾਨ (egotism) ਤੇ ਅਹੰਕਾਰ (vanity) ਦੋ ਅਲੱਗ ਅਲੱਗ ਗੱਲਾਂ ਹੁੰਦੀਆਂ ਹਨ।
ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਦੀ ਹੁਣ ਤੱਕ ਸਮਝ ਨਹੀਂ ਆਈ ਕਿ ਬੇਲੋੜਾ ਮਾਣ ਜਾਂ ਫੋਕਾ ਅਭਿਮਾਨ ਮਨੁੱਖ ਲਈ ਆਸਤਿਕਤਾ ਦੇ ਰਾਹ ਦਾ ਰੋੜਾ ਕਿਵੇਂ ਬਣ ਸਕਦੇ ਹਨ। ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਸੱਚੀਂ-ਮੁੱਚੀਂ ਦੇ ਮਹਾਨ ਬੰਦੇ ਦੀ ਮਹਾਨਤਾ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹਾਂ, ਬਸ਼ਰਤਿ ਮੈਨੂੰ ਐਵੇਂ ਰਾਹ ਜਾਂਦੇ ਹੀ ਸ਼ੁਹਰਤ ਹੱਥ ਲੱਗ ਗਈ ਹੋਵੇ, ਜਾਂ ਮਹਾਨ ਹੋਣ ਲਈ ਸੱਚੀਂ-ਮੁੱਚੀਂ ਲੋੜੀਂਦੇ ਗੁਣ ਹੀ ਮੇਰੇ ਵਿਚ ਨਾ ਹੋਣ। ਇਹ ਗੱਲ ਸਮਝ ਪੈਂਦੀ ਹੈ, ਪਰ ਇਹ ਕਿਵੇਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕੋਈ ਆਸਤਿਕ ਆਪਣੇ ਅਹੰਕਾਰ ਕਰ ਕੇ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋ ਜਾਵੇ! ਸਿਰਫ ਦੋ ਗੱਲਾਂ ਹੋ ਸਕਦੀਆਂ ਹਨ: ਜਾਂ ਤਾਂ ਮਨੁੱਖ ਖੁਦ ਨੂੰ ਖੁਦਾ ਦਾ ਰਕੀਬ ਸਮਝਣ ਲੱਗੇ, ਤੇ ਜਾਂ ਫਿਰ ਖੁਦ ਹੀ ਖੁਦਾ ਬਣ ਬੈਠੇ। ਦੋਵੇਂ ਹਾਲਾਤ ਵਿਚ ਉਹ ਸਹੀ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ। ਪਹਿਲੀ ਸੂਰਤ ਵਿਚ ਉਹ ਰਕੀਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ। ਦੂਸਰੀ ਸੂਰਤ ਵਿਚ ਵੀ ਉਹ ਸੁਚੇਤ ਸੱਤਾ (being) ਦੀ ਹੋਂਦ ਨੂੰ ਮੰਨਦਾ ਹੈ ਜੋ ਪਰਦੇ ਪਿਛਿਉਂ ਸਾਰੀ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਨੂੰ ਚਲਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਇਸ ਦੀ ਸਾਡੇ ਲਈ ਕੋਈ ਅਹਿਮੀਅਤ ਨਹੀਂ ਕਿ ਉਹ ਖੁਦ ਨੂੰ ਖੁਦਾ ਸਮਝਦਾ ਹੈ, ਜਾਂ ਖੁਦਾ ਨੂੰ ਖੁਦ ਤੋਂ ਅਲੱਗ ਕੋਈ ਪਰਮ-ਸੱਤਾ ਮੰਨਦਾ ਹੈ। ਅਸਲ ਨੁਕਤਾ ਇਹ ਹੈ- ਦੋਵੇਂ ਹਾਲਾਤ ਵਿਚ ਉਹਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਾਇਮ ਰਹਿੰਦਾ ਹੈ। ਉਹ ਕਿਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਵੀ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ। ਇਹੋ ਮੈਂ ਆਖਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਉਪਰਲੀਆਂ ਦੋਹਾਂ ਕਿਸਮਾਂ ਵਿਚ ਨਹੀਂ ਆਉਂਦਾ ।
ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਵੀ ਸਰਬ ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਜਾਂ ਸਰਬੋਪਰੀ-ਸੱਤਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੂਲੋਂ ਹੀ ਇਨਕਾਰੀ ਹਾਂ। ਇੰਜ ਕਿਉਂ ਹੈ, ਮੈਂ ਇਹਦੇ ਬਾਰੇ ਅੱਗੇ ਚੱਲ ਕੇ ਚਰਚਾ ਕਰਾਂਗਾ। ਇਥੇ ਮੈਂ ਇਹ ਗੱਲ ਸਪਸ਼ਟ ਕਰ ਦੇਣੀ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਮੈਂ ਅਹੰਕਾਰ ਕਰ ਕੇ ਨਾਸਤਿਕਤਾ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦਾ ਧਾਰਨੀ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ। ਨਾ ਤਾਂ ਮੈਂ ਖੁਦਾ ਦਾ ਰਕੀਬ ਹਾਂ, ਨਾ ਕੋਈ ਰੱਬੀ ਅਵਤਾਰ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਆਪ ਪਰਮਾਤਮਾ ਹਾਂ। ਇਕ ਗੱਲ ਤਾਂ ਪੱਕੀ ਹੈ ਕਿ ਅਹੰਕਾਰ ਕਾਰਨ ਮੈਂ ਇਹ ਸੋਚਣੀ ਨਹੀਂ ਅਪਨਾਈ। ਇਸ ਇਲਜ਼ਾਮ ਦਾ ਜਵਾਬ ਦੇਣ ਲਈ ਮੈਂ ਤੱਥ ਬਿਆਨ ਕਰਦਾ ਹਾਂ। ਮੇਰੇ ਦੋਸਤ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਦਿੱਲੀ ਬੰਬ ਅਤੇ ਲਾਹੌਰ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਕੇਸਾਂ ਦੌਰਾਨ ਮੈਨੂੰ ਜਿਹੜੀ ਬੇਲੋੜੀ ਸ਼ੁਹਰਤ ਮਿਲੀ, ਉਸ ਕਾਰਨ ਮੇਰੇ ਵਿਚ ਫੋਕੀ ਸ਼ਾਨ ਆ ਗਈ ਹੈ। ਆਓ, ਆਪਾਂ ਦੇਖੀਏ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕਥਨ ਕਿਥੋਂ ਤੱਕ ਠੀਕ ਹਨ।
ਪਿਛੇ ਜਿਹੇ ਵਾਪਰੀਆਂ ਘਟਨਾਵਾਂ ਕਾਰਨ ਮੈਂ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ, ਮੈਂ ਤਾਂ ਉਦੋਂ ਹੀ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮੰਨਣੋਂ ਹਟ ਗਿਆ ਸੀ, ਜਦ ਮੈਂ ਨਾਮਾਲੂਮ ਨੌਜਵਾਨ ਸੀ, ਜਦ ਮੇਰੇ ਉਪਰੋਕਤ ਦੋਸਤ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਸੁਚੇਤ ਵੀ ਨਹੀਂ ਸਨ। ਘੱਟੋ-ਘੱਟ ਕਾਲਜ ਦਾ ਕੋਈ ਵਿਦਿਆਰਥੀ ਇੰਨਾ ਅਭਿਮਾਨੀ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਕਿ ਉਹ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋ ਜਾਏ। ਕੁਝ ਪ੍ਰੋਫੈਸਰ ਭਾਵੇਂ ਮੈਨੂੰ ਪਸੰਦ ਕਰਦੇ ਸਨ ਤੇ ਕੁਝ ਨਾਪਸੰਦ, ਪਰ ਮੈਂ ਕਦੇ ਵੀ ਮਿਹਨਤੀ ਮੁੰਡਾ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਅਹੰਕਾਰ ਵਰਗੇ ਵਿਚਾਰ ਰੱਖਣ ਦਾ ਮੈਨੂੰ ਕੋਈ ਮੌਕਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲਿਆ ਸੀ। ਮੈਂ ਬਹੁਤ ਸੰਙਾਊ ਸੁਭਾਅ ਵਾਲਾ ਤੇ ਭਵਿੱਖ ਬਾਰੇ ਉਲਝਿਆ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਮੁੰਡਾ ਸੀ ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਮੈਂ ਪੱਕਾ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਬਾਬਾ ਜੀ ਦੇ ਅਸਰ ਹੇਠ ਵੱਡਾ ਹੋਇਆ ਸੀ ਤੇ ਉਹ ਪੱਕੇ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜੀ ਸਨ। ਕੋਈ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜੀ ਹੋਰ ਤਾਂ ਸਭ ਕੁਝ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ। ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਪ੍ਰਾਇਮਰੀ ਦੀ ਪੜ੍ਹਾਈ ਮੁਕਾ ਕੇ ਲਾਹੌਰ ਦੇ ਡੀਏਵੀ ਸਕੂਲ ਵਿਚ ਦਾਖ਼ਲ ਹੋ ਗਿਆ ਅਤੇ ਇਹਦੇ ਬੋਰਡਿੰਗ ਹਾਊਸ ਵਿਚ ਪੂਰਾ ਇਕ ਸਾਲ ਰਿਹਾ। ਉਥੇ ਸਵੇਰ ਤੇ ਤ੍ਰਿਕਾਲ ਸੰਧਿਆ ਦੀਆਂ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾਵਾਂ ਤੋਂ ਛੁੱਟ ਮੈਂ ਘੰਟਿਆਂ-ਬੱਧੀ ਗਾਇਤ੍ਰੀ ਮੰਤਰ ਦਾ ਜਾਪ ਕਰਦਾ ਸੀ। ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਸ਼ਰਧਾਲੂ ਸੀ। ਫਿਰ ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਪਿਤਾ ਜੀ ਨਾਲ ਰਹਿਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਧਾਰਮਿਕ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀਕੋਣ ਉਦਾਰ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀਆਂ ਸਿੱਖਿਆਵਾਂ ਸਦਕਾ ਹੀ ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਆਦਰਸ਼ ਨੂੰ ਅਰਪੀ, ਪਰ ਉਹ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਸਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਅਕੀਦਾ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਉੁਹ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਕਰਨ ਲਈ ਕਹਿੰਦੇ ਹੁੰਦੇ ਸਨ। ਸੋ, ਮੇਰੀ ਪਰਵਰਿਸ਼ ਇਸ ਢੰਗ ਨਾਲ ਹੋਈ।
ਨਾਮਿਲਵਰਤਨ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਦੌਰਾਨ ਮੈਂ ਨੈਸ਼ਨਲ ਕਾਲਜ ਵਿਚ ਦਾਖ਼ਲ ਹੋ ਗਿਆ। ਉਥੇ ਹੀ ਮੈਂ ਸਾਰੀਆਂ ਧਾਰਮਿਕ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਬਾਰੇ, ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਰੱਬ ਬਾਰੇ ਵੀ ਖੁੱਲ੍ਹੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਸੋਚਣਾ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਬਾਰੇ ਵਿਚਾਰ ਚਰਚਾ ਕਰਨੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ, ਪਰ ਮੇਰਾ ਉਦੋਂ ਵੀ ਰੱਬ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਯਕੀਨ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਮੈਂ ਦਾੜ੍ਹੀ ਕੇਸ ਰੱਖ ਲਏ ਸੀ, ਪਰ ਤਾਂ ਵੀ ਮੈਂ ਸਿੱਖੀ ਦੇ ਮਿਥਿਹਾਸ ਜਾਂ ਸਿਧਾਂਤ ਜਾਂ ਕਿਸੇ ਹੋਰ ਧਰਮ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨਾ ਕਰ ਸਕਿਆ, ਪਰ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਵਿਚ ਮੇਰਾ ਪੱਕਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ।
ਫਿਰ ਮੈਂ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਾਰਟੀ ਵਿਚ ਸ਼ਾਮਲ ਹੋ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਜਿਸ ਪਹਿਲੇ ਆਗੂ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ, ਉਹ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋਣ ਦਾ ਹੌਸਲਾ ਤੱਕ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ ਸੀ, ਭਾਵੇਂ ਉਹ ਇਹਦੇ ਬਾਰੇ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸੁਚੇਤ ਨਹੀਂ ਸੀ। ਮੈਂ ਉਹਦੇ ਕੋਲੋਂ ਰੱਬ ਬਾਰੇ ਵਾਰ ਵਾਰ ਪੁੱਛਣਾ ਤਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਆਖ ਛੱਡਣਾ: "ਜਦ ਤੇਰਾ ਦਿਲ ਕਰੇ, ਰੱਬ ਨੂੰ ਧਿਆ ਲਿਆ ਕਰ।" ਨਾਸਤਿਕਤਾ ਦੇ ਸਿਧਾਂਤ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲਈ ਜੋ ਹੌਸਲਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ, ਇਹ ਉਹ ਹੌਸਲੇ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਨਾਸਤਿਕਤਾ ਹੈ। ਮੈਂ ਜਿਸ ਦੂਜੇ ਆਗੂ ਨੂੰ ਮਿਲਿਆ, ਉਹਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਪੱਕਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਉਹਦਾ ਨਾਂ ਦੱਸਦਾਂ- ਮਾਣਯੋਗ ਕਾਮਰੇਡ ਸਚੀਂਦਰ ਨਾਥ ਸਾਨਿਆਲ ਜੋ ਹੁਣ ਕਰਾਚੀ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਕੇਸ ਸਬੰਧੀ ਉਮਰ ਕੈਦ ਭੁਗਤ ਰਹੇ ਹਨ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਸਿੱਧ ਤੇ ਇਕੋ ਇਕ ਕਿਤਾਬ 'ਬੰਦੀ ਜੀਵਨ' ਵਿਚ ਪਹਿਲੇ ਸਫ਼ੇ ਤੋਂ ਹੀ ਰੱਬ ਦੀ ਸ਼ਾਨ ਦੀ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਮਹਿਮਾ ਗਾਈ ਗਈ ਹੈ। ਇਸ ਖੂਬਸੂਰਤ ਕਿਤਾਬ ਦੇ ਦੂਜੇ ਭਾਗ ਦੇ ਆਖਰੀ ਸਫ਼ੇ ਵਿਚ ਉਹਦੀ ਵੇਦਾਂਤਵਾਦ ਕਾਰਨ ਰੱਬ ਦੀ ਅਧਿਆਤਮਕ ਮਹਿਮਾ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਦਾ ਸਾਰ ਹੈ। ਇਸਤਗਾਸੇ ਦੀ ਕਹਾਣੀ ਮੁਤਾਬਕ ਜੋ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਰਚਾ 28 ਜਨਵਰੀ 1925 ਨੂੰ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਭਰ ਵਿਚ ਵੰਡਿਆ ਗਿਆ ਸੀ, ਉਹ ਇਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਦਿਮਾਗ ਦਾ ਸਿੱਟਾ ਸੀ। ਜਿਵੇਂ ਹੁੰਦਾ ਹੀ ਹੈ ਕਿ ਗੁਪਤ ਸਰਗਰਮੀ ਵਿਚ ਕੋਈ ਉਘਾ ਆਗੂ ਆਪਣੇ ਵਿਚਾਰ ਪ੍ਰਗਟਾਉਂਦਾ ਹੈ ਜੋ ਉਹਨੂੰ ਬੜੇ ਪਿਆਰੇ ਹੁੰਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਦੂਜੇ ਕਾਰਕੁਨਾਂ ਨੂੰ ਮਤਭੇਦਾਂ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਸਹਿਮਤੀ ਪ੍ਰਗਟਾਉਣੀ ਪੈਂਦੀ ਹੈ।
ਉਸ ਪਰਚੇ ਵਿਚ ਇਕ ਪੂਰਾ ਪੈਰਾ ਸਰਵੇਸ਼ਰ ਤੇ ਉਹਦੀਆਂ ਲੀਲਾਵਾਂ ਬਾਰੇ ਸੀ। ਇਹ ਰਹੱਸਵਾਦ ਹੈ। ਮੈਂ ਆਖਣਾ ਇਹ ਚਾਹੁੰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਉਦੋਂ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਾਰਟੀ ਵਿਚ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋਣ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਪੈਦਾ ਵੀ ਨਹੀਂ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਕਾਕੋਰੀ ਦੇ ਉਘੇ ਚਾਰ ਸ਼ਹੀਦਾਂ ਨੇ ਆਪਣਾ ਅੰਤਿਮ ਦਿਨ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ/ਦੁਆ ਕਰਦਿਆਂ ਲੰਘਾਇਆ ਸੀ। ਰਾਮ ਪ੍ਰਸ਼ਾਦ ਬਿਸਮਿਲ ਪੱਕੇ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜੀ ਸਨ। ਸਮਾਜਵਾਦ ਤੇ ਸਾਮਵਾਦ ਦੇ ਖੇਤਰ ਵਿਚ ਆਪਣੇ ਡੂੰਘੇ ਅਧਿਐਨ ਦੇ ਬਾਵਜੂਦ ਰਾਜਨ ਲਾਹਿੜੀ ਕੋਲੋਂ ਉਪਨਿਸ਼ਦਾਂ ਦੇ ਮੰਤਰ ਉਚਾਰਨ ਤੇ ਗੀਤਾ ਦਾ ਪਾਠ ਕਰਨ ਤੋਂ ਰਿਹਾ ਨਾ ਗਿਆ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰਿਆਂ ਵਿਚ ਮੈਂ ਇਕੋ ਬੰਦਾ ਦੇਖਿਆ ਸੀ ਜਿਹਨੇ ਕਦੇ ਵੀ ਪ੍ਰਾਰਥਨਾ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਸੀ ਤੇ ਉਹ ਕਿਹਾ ਕਰਦਾ ਸੀ, "ਧਾਰਮਿਕ ਫਲਸਫਾ ਮਨੁੱਖੀ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਜਾਂ ਸੀਮਤ ਗਿਆਨ ਦਾ ਸਿੱਟਾ ਹੈ।" ਇਹ ਬੰਦਾ ਵੀ ਉਮਰ ਕੈਦ ਭੁਗਤ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਪਰ ਇਹਨੂੰ ਵੀ ਕਦੇ ਆਖਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਨਾ ਪਈ ਕਿ ਰੱਬ ਨਹੀਂ ਹੈ।
ਉਸ ਅਰਸੇ ਤੱਕ ਮੈਂ ਸਿਰਫ਼ ਰੋਮਾਂਟਿਕ ਵਿਚਾਰਵਾਦੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਸੀ। ਉਦੋਂ ਤੱਕ ਤਾਂ ਅਸੀਂ ਸਿਰਫ਼ ਅਨੁਆਈ ਹੀ ਸਾਂ। ਫਿਰ ਸਾਰੀ ਜ਼ਿੰਮੇਵਾਰੀ ਆਪਣੇ ਮੋਢਿਆਂ ਉਤੇ ਲੈਣ ਦਾ ਵੇਲਾ ਆਇਆ। ਕੁਝ ਚਿਰ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਅਟੱਲ ਵਿਰੋਧ ਕਾਰਨ ਇਹਦੀ ਹੋਂਦ ਹੀ ਖਤਰੇ ਵਿਚ ਸੀ। ਜੋਸ਼ ਨਾਲ ਭਰੇ ਕਾਮਰੇਡ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ ਆਗੂ ਵੀ ਮਜ਼ਾਕ ਉਡਾਉਣ ਲੱਗੇ। ਕੁਝ ਚਿਰ ਮੈਨੂੰ ਵੀ ਸੰਸਾ ਰਿਹਾ ਕਿ ਕਿਸੇ ਦਿਨ ਮੈਨੂੰ ਵੀ ਆਪਣੀ ਪਾਰਟੀ ਦੇ ਪ੍ਰੋਗਰਾਮ ਦੀ ਨਿਸਫਲਤਾ ਦਾ ਯਕੀਨ ਹੋ ਜਾਏਗਾ। ਇਹ ਮੇਰੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਆਇਆ ਵੱਡਾ ਮੋੜ ਸੀ। 'ਅਧਿਐਨ ਕਰਨ' ਦੇ ਅਹਿਸਾਸ ਦੀਆਂ ਤਰੰਗਾਂ ਮੇਰੇ ਮਨ ਵਿਚ ਉਭਰਦੀਆਂ ਰਹੀਆਂ। ਅਧਿਐਨ ਕਰ, ਤਾਂ ਕਿ ਤੂੰ ਆਪਣੇ ਵਿਰੋਧੀਆਂ ਦੀਆਂ ਦਲੀਲਾਂ ਨਾਲ ਜਵਾਬ ਦੇ ਸਕਣ ਦੇ ਯੋਗ ਹੋ ਜਾਏਂ। ਆਪਣੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਵਿਚ ਦਲੀਲਾਂ ਨਾਲ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਲੈਸ ਕਰਨ ਲਈ ਅਧਿਐਨ ਕਰ!
ਮੈਂ ਅਧਿਐਨ ਕਰਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ। ਮੇਰੇ ਪਹਿਲੇ ਅਕੀਦੇ ਅਤੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸਾਂ ਵਿਚ ਬਹੁਤ ਵੱਡੀ ਤਬਦੀਲੀ ਆ ਗਈ। ਸਾਥੋਂ ਪਹਿਲਾਂ ਦੇ ਇਨਕਲਾਬੀਆਂ ਵਿਚ ਸਿਰਫ਼ ਤਸ਼ੱਦਦ ਦੇ ਤੌਰ-ਤਰੀਕਿਆਂ ਦਾ ਰੋਮਾਂਸ ਇੰਨਾ ਭਾਰੂ ਸੀ, ਹੁਣ ਉਹਦੀ ਥਾਂ ਗੰਭੀਰ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨੇ ਲੈ ਲਈ। ਹੁਣ ਰਹੱਸਵਾਦ ਵਾਸਤੇ ਅੰਧ-ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਵਾਸਤੇ ਕੋਈ ਥਾਂ ਨਾ ਰਹੀ। ਯਥਾਰਥਵਾਦ ਸਾਡਾ ਸਿਧਾਂਤ ਹੋ ਗਿਆ। ਸਖਤ ਲੋੜ ਵੇਲੇ ਤਾਕਤ ਦੀ ਵਰਤੋਂ ਜਾਇਜ਼ ਹੈ, ਪਰ ਅਹਿੰਸਾ ਸਾਰੀਆਂ ਜਨਤਕ ਲਹਿਰਾਂ ਦੀ ਅਟੁੱਟ ਨੀਤੀ ਹੈ। ਮੈਂ ਤੌਰ-ਤਰੀਕਿਆਂ ਬਾਰੇ ਕਾਫੀ ਆਖ ਚੁੱਕਾ ਹਾਂ। ਸਭ ਤੋਂ ਅਹਿਮ ਇਹ ਗੱਲ ਸੀ ਕਿ ਜਿਸ ਆਦਰਸ਼ ਵਾਸਤੇ ਅਸੀਂ ਜੂਝਣਾ ਹੈ, ਉਹਦਾ ਸਪਸ਼ਟ ਸੰਕਲਪ ਸਾਡੇ ਸਾਹਮਣੇ ਹੋਵੇ। ਕਿਉਂਕਿ ਐਕਸ਼ਨ ਵਜੋਂ ਕੋਈ ਖਾਸ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਨਹੀਂ ਹੋ ਰਹੀਆਂ, ਇਸ ਲਈ ਮੈਨੂੰ ਸੰਸਾਰ ਇਨਕਲਾਬ ਦੇ ਵੱਖ ਵੱਖ ਆਦਰਸ਼ਾਂ ਦੇ ਅਧਿਐਨ ਵਾਸਤੇ ਕਾਫ਼ੀ ਮੌਕਾ ਮਿਲ ਗਿਆ। ਮੈਂ ਅਰਾਜਕਤਾਵਾਦੀ ਆਗੂ ਬਾਕੂਨਿਨ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਪਿਤਾਮਾ ਮਾਰਕਸ ਦੀਆਂ ਕੁਝ ਲਿਖਤਾਂ ਪੜ੍ਹੀਆਂ ਤੇ ਲੈਨਿਨ, ਟਰਾਟਸਕੀ ਤੇ ਆਪਣੇ ਦੇਸ਼ਾਂ ਵਿਚ ਸਫ਼ਲ ਇਨਕਲਾਬ ਲਿਆਉਣ ਵਾਲੇ ਹੋਰ ਵਿਅਕਤੀਆਂ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਿਆ। ਇਹ ਸਾਰੇ ਨਾਸਤਿਕ ਸਨ।
ਬਾਕੂਨਿਨ ਦੀ ਕਿਤਾਬ 'ਗੌਡ ਐਂਡ ਸਟੇਟ' (ਰੱਬ ਤੇ ਰਿਆਸਤ) ਭਾਵੇਂ ਅਧੂਰੀ ਜਿਹੀ ਹੈ, ਪਰ ਇਹ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਦਾ ਦਿਲਚਸਪ ਅਧਿਐਨ ਹੈ। ਇਸ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਮੈਨੂੰ ਨਿਰਲੰਬਾ ਸਵਾਮੀ ਦੀ ਲਿਖੀ ਕਿਤਾਬ 'ਕਾਮਨ ਸੈਂਸ' (ਸਾਧਾਰਨ ਵਿਗਿਆਨ) ਹੱਥ ਲੱਗੀ। ਇਸ ਕਿਤਾਬ ਵਿਚ ਅਧਿਆਤਮਕ ਨਾਸਤਿਕਵਾਦ ਸੀ। ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਵਿਚ ਮੇਰੀ ਬਹੁਤ ਜ਼ਿਆਦਾ ਦਿਲਚਸਪੀ ਹੋ ਗਈ। 1926 ਦੇ ਅਖੀਰ ਤੱਕ ਮੇਰਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਪੱਕਾ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ ਕਿ ਬ੍ਰਹਿਮੰਡ ਦੇ ਸਿਰਜਣ, ਪਾਲਣਹਾਰ ਤੇ ਸਰਬ ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਦੀ ਹੋਂਦ ਦਾ ਸਿਧਾਂਤ ਬੇਬੁਨਿਆਦ ਹੈ। ਮੈਂ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਬਾਰੇ ਆਪਣੇ ਦੋਸਤਾਂ ਨਾਲ ਬਹਿਸ ਕਰਨੀ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀ। ਮੈਂ ਐਲਾਨੀਆਂ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋ ਚੁੱਕਾ ਸੀ। ਨਾਸਤਿਕ ਹੋਣ ਦਾ ਅਰਥ ਮੈਂ ਹੇਠਾਂ ਬਿਆਨ ਕਰਦਾ ਹਾਂ।
ਮਈ 1927 ਵਿਚ ਮੈਂ ਲਾਹੌਰ ਵਿਚ ਗ੍ਰਿਫ਼ਤਾਰ ਹੋਇਆ। ਮੇਰੀ ਗ੍ਰਿਫਤਾਰੀ ਮੇਰੇ ਲਈ ਬੜੀ ਹੈਰਾਨੀ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਸੀ। ਮੈਨੂੰ ਅਸਲੋਂ ਹੀ ਕੋਈ ਸਾਰ ਨਹੀਂ ਸੀ ਕਿ ਪੁਲਿਸ ਮੇਰੇ ਪਿਛੇ ਲੱਗੀ ਹੋਈ ਹੈ। ਜਦ ਮੈਂ ਕਿਸੇ ਬਾਗ ਵਿਚ ਦੀ ਲੰਘ ਰਿਹਾ ਸੀ ਤਾਂ ਅਚਾਨਕ ਮੈਂ ਕੀ ਦੇਖਿਆ ਕਿ ਪੁਲਿਸ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਘੇਰਿਆ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਮੈਂ ਉਦੋਂ ਬਹੁਤ ਤਹੱਮਲ ਨਾਲ ਪੇਸ਼ ਆਇਆ। ਮੈਨੂੰ ਕੋਈ ਘਬਰਾਹਟ ਨਾ ਹੋਈ ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਮੈਂ ਉਤੇਜਿਤ ਹੋਇਆ। ਮੈਨੂੰ ਪੁਲਿਸ ਹਿਰਾਸਤ ਵਿਚ ਲਿਆ ਗਿਆ। ਅਗਲੇ ਦਿਨ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਰੇਲਵੇ ਪੁਲਿਸ ਜੇਲ੍ਹ ਵਿਚ ਲੈ ਗਏ ਜਿਥੇ ਮੈਂ ਪੂਰਾ ਮਹੀਨਾ ਕੱਟਿਆ। ਪੁਲਿਸ ਅਫ਼ਸਰਾਂ ਨਾਲ ਕਿੰਨੇ ਦਿਨਾਂ ਦੀ ਗੱਲਬਾਤ ਮਗਰੋਂ ਮੈਂ ਅੰਦਾਜ਼ਾ ਲਾਇਆ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕਾਕੋਰੀ ਪਾਰਟੀ ਨਾਲ ਮੇਰੇ ਸਬੰਧਾਂ ਤੇ ਇਨਕਲਾਬੀ ਲਹਿਰ ਨਾਲ ਸਬੰਧਤ ਮੇਰੀਆਂ ਹੋਰ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਬਾਰੇ ਕੁਝ ਜਾਣਕਾਰੀ ਹੈ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ (ਕਾਕੋਰੀ) ਮੁਕੱਦਮੇ ਦੀ ਸਮਾਇਤ ਦੌਰਾਨ ਮੈਂ ਲਖਨਊ ਵਿਚ ਸੀ, ਕਿ ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ (ਕਾਕੋਰੀ ਮੁਲਜ਼ਮਾਂ) ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਫਰਾਰ ਕਰਨ ਦੀ ਕੋਈ ਵਿਉਂਤ ਬਣਾਈ ਸੀ, ਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਨਜ਼ੂਰੀ ਮਿਲਣ ਮਗਰੋਂ ਅਸੀਂ ਕੁਝ ਬੰਬ ਇਕੱਠੇ ਕੀਤੇ ਸਨ ਤੇ ਇਹ, ਕਿ ਅਜ਼ਮਾਇਸ਼ ਵਾਸਤੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਵਿਚੋਂ ਇਕ ਬੰਬ  1926ਦੇ ਦੁਸਹਿਰੇ ਦੇ ਮੌਕੇ ਭੀੜ ਵਿਚ ਸੁੱਟਿਆ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਮੇਰੇ ਹਿੱਤ ਵਾਸਤੇ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਵੀ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਜੇ ਮੈਂ ਇਨਕਲਾਬੀ ਪਾਰਟੀ ਦੀਆਂ ਸਰਗਰਮੀਆਂ ਬਾਰੇ ਕੋਈ ਬਿਆਨ ਦੇਵਾਂ ਤਾਂ ਮੈਨੂੰ ਕੈਦ ਨਹੀਂ ਹੋਵੇਗੀ, ਸਗੋਂ ਉਹ ਮੈਨੂੰ ਰਿਹਾ ਕਰ ਦੇਣਗੇ ਤੇ ਇਨਾਮ ਦੇਣਗੇ। ਮੈਨੂੰ ਅਦਾਲਤ ਵਿਚ ਵਾਅਦਾ-ਮੁਆਫ਼ ਵਜੋਂ ਪੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਕਰਨਗੇ। ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਇਸ ਤਜਵੀਜ਼ ਉਤੇ ਹੱਸ ਛੱਡਿਆ। ਇਹ ਸਰਾਸਰ ਧੋਖਾ ਸੀ। ਸਾਡੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਵਾਲੇ ਲੋਕ ਕਦੇ ਵੀ ਆਪਣੇ ਮਾਸੂਮ ਲੋਕਾਂ ਉਤੇ ਬੰਬ ਨਹੀਂ ਸੁੱਟਦੇ।
ਇਕ ਦਿਨ ਸਵੇਰੇ ਮਿਸਟਰ ਨੀਊਮੈਨ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਆਇਆ ਜੋ ਉਨ੍ਹੀਂ ਦਿਨੀਂ ਸੀਆਈਡੀ ਦਾ ਸੀਨੀਅਰ ਸੁਪਰਡੈਂਟ ਸੀ। ਉਹਨੇ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਲੰਮੀ-ਚੌੜੀ ਹਮਦਰਦ ਗੱਲਬਾਤ ਮਗਰੋਂ ਆਪਣੇ ਚਿੱਤੋਂ ਮੈਨੂੰ ਬੜੀ ਮਾੜੀ ਖਬਰ ਦਿੱਤੀ ਕਿ ਜੇ ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਮਰਜ਼ੀ ਮੁਤਾਬਕ ਕੋਈ ਬਿਆਨ ਨਾ ਦਿੱਤਾ, ਤਾਂ ਉਹ ਮੇਰੇ ਉਤੇ ਕਾਕੋਰੀ ਮੁਕੱਦਮੇ ਸਬੰਧੀ ਜੰਗ ਛੇੜਨ ਦੀ ਸਾਜ਼ਿਸ਼ ਅਤੇ ਦੁਸਹਿਰਾ ਬੰਬ ਸਾਕੇ ਦੇ ਵਹਿਸ਼ੀ ਕਾਤਲਾਂ ਦਾ ਮੁਕੱਦਮਾ ਚਲਾਉਣ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੋਣਗੇ। ਫਿਰ ਆਖਣ ਲੱਗਾ ਕਿ ਮੈਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਦਿਵਾਉਣ ਤੇ ਫਾਹੇ ਲਾਉਣ ਲਈ ਉਸ ਕੋਲ ਗਵਾਹੀ ਮੌਜੂਦ ਹੈ। ਉਨ੍ਹੀਂ ਦਿਨੀਂ ਮੇਰਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸੀ- ਮੈਂ ਭਾਵੇਂ ਬਿਲਕੁਲ ਮਾਸੂਮ ਸੀ, ਕਿ ਪੁਲਿਸ ਜੋ ਦਾਅਵੇ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ, ਉਹ ਕਰ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਉਸੇ ਦਿਨ ਕੁਝ ਪੁਲਿਸ ਅਫ਼ਸਰ ਦੋਵੇਂ ਵੇਲੇ ਰੱਬ ਦਾ ਨਾਂ ਲੈਣ ਲਈ ਮੈਨੂੰ ਪ੍ਰੇਰਨ ਲੱਗ ਪਏ। ਮੈਂ ਤਾਂ ਨਾਸਤਿਕ ਸੀ। ਮੈਂ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨਾਲ ਫੈਸਲਾ ਕਰਨਾ ਚਾਹੁੰਦਾ ਸਾਂ ਕਿ ਕੀ ਮੈਂ ਅਮਨ ਚੈਨ ਤੇ ਖੁਸ਼ੀ ਦੇ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਹੀ ਨਾਸਤਿਕ ਹੋਣ ਦੀ ਫੜ੍ਹ ਮਾਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ, ਜਾਂ ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਔਖੀ ਘੜੀ ਵਿਚ ਵੀ ਆਪਣੇ ਅਸੂਲਾਂ ਉਤੇ ਸਾਬਤ ਕਦਮ ਰਹਿ ਸਕਦਾ ਹਾਂ। ਬੜੀ ਸੋਚ ਵਿਚਾਰ ਮਗਰੋਂ ਫੈਸਲਾ ਕੀਤਾ ਕਿ ਮੈਂ ਰੱਬ ਵਿਚ ਯਕੀਨ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ, ਤੇ ਨਾ ਹੀ ਅਰਦਾਸ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਕਦੇ ਵੀ ਅਰਦਾਸ ਨਾ ਕੀਤੀ। ਇਹ ਪਰਖ ਦੀ ਘੜੀ ਸੀ ਤੇ ਮੈਂ ਇਸ ਵਿਚ ਕਾਮਯਾਬ ਰਿਹਾ। ਮੈਂ ਕਦੇ ਇਕ ਪਲ ਵੀ ਆਪਣੀ ਜਾਨ ਬਚਾਉਣ ਬਾਰੇ ਨਹੀਂ ਸੋਚਿਆ ਸੀ। ਸੋ, ਮੈਂ ਪੱਕਾ ਨਾਸਤਿਕ ਸੀ ਤੇ ਉਦੋਂ ਤੋਂ ਲੈ ਕੇ ਹੁਣ ਤੱਕ ਹਾਂ। ਉਸ ਅਜ਼ਮਾਇਸ਼ ਵਿਚ ਪੂਰਾ ਉਤਰਨਾ ਕੋਈ ਸੌਖੀ ਗੱਲ ਨਹੀਂ ਸੀ।

'ਵਿਸ਼ਵਾਸ' ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਨੂੰ ਘੱਟ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਖੁਸ਼ਗਵਾਰ ਬਣਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ। ਬੰਦਾ ਰੱਬ ਵਿਚ ਧਰਵਾਸ ਤੇ ਆਸਰੇ ਦਾ ਬਹੁਤ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਅਹਿਸਾਸ ਲੱਭ ਸਕਦਾ ਹੈ। 'ਉਹਦੇ' ਬਿਨਾਂ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਆਪ ਉਤੇ ਨਿਰਭਰ ਹੋਣਾ ਪੈਂਦਾ ਹੈ। ਝੱਖੜ-ਝਾਂਜਿਆਂ ਤੇ ਤੂਫ਼ਾਨਾਂ ਵਿਚ ਸਾਬਤ ਕਦਮ ਰਹਿਣਾ ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਖੇਡ ਨਹੀਂ। ਇਹੋ ਜਿਹੀਆਂ ਅਜ਼ਮਾਇਸ਼ੀ ਘੜੀਆਂ ਵਿਚ ਕਿਸੇ ਵਿਚ ਕੋਈ ਹਉਮੈ ਬਚੀ ਹੋਈ ਹੋਵੇ, ਤਾਂ ਉਹ ਕਾਫ਼ੂਰ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਅਤੇ ਮਨੁੱਖ ਆਮ ਵਿਸ਼ਵਾਸਾਂ ਨੂੰ ਉਲੰਘਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਤੱਕ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਜੇ ਉਹ ਹਿੰਮਤ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਸਾਨੂੰ ਇਹ ਕਹਿਣਾ ਪਏਗਾ ਕਿ ਉਸ ਵਿਚ ਨਿਜੀ ਹਉਮੈ ਨਾਲੋਂ ਹੋਰ ਕੋਈ ਤਾਕਤ ਵੀ ਹੁੰਦੀ ਹੋਣੀ ਹੈ। ਹੁਣ ਬਿਲਕੁਲ ਇਹੀ ਹਾਲਤ ਹੈ। ਪਹਿਲਾਂ ਹੀ ਚੰਗੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੇ ਮੁਕੱਦਮੇ ਦਾ ਕੀ ਫੈਸਲਾ ਹੋਏਗਾ। ਹਫ਼ਤੇ ਦੇ ਵਿਚ ਵਿਚ ਫੈਸਲਾ ਸੁਣਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾਏਗਾ। ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਆਦਰਸ਼ ਖਾਤਰ ਕੁਰਬਾਨ ਕਰ ਦੇਣੀ ਹੈ, ਇਸ ਵਿਚਾਰ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਮੇਰਾ ਹੋਰ ਕਿਹੜਾ ਧਰਵਾਸ ਹੈ? ਕਿਸੇ ਆਸਤਿਕ ਹਿੰਦੂ ਨੂੰ ਤਾਂ ਦੂਜੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਬਣਨ ਦੀ ਆਸ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ, ਕੋਈ ਮੁਸਲਮਾਨ ਜਾਂ ਈਸਾਈ ਤਾਂ ਆਪਣੀਆਂ ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਤੇ ਕੁਰਬਾਨੀਆਂ ਬਦਲੇ ਸਵਰਗ ਦੀਆਂ ਐਸ਼ੋ-ਇਸ਼ਰਤਾਂ ਦੀ ਕਲਪਨਾ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਮੈਂ ਕਿਸ ਗੱਲ ਦੀ ਆਸ ਰੱਖਾਂ? ਮੈਨੂੰ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਜਿਸ ਪਲ ਮੇਰੇ ਗਲ ਇਹ ਫਾਂਸੀ ਦਾ ਫੰਦਾ ਪਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾਏਗਾ, ਤੇ ਮੇਰੇ ਪੈਰਾਂ ਹੇਠੋਂ ਤਖ਼ਤੇ ਖੋਲ੍ਹ ਦਿੱਤੇ ਗਏ, ਤਾਂ ਉਹ ਮੇਰਾ ਆਖਰੀ ਪਲ ਹੋਏਗਾ। ਮੇਰਾ ਜਾਂ ਮਿਥਿਹਾਸਕ ਸ਼ਬਦਾਵਲੀ ਵਿਚ ਆਖੀਏ, ਤਾਂ ਮੇਰੀ ਆਤਮਾ ਦਾ ਬਿਲਕੁਲ ਖਾਤਮਾ ਹੋ ਜਾਏਗਾ। ਜੇ ਮੈਂ ਇਨਾਮ ਦੇ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀਕੋਣ ਤੋਂ ਦੇਖਣ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਕਰਾਂ ਤਾਂ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਅੰਤ ਤੋਂ ਵਾਂਝੀ ਜਦੋ-ਜਹਿਦ ਭਰੀ ਮੁਖ਼ਤਸਰ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਹੀ ਆਪਣੇ ਆਪ ਵਿਚ (ਮੇਰਾ) ਇਨਾਮ ਹੋਏਗਾ। ਇਸ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕੁਝ ਨਹੀਂ। ਹੁਣ ਜਾਂ ਕਦੇ ਵੀ ਕੁਝ ਹਾਸਲ ਕਰ ਸਕਣ ਦੀ ਕਿਸੇ ਵੀ ਖੁਦਗਰਜ਼ੀ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਮੈਂ ਕਾਫ਼ੀ ਬੇਲਾਗ ਹੋ ਕੇ ਆਪਣੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਆਜ਼ਾਦੀ ਦੇ ਆਦਰਸ਼ ਲੇਖੇ ਲਾਈ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਮੇਰੇ ਕੋਲ ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਹੋਰ ਕੋਈ ਚਾਰਾ ਨਹੀਂ ਸੀ।
ਜਿਸ ਦਿਨ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀ ਸੇਵਾ ਤੇ ਦੁੱਖ ਝਾਗ ਰਹੀ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੇ ਨਿਜਾਤ ਦੀ ਭਾਵਨਾ ਨਾਲ ਪ੍ਰੇਰਿਤ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਮਰਦ-ਔਰਤਾਂ ਅੱਗੇ ਆ ਗਏ, ਜਿਹੜੇ ਇਸ ਬਗੈਰ ਹੋਰ ਕਿਸੇ ਚੀਜ਼ ’ਤੇ ਜੀਵਨ ਨਹੀਂ ਲਗਾ ਸਕਦੇ, ਉਸ ਦਿਨ ਤੋਂ ਮੁਕਤੀ ਦਾ ਯੁੱਗ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋਵੇਗਾ। ਉਹ ਦਮਨਕਾਰੀਆਂ, ਲੋਟੂਆਂ ਤੇ ਜ਼ਾਲਮਾਂ ਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲੋਂ ਨਹੀਂ ਵੰਗਾਰਨਗੇ ਕਿ ਉਹ ਇਸ ਜਾਂ ਅਗਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਜਾਂ ਮੌਤ ਮਗਰੋਂ ਵਹਿਸ਼ਤ ਵਿਚ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਬਣ ਜਾਣਗੇ ਜਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਕੋਈ ਇਨਾਮ ਮਿਲ ਜਾਵੇਗਾ, ਸਗੋਂ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀ ਧੌਣ ਤੋਂ ਗੁਲਾਮੀ ਦਾ ਜੂਲਾ ਲਾਹੁਣ ਤੇ ਆਜ਼ਾਦੀ ਤੇ ਅਮਨ ਕਾਇਮ ਕਰਨ ਲਈ ਹੀ ਉਹ ਇਸ ਬਿਖੜੇ, ਪਰ ਇਕੋ ਇਕ ਸ਼ਾਨਦਾਰ ਮਾਰਗ ਉਤੇ ਚੱਲਣਗੇ। ਕੀ ਆਪਣੇ ਸੱਚੇ ਆਦਰਸ਼ ਵਿਚ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਮਾਣ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਕਿਹਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ? ਇਹੋ ਜਿਹੀ ਘ੍ਰਿਣਤ ਬਿਆਨੀ ਕਰਨ ਦੀ ਕੌਣ ਜੁਰਅਤ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹੈ? ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਮੂਰਖ ਜਾਂ ਪਾਖੰਡੀ ਆਖਾਂਗਾ। ਚਲੋ, ਆਪਾਂ ਇਸ ਨੂੰ ਮੁਆਫ਼ ਕਰ ਦਿੰਦੇ ਹਾਂ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਸੁੱਚੇ ਆਦਰਸ਼ ਵਾਲੇ ਦਿਲ ਦੇ ਜਜ਼ਬੇ, ਭਾਵਨਾ ਤੇ ਅਹਿਸਾਸ ਨੂੰ ਜਾਣ ਨਹੀਂ ਸਕਦਾ। ਉਹਦਾ ਦਿਲ ਮਾਸ ਦਾ ਬੇਜਾਨ ਲੋਥੜਾ ਹੈ। ਉਹਦੀ ਦ੍ਰਿਸ਼ਟੀ ਕਮਜ਼ੋਰ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਹੋਰ ਗਰਜ਼ਾਂ ਦੀਆਂ ਬੁਰਾਈਆਂ ਦਾ ਉਨ੍ਹਾਂ 'ਤੇ ਪਰਦਾ ਪਿਆ ਹੋਇਆ ਹੈ। ਸਵੈ-ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਸਮਝਿਆ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਅਫਸੋਸਨਾਕ ਤੇ ਤਰਸਯੋਗ ਗੱਲ ਹੈ, ਪਰ ਇਹਦਾ ਕੋਈ ਚਾਰਾ ਨਹੀਂ।
ਤੁਸੀਂ ਪ੍ਰਚਲਿਤ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰ ਕੇ ਦੇਖ ਲਓ, ਤੁਸੀਂ ਨਿਹਕਲੰਕ ਅਵਤਾਰ ਸਮਝੇ ਜਾਂਦੇ ਕਿਸੇ ਨਾਇਕ, ਕਿਸੇ ਮਹਾਨ ਪੁਰਖ ਦੀ ਨੁਕਤਾਚੀਨੀ ਕਰ ਕੇ ਦੇਖ ਲਓ, ਤਾਂ ਤੁਹਾਡੀ ਦਲੀਲ ਦਾ ਜਵਾਬ ਤੁਹਾਨੂੰ ਘੁਮੰਡੀ-ਅਹੰਕਾਰੀ ਆਖ ਕੇ ਦਿੱਤਾ ਜਾਵੇਗਾ। ਇਹਦਾ ਕਾਰਨ ਮਾਨਸਿਕ ਖੜੋਤ ਹੈ। ਆਲੋਚਨਾ ਤੇ ਸੁਤੰਤਰ ਸੋਚਣੀ ਇਨਕਲਾਬੀ ਦੇ ਦੋ ਲਾਜ਼ਮੀ ਗੁਣ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਮਹਾਤਮਾ ਜੀ (ਮਹਾਤਮਾ ਗਾਂਧੀ) ਕਿਉਂਕਿ ਮਹਾਨ ਹਨ, ਇਸ ਲਈ ਕੋਈ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਆਲੋਚਨਾ ਨਾ ਕਰੇ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਉਪਰ ਉਠ ਚੁੱਕੇ ਹਨ। ਇਸ ਲਈ ਉਹ ਰਾਜਨੀਤੀ ਜਾਂ ਧਰਮ, ਆਰਥਿਕਤਾ ਜਾਂ ਸਦਾਚਾਰ ਬਾਰੇ ਕੁਝ ਵੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹਨ, ਤਾਂ ਉਹ ਸਹੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਮੰਨਦੇ ਹੋ, ਭਾਵੇਂ ਨਹੀਂ; ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਹ ਜ਼ਰੂਰ ਕਹਿਣਾ ਪਏਗਾ, "ਹਾਂ ਇਹ ਗੱਲ ਠੀਕ ਹੈ।" ਇਹ ਮਾਨਸਿਕਤਾ ਸਾਨੂੰ ਪ੍ਰਗਤੀ ਵੱਲ ਨਹੀਂ ਲਿਜਾਂਦੀ, ਸਗੋਂ ਇਹ ਤਾਂ ਸਪਸ਼ਟ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪ੍ਰਤੀਗਾਮੀ (ਮਾਨਸਿਕਤਾ) ਹੈ।
ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ-ਵਡੇਰਿਆਂ ਨੇ ਕਿਉਂਕਿ ਕਿਸੇ ਸਰਬ ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਪਰਮਾਤਮਾ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਬਣਾ ਲਿਆ ਸੀ, ਇਸ ਲਈ ਕੋਈ ਵੀ ਬੰਦਾ, ਜਿਹੜਾ ਉਸ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਜਾਂ ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਮੁਨਕਰ ਹੋਣ ਦਾ ਹੌਸਲਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹਨੂੰ ਹਰ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਕਾਫ਼ਰ, ਗੱਦਾਰ ਕਿਹਾ ਜਾਏਗਾ। ਜੇ ਉਹਦੀਆਂ ਵਜ਼ਨਦਾਰ ਦਲੀਲਾਂ ਨੂੰ ਅੱਗੇ ਕੱਟਿਆ ਨਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੋਵੇ ਅਤੇ ਸਰਬ ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਦੀ ਕਰੋਪੀ ਵੀ ਉਹਦੀ ਜ਼ੋਰਦਾਰ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਨੂੰ ਡੇਗ ਨਾ ਸਕੇ, ਤਾਂ ਉਹਨੂੰ ਘੁਮੰਡੀ ਗਰਦਾਨਿਆ ਜਾਏਗਾ ਤੇ ਉਹਦੀ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਨੂੰ ਅਹੰਕਾਰ ਆਖਿਆ ਜਾਏਗਾ। ਤਾਂ ਫਿਰ ਇਸ ਫਜ਼ੂਲ ਬਹਿਸ ਵਿਚ ਸਮਾਂ ਕਿਉਂ ਜ਼ਾਇਆ ਕੀਤਾ ਜਾਵੇ? ਇਹ ਸਵਾਲ ਲੋਕਾਂ ਅੱਗੇ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਆ ਰਿਹਾ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਨੂੰ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਪਹਿਲੀ ਵਾਰ ਲਿਆ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਇਸੇ ਲਈ ਲੰਮੀ ਬਹਿਸ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ।
ਜਿਥੋਂ ਤੱਕ ਪਹਿਲੇ ਸਵਾਲ ਦਾ ਸਬੰਧ ਹੈ, ਮੇਰਾ ਵਿਚਾਰ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਸਪਸ਼ਟ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਅਹੰਕਾਰ ਕਾਰਨ ਨਾਸਤਿਕ ਨਹੀਂ ਬਣਿਆ। ਇਹ ਫੈਸਲਾ ਮੈਂ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ ਮੇਰੇ ਪਾਠਕਾਂ ਨੇ ਕਰਨਾ ਹੈ ਕਿ ਮੇਰੀਆਂ ਦਲੀਲਾਂ ਖੁੱਭਵੀਆਂ ਸਾਬਤ ਹੋਈਆਂ ਹਨ ਜਾਂ ਨਹੀਂ। ਮੈਨੂੰ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਹੁਣ ਦੇ ਹਾਲਾਤ ਵਿਚ ਜੇ ਮੈਂ ਆਸਤਿਕ ਹੁੰਦਾ ਤਾਂ ਮੇਰੀ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਹੁਣ ਨਾਲੋਂ ਆਸਾਨ ਹੋਣੀ ਸੀ ਤੇ ਮੇਰਾ ਬੋਝ ਹੁਣ ਨਾਲੋਂ ਘੱਟ ਹੋਣਾ ਸੀ। ਮੇਰਾ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਤੋਂ ਇਨਕਾਰੀ ਹੋਣ ਕਰ ਕੇ ਹਾਲਾਤ ਬਹਤ ਹੀ ਅਣਸੁਖਾਵੇਂ ਹੋ ਗਏ ਹਨ ਤੇ ਹਾਲਤ ਇਸ ਤੋਂ ਵੀ ਭੈੜੀ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਥੋੜ੍ਹਾ ਜਿੰਨਾ ਰਹੱਸਵਾਦ ਇਸ ਹਾਲਤ ਨੂੰ ਸ਼ਾਇਰਾਨਾ ਬਣਾ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਆਪਣੇ ਅੰਤ ਵਾਸਤੇ ਕਿਸੇ ਨਸ਼ੇ ਦੀ, ਮਦਦ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਮੈਂ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਤਰਕ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ ਇਸ ਰੁਝਾਨ ਉਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਦਾ ਰਿਹਾ ਹਾਂ। ਮੈਂ ਇਸ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਵਿਚ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਸਫਲ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ, ਪਰ ਬੰਦੇ ਦਾ ਫਰਜ਼ ਤਾਂ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰੀ ਜਾਣਾ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਕਾਮਯਾਬੀ ਮੌਕੇ ਅਤੇ ਹਾਲਾਤ ਉਤੇ ਨਿਰਭਰ ਹੁੰਦੀ ਹੈ।
ਦੂਜਾ ਸਵਾਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਅਹੰਕਾਰ ਨਹੀਂ, ਤਾਂ ਰੱਬ ਦੀ ਹੋਂਦ ਪੁਰਾਣੀ ਤੇ ਪ੍ਰਚੱਲਤ ਧਾਰਨਾ ਨੂੰ ਨਾ ਮੰਨਣ ਦਾ ਕੋਈ ਕਾਰਨ ਹੋਵੇਗਾ। ਹਾਂ, ਮੈਂ ਇਸ ਸਵਾਲ ਵੱਲ ਆਉਂਦਾ ਹਾਂ। ਇਹਦਾ ਕਾਰਨ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਵਿਚਾਰ ਅਨੁਸਾਰ ਜਿਸ ਬੰਦੇ ਕੋਲ ਥੋੜ੍ਹੀ-ਬਹੁਤ ਤਰਕ ਸ਼ਕਤੀ ਹੈ, ਉਹ ਹਮੇਸ਼ਾ ਆਪਣੇ ਆਲੇ-ਦੁਆਲੇ ਨੂੰ ਤਰਕ ਦੀ ਕਸਵੱਟੀ ਉਤੇ ਪਰਖਦਾ ਹੈ। ਜਿਥੇ ਸਿੱਧੇ ਸਬੂਤ ਨਹੀਂ ਮਿਲਦੇ, ਉਥੇ ਫਲਸਫ਼ੇ ਦਾ ਅਹਿਮ ਥਾਂ ਹੁੰਦਾ ਹੈ। ਜਿਵੇਂ ਮੈਂ ਪਹਿਲਾਂ ਆਖ ਚੁੱਕਾ ਹਾਂ, ਮੇਰਾ ਕੋਈ ਇਨਕਲਾਬੀ ਦੋਸਤ ਕਿਹਾ ਕਰਦਾ ਸੀ, "ਫਲਸਫ਼ਾ ਮਨੁੱਖੀ ਕਮਜ਼ੋਰੀ ਦੀ ਪੈਦਾਵਾਰ ਹੈ।"
ਜਦ ਸਾਡੇ ਵੱਡੇ-ਵਡੇਰਿਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਜਗਤ-ਤਮਾਸ਼ੇ ਨੂੰ ਜਾਣਨ ਦੀ ਕਾਫ਼ੀ ਫ਼ੁਰਸਤ ਮਿਲੀ ਤੇ ਜਦ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਜਗਤ ਦਾ ਅਤੀਤ, ਵਰਤਮਾਨ, ਭਵਿੱਖ ਤੇ ਹੋਰ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਸਵਾਲਾਂ ਦੇ ਸਿੱਧੇ ਸਬੂਤ ਨਾ ਮਿਲੇ, ਤਾਂ ਹਰ ਕਿਸੇ ਨੇ ਇਸ ਸਮੱਸਿਆ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਸੁਲਝਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ। ਇਸ ਕਰ ਕੇ ਵੱਖ ਵੱਖ ਧਰਮਾਂ ਦੇ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਵਿਚ ਵੱਡੇ ਵੱਡੇ ਮਤਭੇਦ ਮਿਲਦੇ ਹਨ। ਜਿਹੜੇ ਕਦੇ ਕਦੇ ਬਹੁਤ ਵਿਰੋਧੀ ਰੂਪ ਅਖਤਿਆਰ ਕਰ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਜਿਥੇ ਏਸ਼ੀਆਈ ਤੇ ਯੂਰਪੀ ਫਿਲਾਸਫੀਆਂ ਵਿਚ ਵਖਰੇਵਾਂ ਹੈ, ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਹਰ ਮਹਾਂ ਖੇਤਰ ਦੀਆਂ ਵੱਖ ਵੱਖ ਵਿਚਾਰ ਪ੍ਰਣਾਲੀਆਂ ਵਿਚ ਵੀ ਮਤਭੇਦ ਹੈ। ਏਸ਼ੀਆਈ ਧਰਮਾਂ ਵਿਚ ਇਸਲਾਮ ਦੀ ਹਿੰਦੂ ਧਰਮ ਨਾਲ ਕੋਈ ਸਾਂਝ ਨਹੀਂ। ਸਿਰਫ਼ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਵਿਚ ਹੀ ਬੁੱਧ ਤੇ ਜੈਨ ਧਰਮ, ਬ੍ਰਾਹਮਣਵਾਦ ਤੋਂ ਕਾਫ਼ੀ ਵੱਖਰੇ ਹਨ ਤੇ ਬ੍ਰਾਹਮਣਵਾਦ ਵਿਚ ਵੀ ਅਗਾਂਹ ਆਰੀਆ ਸਮਾਜ ਤੇ ਸਨਾਤਨ ਧਰਮ ਵਰਗੇ ਵਿਰੋਧੀ ਮੱਤ ਹਨ। ਚਾਰਵਾਕ ਪੁਰਾਤਨ ਕਾਲ ਦਾ ਸੁਤੰਤਰ ਚਿੰਤਕ ਸੀ। ਇਹਨੇ ਰੱਬ ਦੀ ਪ੍ਰਭੂਸੱਤਾ ਨੂੰ ਵੰਗਾਰਿਆ ਸੀ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੇ ਮੱਤਾਂ ਵਿਚ ਬੁਨਿਆਦੀ ਸਵਾਲ ਬਾਰੇ ਮਤਭੇਦ ਹਨ ਅਤੇ ਹਰ ਕੋਈ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਦਰੁਸਤ ਮੰਨਦਾ ਹੈ। ਇਹੋ ਸਾਰੀ ਬੁਰਾਈ ਹੈ। ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਦਵਾਨਾਂ ਦੇ ਤਜਰਬਿਆਂ ਤੇ ਵਿਚਾਰਾਂ ਨੂੰ ਅਗਿਆਨ ਵਿਚ ਸਾਡੀ ਆਉਣ ਵਾਲੀ ਜਦੋ-ਜਹਿਦ ਦਾ ਆਧਾਰ ਬਣਾਉਣ ਤੇ ਇਸ ਭੇਤਭਰੇ ਮਸਲੇ ਦਾ ਹੱਲ ਲੱਭਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਦੀ ਥਾਂ ਅਸੀਂ ਸੁਸਤ, ਨਿਕੰਮੇ, ਕੱਟੜ ਧਰਮ ਦੀ ਹਾਲ ਦੁਹਾਈ ਪਾਉਣ ਲੱਗ ਜਾਂਦੇ ਹਾਂ ਅਤੇ ਇੰਜ ਮਨੁੱਖੀ ਜਾਗ੍ਰਤੀ ਵਿਚ ਆਈ ਖੜੋਤ ਦੇ ਕਸੂਰਵਾਰ ਹਾਂ।
ਜਿਹੜਾ ਵੀ ਮਨੁੱਖੀ ਪ੍ਰਗਤੀ ਦਾ ਹਾਮੀ ਹੈ, ਉਸ ਨੂੰ ਲਾਜ਼ਮੀ ਤੌਰ 'ਤੇ ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਹਰ ਗੱਲ ਦੀ ਆਲੋਚਨਾ ਕਰਨੀ ਪਏਗੀ, ਇਹਦੇ ਵਿਚ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਪ੍ਰਗਟ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ, ਤੇ ਇਹਦੇ ਹਰ ਪਹਿਲੂ ਨੂੰ ਵੰਗਾਰਨਾ ਪਏਗਾ, ਪ੍ਰਚੱਲਿਤ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਇਕੱਲੀ-ਇਕੱਲੀ ਗੱਲ ਦੀ ਬਾਦਲੀਲ ਪੁਣਛਾਣ ਕਰਨੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਜੇ ਕੋਈ ਦਲੀਲ ਨਾਲ ਕਿਸੇ ਸਿਧਾਂਤ ਜਾਂ ਫਲਸਫੇ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਰਨ ਲੱਗਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਹਦਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਸਰਾਹੁਣਯੋਗ ਹੈ। ਉਹਦੀ ਦਲੀਲ ਗਲਤ ਜਾਂ ਉਕਾ ਹੀ ਬੇਬੁਨਿਆਦ ਹੋ ਸਕਦੀ ਹੈ, ਪਰ ਉਹਨੂੰ ਦਰੁਸਤ ਰਾਹ ਉਤੇ ਲਿਆਂਦਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ, ਕਿਉਂਕਿ ਤਰਕਸ਼ੀਲਤਾ ਉਹਦਾ ਜ਼ਿੰਦਗੀ ਦਾ ਧਰੂ ਤਾਰਾ ਜੋ ਹੈ, ਪਰ ਨਿਰਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਤੇ ਅੰਨ੍ਹਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਖਤਰਨਾਕ ਹੁੰਦਾ ਹੈ: ਇਹ ਦਿਮਾਗ਼ ਨੂੰ ਕੁੰਦ ਬਣਾਉਂਦਾ ਹੈ ਤੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਪ੍ਰਤੀਗਾਮੀ (ਪਿਛਾਂਹਖਿੱਚੂ)। ਜਿਹੜਾ ਵੀ ਬੰਦਾ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਹੋਣ ਦਾ ਦਾਅਵਾ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਉਹਨੂੰ ਸਮੁੱਚੇ ਪੁਰਾਤਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਚੈਲੰਜ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ। ਜੇ ਇਹ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦਲੀਲ ਅੱਗੇ ਨਾ ਖੜ੍ਹ ਸਕੇ ਤਾਂ ਇਹ ਢਹਿ-ਢੇਰੀ ਹੋ ਜਾਣਗੇ। ਫਿਰ ਉਸ ਬੰਦੇ ਦਾ ਪਹਿਲਾ ਕੰਮ ਸਾਰੇ ਪੁਰਾਤਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਤਬਾਹ ਕਰ ਕੇ ਨਵੇਂ ਫਲਸਫੇ ਲਈ ਜ਼ਮੀਨ ਤਿਆਰ ਕਰਨੀ ਹੋਵੇਗੀ। ਇਹ ਨਾਕਾਰਾਤਮਕ ਪੱਖ ਹੈ। ਇਸ ਮਗਰੋਂ ਸਾਕਾਰਾਤਮਕ ਕੰਮ ਸ਼ੁਰੂ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜਿਸ ਵਿਚ ਕਈ ਵਾਰ ਪੁਰਾਣੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਕੁਝ ਸਮੱਗਰੀ ਮੁੜ ਉਸਾਰੀ ਲਈ ਵਰਤੀ ਜਾ ਸਕਦੀ ਹੈ। ਜਿਥੋਂ ਤੱਕ ਮੇਰਾ ਸਬੰਧ ਹੈ, ਮੈਂ ਤਸਲੀਮ ਕਰਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਮੈਂ ਇਸ ਬਾਰੇ ਬਹੁਤਾ ਅਧਿਐਨ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਿਆ। ਏਸ਼ੀਆਈ ਫਲਸਫੇ ਨੂੰ ਪੜ੍ਹਨ ਦੀ ਮੇਰੀ ਵੱਡੀ ਰੀਝ ਸੀ, ਪਰ ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਦਾ ਵਕਤ ਜਾਂ ਮੌਕਾ ਨਹੀਂ ਮਿਲ ਸਕਿਆ, ਜਿਥੋਂ ਤੱਕ ਨਾਕਾਰਾਤਮਕ ਪੱਖ ਦਾ ਸਬੰਧ ਹੈ, ਮੈਨੂੰ ਇਸ ਹੱਦ ਤੱਕ ਯਕੀਨ ਹੈ ਕਿ ਮੈਂ ਪੁਰਾਤਨ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਦੀ ਪੁਖਤਗੀ ਉਤੇ ਕਿੰਤੂ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ। ਮੈਨੂੰ ਪੱਕਾ ਯਕੀਨ ਹੈ ਕਿ ਕੁਦਰਤ ਨੂੰ ਚਲਾਉਣ ਵਾਲਾ ਕੋਈ ਪਰਮਾਤਮਾ ਜਾਂ ਸੁਚੇਤ ਸੱਤਾ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਸਾਡਾ ਕੁਦਰਤ ਵਿਚ ਯਕੀਨ ਹੈ ਤੇ ਸਮੁੱਚੀ ਤਰੱਕੀ ਦਾ ਨਿਸ਼ਾਨਾ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਕੁਦਰਤ ਉਤੇ ਆਪਣੀ ਲੋੜ ਵਾਸਤੇ ਗਲਬਾ ਪਾਉਣਾ ਹੈ। ਇਹਦੇ ਪਿੱਛੇ ਕੋਈ ਸੁਚੇਤ ਚਾਲਕ ਸ਼ਕਤੀ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਇਹੋ ਸਾਡਾ ਫਲਸਫਾ ਹੈ।
ਨਾਕਾਰਾਤਮਕ ਪੱਖ ਤੋਂ ਆਸਤਿਕਾਂ ਤੋਂ ਕੁਝ ਸਵਾਲ ਪੁੱਛਦੇ ਹਾਂ:
ਤੁਹਾਡੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਅਨੁਸਾਰ ਜੇ ਕੋਈ ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ, ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਤੇ ਸਰਬ-ਗਿਆਤਾ ਰੱਬ ਹੈ, ਤਾਂ ਦੁਨੀਆਂ ਜਾਂ ਧਰਤੀ ਨੂੰ ਜਿਸ ਨੇ ਸਾਜਿਆ ਸੀ, ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਦੱਸਣ ਦੀ ਮਿਹਰਬਾਨੀ ਕਰੋ ਕਿ ਉਸ ਨੇ ਧਰਤੀ ਸਾਜੀ ਹੀ ਕਿਉਂ? ਉਹ ਧਰਤੀ ਜੋ ਦੁੱਖਾਂ-ਆਫ਼ਤਾਂ, ਅਣਗਿਣਤ ਅਨੰਤ ਦੁਖਾਂਤਾਂ ਨਾਲ ਭਰੀ ਪਈ ਹੈ, ਜਿਥੇ ਇਕ ਵੀ ਜੀਅ ਪੂਰੀ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸੁਖੀ ਨਹੀਂ ਹੈ।
ਮਿਹਰਬਾਨੀ ਕਰ ਕੇ ਇਹ ਨਾ ਆਖੋ ਕਿ ਇਹ ਉਸ ਦਾ ਨੇਮ ਹੈ: ਜੇ ਉਹ ਕਿਸੇ ਨੇਮ ਦੇ ਵੱਸ ਹੈ, ਤਾਂ ਉਹ ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਨਹੀਂ। ਤਾਂ ਫਿਰ ਉਹ ਵੀ ਸਾਡੇ ਵਰਗਾ ਗੁਲਾਮ ਹੈ। ਮਿਹਰਬਾਨੀ ਕਰ ਕੇ ਇਹ ਵੀ ਨਾ ਆਖੋ ਕਿ ਇਹ ਉਸ ਦਾ ਸ਼ੁਗਲ ਹੈ। ਨੀਰੋ ਨੇ ਤਾਂ ਇਕੋ ਰੋਮ ਸਾੜ ਕੇ ਸਵਾਹ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਉਸ ਨੇ ਗਿਣਤੀ ਦੇ ਬੰਦੇ ਜਾਨੋਂ ਮਾਰੇ ਸਨ। ਉਸ ਦੇ ਹੱਥੋਂ ਬਹੁਤ ਘੱਟ ਦੁਖਾਂਤ ਵਾਪਰੇ। ਇਹ ਸਭ ਉਸ ਨੇ ਆਪਣੇ ਮਜ਼ੇ ਲਈ ਕੀਤਾ ਤੇ ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਉਸ ਨੂੰ ਕਿਹੜੀ ਥਾਂ ਹਾਸਲ ਹੈ? ਇਤਿਹਾਸਕਾਰ ਉਸ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਕਿਹੜੇ ਨਾਂਵਾਂ ਨਾਲ ਕਰਦੇ ਹਨ? ਸਾਰੇ ਵਿਹੁਲੇ ਵਿਸ਼ੇਸ਼ਣ ਉਸ ਲਈ ਵਰਤੇ ਜਾਂਦੇ ਹਨ। ਜ਼ਾਲਮ, ਬੇਰਹਿਮ, ਸ਼ੈਤਾਨ ਨੀਰੋ ਦੀ ਨਿਖੇਧੀ ਕਰਨ ਲਈ ਲਾਹਣਤਾਂ ਨਾਲ ਸਫਿਆਂ ਦੇ ਸਫੇ ਕਾਲੇ ਕੀਤੇ ਪਏ ਹਨ। ਚੰਗੇਜ਼ ਖਾਨ ਨੇ ਮਜ਼ਾ ਲੈਣ ਲਈ ਕੁਝ ਹਜ਼ਾਰ ਲੋਕਾਂ ਦੀ ਜਾਨ ਲਈ ਸੀ ਤੇ ਅੱਜ ਅਸੀਂ ਉਸ ਦੇ ਨਾਂ ਤੱਕ ਨੂੰ ਨਫਰਤ ਕਰਦੇ ਹਾਂ। ਤਾਂ ਫੇਰ ਤੁਸੀਂ ਆਪਣੇ ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਅਨੰਤ ਨੀਰੋ ਨੂੰ ਕਿਵੇਂ ਵਾਜਬ ਠਹਿਰਾਓਗੇ ਜੋ ਅਜੇ ਵੀ ਹਰ ਦਿਨ, ਹਰ ਘੜੀ ਤੇ ਹਰ ਪਲ ਅਣਗਿਣਤ ਕਤਲ ਕਰੀ ਜਾ ਰਿਹਾ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਉਸ ਦੀਆਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਕਰਤੂਤਾਂ ਦੀ ਹਮਾਇਤ ਕਿਵੇਂ ਕਰੋਗੇ ਜੋ ਪਲੋ-ਪਲੀ ਚੰਗੇਜ਼ ਦੀਆਂ ਕਰਤੂਤਾਂ ਨੂੰ ਵੀ ਮਾਤ ਪਾਈ ਜਾਂਦੀਆਂ ਹਨ? ਮੈਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਉਸ ਨੇ ਇਹ ਦੁਨੀਆਂ ਬਣਾਈ ਹੀ ਕਿਉਂ ਸੀ; ਦੁਨੀਆਂ ਜਿਹੜੀ ਸੁੱਚੀ-ਮੁੱਚੀ ਦਾ ਨਰਕ ਹੈ, ਅਨੰਤ ਤੇ ਤਲਖ ਬੇਚੈਨੀ ਦਾ ਘਰ ਹੈ? ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਨੇ ਮਨੁੱਖ ਕਿਉਂ ਸਾਜਿਆ, ਜਦ ਕਿ ਉਸ ਦੇ ਕੋਲ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਸਾਜਣ ਦੀ ਤਾਕਤ ਸੀ? ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਦਾ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲ ਕੀ ਜਵਾਬ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਆਖੋਗੇ ਕਿ ਅਗਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਮਾਸੂਮ ਪੀੜਤਾਂ ਨੂੰ ਨਿਵਾਜਣ ਤੇ ਕੁਕਰਮੀਆਂ ਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਦੇਣ ਲਈ ਉਸ ਨੇ ਇੰਜ ਕੀਤਾ? ਅੱਛਾ ਤਾਂ ਫਿਰ, ਤੁਸੀਂ ਉਸ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਕਿਵੇਂ ਹੱਕੀ ਠਹਿਰਾਉਗੇ ਜੋ ਤੁਹਾਡੇ ਸਰੀਰ ਨੂੰ ਇਸ ਵਾਸਤੇ ਜ਼ਖ਼ਮੀ ਕਰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਮਗਰੋਂ ਬੜੇ ਪਿਆਰ ਨਾਲ ਟਕੋਰਾਂ ਕਰੇਗਾ? ਗਲੈਡੀਏਟਰ (ਪੁਰਾਤਨ ਰੋਮ ਵਿਚ ਗੁਲਾਮਾਂ, ਜੰਗੀ ਕੈਦੀਆਂ ਜਾਂ ਸਜ਼ਾ-ਯਾਫ਼ਤਾ ਮੁਜਰਮਾਂ ਨੂੰ ਰਾਜੇ ਦੇ ਦਰਬਾਰ ਵਿਚ ਆਪਸ ਵਿਚ ਜਾਨਲੇਵਾ ਤਲਵਾਰਬਾਜ਼ੀ ਕਰਨ ਦੀ ਬਹੁਤ ਸਖ਼ਤ ਕਿਸਮ ਦੀ ਸਿੱਖਲਾਈ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਸੀ। ਰਾਜਾ ਕਈ ਵਾਰ ਮਜ਼ੇ ਖਾਤਰ ਗੁਲਾਮਾਂ ਨੂੰ ਭੁੱਖੇ ਸ਼ੇਰਾਂ ਅੱਗੇ ਛੱਡ ਦਿੰਦਾ ਸੀ। ਗਲੈਡੀਏਟਰ ਲਾਤੀਨੀ ਬੋਲੀ ਦਾ ਸ਼ਬਦ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਦਾ ਅਰਥ ਹੈ ਤਲਵਾਰਬਾਜ਼) ਸੰਸਥਾ ਦੇ ਹਮਾਇਤੀਆਂ ਤੇ ਪ੍ਰਬੰਧਕਾਂ ਦਾ ਇਹ ਕਾਰਾ ਕਿਥੋਂ ਤਾਈਂ ਸਹੀ ਸੀ, ਦੂਜੇ ਉਹ ਭੁੱਖੇ ਕਰੋਪੀ ਸ਼ੇਰਾਂ ਅੱਗੇ ਬੰਦਿਆਂ ਨੂੰ ਇਸ ਲਈ ਸੁੱਟ ਦਿੰਦੇ ਸੀ ਕਿ, ਜੇ ਉਹ ਸ਼ੇਰਾਂ ਹੱਥੋਂ ਜਿਉਂਦੇ ਬਚ ਗਏ ਤਾਂ ਫਿਰ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਬਹੁਤ ਖਾਤਰ-ਤਵੱਜੋ ਹੋਏਗੀ? ਇਸੇ ਕਰ ਕੇ ਮੈਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ: "ਸੁਚੇਤ ਸਰਬ-ਉਚ ਸੱਤਾ ਨੇ ਦੁਨੀਆਂ ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਕਿਉਂ ਸਾਜਿਆ? ਮਜ਼ਾ ਲੈਣ ਲਈ। ਫਿਰ ਉਹਦੇ ਵਿਚ ਤੇ ਨੀਰੋ ਵਿਚ ਫਰਕ ਹੀ ਕੀ ਹੈ!
ਮੁਸਲਮਾਨੋ ਤੇ ਈਸਾਈਓ! ਹਿੰਦੂ ਦਰਸ਼ਨ ਕੋਲ ਤਾਂ ਹੋਰ ਵੀ ਦਲੀਲ ਹੋਏਗੀ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਡੇ ਕੋਲੋਂ ਉਪਰਲੇ ਸਵਾਲਾਂ ਦੇ ਜਵਾਬ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ। ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਤੁਹਾਡਾ ਯਕੀਨ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਹਿੰਦੂਆਂ ਵਾਂਗ ਮਾਸੂਮ ਪੀੜਤਾਂ ਦੇ ਪਹਿਲੇ ਕੀਤੇ ਮੰਦੇ ਕਰਮਾਂ ਵਾਲੀ ਦਲੀਲ ਨਹੀਂ ਵਰਤ ਸਕਦੇ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਥੋਂ ਪੁੱਛਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਨੇ ਇਹ ਦੁਨੀਆਂ ਸਾਜਣ ਲਈ ਛੇ ਦਿਨ ਕਿਉਂ ਮਿਹਨਤ ਕੀਤੀ? ਉਸ ਨੇ ਕਿਉਂ ਕਿਹਾ ਸੀ ਕਿ ਸਭ ਅੱਛਾ ਹੈ? ਉਸ ਨੂੰ ਅੱਜ ਹੀ ਸੱਦੋ। ਉਸ ਨੂੰ ਪਿਛਲਾ ਇਤਿਹਾਸ ਦਿਖਾਓ। ਉਸ ਨੂੰ ਮੌਜੂਦਾ ਹਾਲਾਤ ਬਾਰੇ ਜਾਣਨ ਦਿਓ। ਫਿਰ ਦੇਖਾਂਗੇ ਕਿ ਉਹ ਇਹ ਕਹਿਣ ਦੀ ਜੁਰਅਤ ਕਰਦਾ ਹੈ: ਸਭ ਅੱਛਾ ਹੈ।

ਜੇਲ੍ਹਖ਼ਾਨਿਆਂ ਦੀਆਂ ਕਾਲ ਕੋਠੜੀਆਂ ਤੋਂ ਗੰਦੀਆਂ ਬਸਤੀਆਂ ਤੇ ਝੌਂਪੜੀਆਂ ਵਿਚ ਭੁੱਖਮਰੀ ਦੇ ਹੱਥੋਂ ਮਰ ਰਹੇ ਲੱਖਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਪੂੰਜੀਵਾਦੀ ਲੋਕਾਂ ਕੋਲੋਂ ਚੁੱਪ-ਚਾਪ ਜਾਂ ਕਹਿ ਲਓ ਬੇਵਾਸਤਗੀ ਨਾਲ ਆਪਣਾ ਲਹੂ ਪਿਲਾ ਰਹੇ ਲੁਟੀਂਦੇ ਮਜ਼ਦੂਰਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ, ਇਨਸਾਨੀ ਤਾਕਤ ਦੀ ਬਰਬਾਦੀ ਜਿਸ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਅਤਿ ਸਾਧਾਰਨ ਬੁੱਧੀ ਵਾਲਾ ਵਿਅਕਤੀ ਵੀ ਡਰ ਨਾਲ ਕੰਬਣ ਲੱਗ ਜਾਏ ਤੇ ਲੋੜਵੰਦਾਂ ਨੂੰ ਵੰਡਣ ਦੀ ਥਾਂ ਵਾਧੂ ਪੈਦਾਵਾਰ ਸਮੁੰਦਰਾਂ ਵਿਚ ਸੁੱਟੀ ਜਾਂਦੀ ਦੇਖ ਕੇ, ਇਨਸਾਨਾਂ ਦੀਆਂ ਹੱਡੀਆਂ ਨਾਲ ਚਿਣੀਆਂ ਨੀਹਾਂ ਉਤੇ ਉਸਰੇ ਬਾਦਸ਼ਾਹਾਂ ਦੇ ਮਹਿਲਾਂ ਨੂੰ ਦੇਖ ਕੇ ਉਹ ਰਤਾ ਆਖੇ ਤਾਂ ਸਹੀ, ਸਭ ਅੱਛਾ ਹੈ ਕਿਉਂ ਤੇ ਕਿਸ ਕਾਰਨ? ਇਹ ਮੇਰਾ ਸਵਾਲ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਚੁੱਪ ਹੋ, ਠੀਕ ਹੈ, ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਗੱਲ ਅੱਗੇ ਤੋਰਦਾ ਹਾਂ।
ਤੁਸੀਂ ਹਿੰਦੂ ਆਖਦੇ ਹੋ ਕਿ ਅੱਜ ਜਿਹੜਾ ਵੀ ਦੁੱਖ ਝੱਲ ਰਿਹਾ ਹੈ, ਉਹ ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮ ਦੇ ਮੰਦੇ ਕਰਮਾਂ ਕਰ ਕੇ ਹੈ। ਠੀਕ, ਤੁਸੀਂ ਇਹ ਵੀ ਕਹਿੰਦੇ ਹੋ ਕਿ ਜਿਹੜੇ ਅੱਜ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਦਬਾ ਰਹੇ ਹਨ, ਉਹ ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮਾਂ ਵਿਚ ਧਰਮਾਤਮਾ ਲੋਕ ਸਨ। ਇਸ ਕਰ ਕੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਹੱਥ ਤਾਕਤ ਹੈ। ਮੈਂ ਤਾਂ ਮੰਨਦਾ ਹਾਂ ਕਿ ਤੁਹਾਡੇ ਵੱਡੇ-ਵਡੇਰੇ ਬੜੇ ਸ਼ਾਤਰ ਲੋਕ ਸਨ, ਉਹ ਐਸੇ ਸਿਧਾਂਤ ਲੱਭਣ ਵਿਚ ਲੱਗੇ ਰਹੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਤਰਕ ਤੇ ਅਵਿਸ਼ਵਾਸ ਨੂੰ ਖਤਮ ਕੀਤਾ ਜਾ ਸਕੇ, ਪਰ ਆਪਾਂ ਦੇਖਦੇ ਹਾਂ ਕਿ ਇਸ ਦਲੀਲ ਵਿਚ ਕਿੰਨਾ ਕੁ ਵਜ਼ਨ ਹੈ।
ਬਹੁਤ ਉਘੇ ਨਿਆਂ ਸ਼ਾਸਤਰੀਆਂ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਹੈ ਕਿ ਕਸੂਰਵਾਰ ਨੂੰ ਜੋ ਸਜ਼ਾ ਦਿੱਤੀ ਜਾਂਦੀ ਹੈ, ਉਸ ਦੇ ਤਿੰਨ ਜਾਂ ਚਾਰ ਮਕਸਦ ਹੋ ਸਕਦੇ ਹਨ ਤੇ ਇਸੇ ਆਧਾਰ 'ਤੇ ਸਜ਼ਾ ਨੂੰ ਵਾਜਬ ਕਰਾਰ ਦਿੱਤਾ ਜਾ ਸਕਦਾ ਹੈ। ਇਹ ਮਕਸਦ ਹਨ: ਬਦਲਾ, ਸੁਧਾਰ ਤੇ ਵਰਜਣ ਲਈ ਡਰ। ਹੁਣ ਸਾਰੇ ਚਿੰਤਕ ਬਦਲੇ ਵਾਲੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਨੁਤਾਚੀਨੀ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਵਰਜਣ ਵਾਲੇ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਵੀ ਨੁਕਤਾਚੀਨੀ ਹੋ ਰਹੀ ਹੈ। ਸੁਧਾਰਕ ਸਿਧਾਂਤ ਹੀ ਜ਼ਰੂਰੀ ਹੈ ਅਤੇ ਇਨਸਾਨੀ ਤਰੱਕੀ ਦਾ ਅਟੁੱਟ ਅੰਗ ਹੈ। ਇਸ ਸਿਧਾਂਤ ਦਾ ਮੰਤਵ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਕਸੂਰਵਾਰ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਕਾਬਲ ਤੇ ਅਮਨ-ਪਸੰਦ ਸ਼ਹਿਰੀ ਬਣ ਕੇ ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਵਾਪਸ ਜਾਵੇ, ਪਰ ਜੇ ਅਸੀਂ ਇਹ ਮੰਨ ਵੀ ਲਈਏ ਕਿ ਬੰਦਿਆਂ ਨੇ (ਪੂਰਬਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ) ਪਾਪ ਕੀਤੇ ਹੋਣਗੇ, ਤਾਂ ਰੱਬ ਜਿਹੜੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਸਜ਼ਾ ਦਿੰਦਾ ਹੈ, ਉਹ ਕਿਹੋ ਜਿਹੀ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਆਖਦੇ ਹੋ ਕਿ ਉਹ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਗਾਂ, ਬਿੱਲੀ, ਦਰੱਖ਼ਤ, ਜੜ੍ਹ-ਬੂਟੀ ਜਾਂ ਜਾਨਵਰ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਜਨਮ ਲੈਣ ਲਈ ਭੇਜਦਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਜ਼ਾਵਾਂ ਦੀ ਗਿਣਤੀ 84 ਲੱਖ ਦੱਸਦੇ ਹੋ। ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਦੱਸੋ ਕਿ ਇਸ ਦਾ ਮਨੁੱਖ ਉਤੇ ਕੋਈ ਸੁਧਾਰਕ ਅਸਰ ਪੈਂਦਾ ਹੈ? ਤੁਸੀਂ ਐਸੇ ਕਿੰਨੇ ਕੁ ਜਣਿਆਂ ਨੂੰ ਮਿਲੇ ਹੋ, ਜੋ ਪਾਪ ਕਰਨ ਕਾਰਨ ਪਿਛਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਗਧੇ ਦੀ ਜੂਨੇ ਪਏ ਸਨ? ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਮਿਲਿਆ ਹੋਣਾ। ਆਪਣੇ ਪੁਰਾਣਾਂ ਦੇ ਬਿਰਤਾਂਤ ਦੀ ਲੋੜ ਨਹੀਂ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਡੀਆਂ ਮਿਥਿਹਾਸਕ ਕਹਾਣੀਆਂ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਤੱਕ ਨਹੀਂ ਛੁਹਣਾ ਚਾਹੁੰਦਾ। ਇਸ ਤੋਂ ਬਿਨਾਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਸ ਗੱਲ ਦਾ ਪਤਾ ਹੈ ਕਿ ਦੁਨੀਆਂ ਵਿਚ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਪਾਪ ਗਰੀਬ ਹੋਣਾ ਹੈ। ਗਰੀਬੀ ਪਾਪ ਹੈ, ਇਹ ਸਜ਼ਾ ਹੈ। ਤੁਸੀਂ ਇਹੋ ਜਿਹੀਆਂ ਸਜ਼ਾਵਾਂ ਤਜਵੀਜ਼ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਕਿਸੇ ਅਪਰਾਧ ਵਿਗਿਆਨੀ, ਕਿਸੇ ਕਾਨੂੰਨਦਾਨ ਜਾਂ ਕਾਨੂੰਨਸਾਜ਼ ਦੀ ਕਿੰਨੀ ਕੁ ਸਿਫ਼ਤ ਸਲਾਹੀ ਕਰੋਗੇ ਜਿਸ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਗੁਨਾਹ ਕਰਨ ਲਈ ਮਜਬੂਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ? ਕੀ ਤੁਹਾਡੇ ਰੱਬ ਨੇ ਇਸ ਗੱਲ ਬਾਰੇ ਪਹਿਲਾਂ ਨਹੀਂ ਸੋਚਿਆ ਸੀ ਜਾਂ ਉਹ ਵੀ ਇਹ ਗੱਲਾਂ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀਆਂ ਅਕਹਿ ਦੁੱਖ-ਤਕਲੀਫਾਂ ਦੀ ਕੀਮਤ ਉਤੇ ਤਜਰਬਿਆਂ ਰਾਹੀਂ ਸਿੱਖਦਾ ਹੈ? ਤੁਹਾਡੀ ਜਾਚੇ ਕਿਸੇ ਚਮਾਰ ਜਾਂ ਭੰਗੀ ਦੇ ਅਨਪੜ੍ਹ ਪਰਿਵਾਰ ਵਿਚ ਜੰਮੇ ਬੰਦੇ ਦੀ ਕੀ ਹੋਣੀ ਹੋਏਗੀ? ਉਹ ਗਰੀਬ ਹੈ, ਇਸ ਲਈ ਉਹ ਪੜ੍ਹਾਈ ਨਹੀਂ ਕਰ ਸਕਦਾ। ਖੁਦ ਨੂੰ ਚੰਗੇ ਸਮਝਣ ਵਾਲੇ ਦੂਜੇ ਇਨਸਾਨ ਉਸ ਨੂੰ ਨਫ਼ਰਤ ਕਰਦੇ ਹਨ ਤੇ ਧਿਕਾਰਦੇ ਹਨ, ਕਿਉਂਕਿ ਉਹ ਉਚੇਰੀ ਜਾਤ ਵਿਚ ਪੈਦਾ ਹੋਏ ਸਨ। ਉਸ ਦੀ ਅਗਿਆਨਤਾ, ਉਸ ਦੀ ਗਰੀਬੀ ਤੇ ਜਿਹੜਾ ਸਲੂਕ ਉਸ ਨਾਲ ਹੁੰਦਾ ਹੈ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਗੱਲਾਂ ਕਾਰਨ ਸਮਾਜ ਤਾਈਂ ਉਸ ਦਾ ਦਿਲ ਸਖਤ ਹੋ ਜਾਏਗਾ। ਫਰਜ਼ ਕਰੋ ਕਿ ਉਹ ਕੋਈ ਪਾਪ ਕਰਦਾ ਹੈ, ਤਾਂ ਇਸ ਦਾ ਖਮਿਆਜ਼ਾ ਕੌਣ ਭੁਗਤੇਗਾ? ਰੱਬ, ਪਾਪ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਜਾਂ ਸਮਾਜ ਦੇ ਗੁਣੀ ਗਿਆਨੀ ਬੰਦੇ? ਉਨ੍ਹਾਂ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਮਿਲੀਆਂ ਸਜ਼ਾਵਾਂ ਬਾਰੇ ਤੁਸੀਂ ਕੀ ਆਖੋਗੇ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੂੰ ਹਿਰਸੀ ਤੇ ਹੰਕਾਰੀ ਬ੍ਰਾਹਮਣਾਂ ਨੇ ਜਾਣ ਬੁੱਝ ਕੇ ਅਗਿਆਨ ਦੀਆਂ ਗਾਰਾਂ ਵਿਚ ਸੁੱਟਿਆ ਸੀ। ਉਨ੍ਹਾਂ ਦਾ ਕਸੂਰ ਇਹੋ ਸੀ ਕਿ ਉਨ੍ਹਾਂ ਪਾਪੀਆਂ ਨੇ ਤੁਹਾਡੇ ਗਿਆਨ ਦੀਆਂ ਪਵਿੱਤਰ ਪੋਥੀਆਂ ਵੇਦਾਂ ਦੀਆਂ ਕੁਝ ਸਤਰਾਂ ਆਪਣੇ ਕੰਨੀ ਸੁਣ ਲਈਆਂ ਸਨ ਤੇ ਤੁਸੀਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਕੰਨਾਂ ਵਿਚ ਸਿੱਕਾ ਢਾਲ ਕੇ ਪਾ ਦਿੱਤਾ ਸੀ। ਜੇ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਕੋਈ ਕਸੂਰ ਕੀਤਾ ਸੀ ਤਾਂ ਇਸ ਦਾ ਜ਼ਿੰਮੇਦਾਰ ਕੌਣ ਸੀ ਤੇ ਬਿਪਤਾ ਕਿਸ ਦੇ ਸਿਰ ਪੈਣੀ ਸੀ? ਮੇਰੇ ਪਿਆਰੇ ਦੋਸਤੋ: ਇਹ ਸਾਰੇ ਸਿਧਾਂਤ ਖਾਸ ਅਧਿਕਾਰਾਂ ਦੇ ਮਾਲਕਾਂ ਦੀਆਂ ਕਾਢਾਂ ਹੀ ਹਨ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਸਦਕਾ ਉਹ ਆਪਣੀ ਲੁੱਟੀ ਹੋਈ ਤਾਕਤ, ਦੌਲਤ ਤੇ ਉਤਮਤਾ ਨੂੰ ਵਾਜਬ ਠਹਿਰਾਉਂਦੇ ਹਨ। ਹਾਂ, ਸ਼ਾਇਦ ਅਪਟਨ ਸਿਨਕਲੇਅਰ (ਅਮਰੀਕੀ ਲੇਖਕ ਤੇ ਸੋਸ਼ਲਿਸਟ ਪਾਰਟੀ ਦਾ ਕਾਰਕੁਨ, ਭਗਤ ਸਿੰਘ ਦਾ ਇਸ਼ਾਰਾ ਸ਼ਾਇਦ ਸਿਨਕਲੇਅਰ ਦੇ ੧੯੧੮ ਵਿਚ ਲਿਖੇ ਪੈਂਫਲਿਟ 'ਪਰੌਫਿਟਸ ਆਫ ਰਿਲੀਜਨ (ਧਰਮ ਦੇ ਮੁਨਾਫ਼ੇ) ਵੱਲ ਹੈ, ਨੇ ਕਿਸੇ ਥਾਂ ਲਿਖਿਆ ਸੀ ਕਿ ਬੰਦੇ ਨੂੰ (ਆਤਮਾ ਦੀ) ਅਮਰਤਾ ਵਿਚ ਯਕੀਨ ਕਰਨ ਲਾ ਦਿਓ ਤੇ ਫਿਰ ਉਸ ਕੋਲ ਜੋ ਕੁਝ ਵੀ ਹੈ, ਉਹ ਲੁੱਟ ਲਓ। ਉਹ ਸਗੋਂ ਹੱਸ ਕੇ ਤੁਹਾਡੀ ਮਦਦ ਕਰੇਗਾ। ਧਾਰਮਿਕ ਉਪਦੇਸ਼ਕਾਂ ਤੇ ਹੁਕਮਰਾਨਾਂ ਨੇ ਮਿਲੀਭੁਗਤ ਕਰ ਕੇ ਜੇਲ੍ਹਾਂ, ਫਾਂਸੀਆਂ, ਕੋਰੜੇ ਤੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਦੀ ਕਾਢ ਕੱਢੀ ਸੀ।
ਮੈਨੂੰ ਦੱਸੋ ਕਿ ਤੁਹਾਡਾ ਸਰਬ-ਸ਼ਕਤੀਮਾਨ ਰੱਬ ਹਰ ਕਿਸੇ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਕਸੂਰ ਜਾਂ ਪਾਪ ਕਰਨੋਂ ਵਰਜਦਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ? ਉਸ ਲਈ ਤਾਂ ਇਹ ਕੰਮ ਬਹੁਤ ਸੌਖਾ ਹੈ। ਉਸ ਨੇ ਜੰਗਬਾਜ਼ਾਂ ਨੂੰ ਕਿਉਂ ਨਾ ਜਾਨੋਂ ਮਾਰਿਆ ਜਾਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੇ ਜੰਗੀ ਪਾਗਲਪਨ ਨੂੰ ਮਾਰ ਕੇ ਵੱਡੀ ਜੰਗ ਨਾਲ ਮਨੁੱਖਤਾ ਉਤੇ ਆਈ ਪਰਲੋ ਨੂੰ ਕਿਉਂ ਨਾ ਬਚਾਇਆ? ਉਹ ਅੰਗਰੇਜ਼ ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਮਨਾਂ ਵਿਚ ਕੋਈ ਇਹੋ ਜਿਹਾ ਜਜ਼ਬਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਭਰ ਦਿੰਦਾ ਕਿ ਉਹ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਛੱਡ ਕੇ ਚਲੇ ਜਾਣ? ਉਹ ਸਾਰੇ ਸਰਮਾਏਦਾਰਾਂ ਦੇ ਦਿਲਾਂ ਵਿਚ ਇਹ ਜਜ਼ਬਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਭਰ ਦਿੰਦਾ ਕਿ ਉਹ ਪੈਦਾਵਾਰੀ ਸਾਧਨਾਂ ਦੀ ਸਾਰੀ ਜਾਇਦਾਦ ਨੂੰ ਛੱਡ ਦੇਣ ਤੇ ਸਾਰੇ ਮਿਹਨਤਕਸ਼ ਤਬਕੇ ਨੂੰ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਸਗੋਂ ਸਾਰੇ ਮਨੁੱਖੀ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਪੂੰਜੀਵਾਦ ਦੇ ਬੰਧਨ ਤੋਂ ਛੁਟਕਾਰਾ ਦੇ ਦੇਣ। ਤੁਸੀਂ ਬਹਿਸ ਕਰਨਾ ਚਾਹੋਗੇ ਕਿ ਸਮਾਜਵਾਦੀ ਸਿਧਾਂਤ ਲਾਗੂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜਾਂ ਨਹੀਂ, ਮੈਂ ਇਸ ਨੂੰ ਲਾਗੂ ਕਰਨ ਦਾ ਜ਼ਿੰਮਾ ਤੁਹਾਡੇ ਪਰਵਰਦਿਗਾਰ ਉਤੇ ਸੁੱਟਦਾ ਹਾਂ। ਜਿਥੋਂ ਤੱਕ ਆਮ ਲੋਕ ਭਲਾਈ ਦਾ ਸਬੰਧ ਹੈ, ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਸਮਾਜਵਾਦ ਦੇ ਗੁਣਾਂ ਦਾ ਪਤਾ ਹੈ। ਉਹ ਇਸ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਇਸ ਨੁਕਤੇ ਤੋਂ ਕਰਦੇ ਹਨ ਕਿ ਇਹ ਲਾਗੂ ਨਹੀਂ ਹੋ ਸਕਦਾ। ਚਲੋ, ਤੁਹਾਡਾ ਰੱਬ ਚਾਹਵੇ ਤੇ ਸਭ ਕੁਝ ਬਾਕਾਇਦਾ ਤਰੀਕੇ ਨਾਲ ਕਰ ਦੇਵੇ। ਹੁਣ ਤੁਸੀਂ ਦਲੀਲ ਵਿਚੋਂ ਦਲੀਲ ਕੱਢਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਨਾ ਕਰਨੀ। ਮੈਂ ਤੁਹਾਨੂੰ ਦੱਸਦਾ ਹਾਂ: ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਉਤੇ ਜੇ ਬਰਤਾਨਵੀ ਹਕੂਮਤ ਹੈ ਤਾਂ ਇਹ ਰੱਬ ਦੀ ਮਰਜ਼ੀ ਕਾਰਨ ਨਹੀਂ ਹੈ, ਸਗੋਂ ਇਸ ਕਾਰਨ ਹੈ ਕਿ ਸਾਡੇ ਵਿਚ ਇਸ ਦਾ ਵਿਰੋਧ ਕਰਨ ਦੀ ਹਿੰਮਤ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਉਹ ਰੱਬ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ ਸਾਨੂੰ ਗੁਲਾਮ ਨਹੀਂ ਰੱਖ ਰਹੇ, ਸਗੋਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬੰਦੂਕਾਂ, ਤੋਪਾਂ, ਬੰਬਾਂ, ਗੋਲੀਆਂ, ਪੁਲਿਸ ਤੇ ਫੌਜ ਦੀ ਮਦਦ ਨਾਲ ਸਾਨੂੰ ਗੁਲਾਮ ਬਣਾਇਆ ਹੋਇਆ ਹੈ ਅਤੇ ਸਾਡਾ ਕੀ ਕਸੂਰ ਹੈ ਕਿ ਉਹ (ਮਨੁੱਖੀ) ਸਮਾਜ ਵਿਰੁਧ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਘਿਨਾਉਣਾ ਗੁਨਾਹ ਇਹ ਕਰ ਰਹੇ ਹਨ ਕਿ ਇਕ ਕੌਮ ਹੱਥੋਂ ਦੂਜੀ ਕੌਮ ਲੁੱਟੀ ਜਾ ਰਹੀ ਹੈ। ਕਿਥੇ ਹੈ ਰੱਬ? ਉਹ ਕਰ ਕੀ ਰਿਹਾ ਹੈ? ਕੀ ਉਹ ਮਨੁੱਖਤਾ ਦੀਆਂ ਇਨ੍ਹਾਂ ਸਾਰੀਆਂ ਦੁੱਖ ਤਕਲੀਫਾਂ ਦਾ ਮਜ਼ਾ ਲੈ ਰਿਹਾ ਹੈ? ਉਹ ਨੀਰੋ ਹੈ, ਉਹ ਚੰਗੇਜ਼ ਖਾਂ ਹੈ। ਰੱਬ ਮੁਰਦਾਬਾਦ!
ਤੁਸੀਂ ਮੈਨੂੰ ਇਹ ਪੁੱਛੋਗੇ ਕਿ ਇਸ ਦੁਨੀਆਂ ਦਾ, ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਅਰੰਭ ਕਿਵੇਂ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਚਾਰਲਸ ਡਾਰਵਿਨ (1809-1882, ਅੰਗਰੇਜ਼ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀਵਾਦੀ, 19ਵੀਂ ਸਦੀ ਦੀ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਡੀ ਜਿੱਤ, ਉਸ ਦੀ ੧੮੫੯ ਵਿਚ ਛਪੀ 'ਓਰਿਜਨ ਆਫ਼ ਸਪੀਸੀਜ਼' ਸੀ ਜਿਸ ਵਿਚ ਪ੍ਰਕ੍ਰਿਤੀ ਦੇ ਵਿਕਾਸ ਦਾ ਸਿਧਾਂਤ ਸੀ। ਇਸ ਸਿਧਾਂਤ ਨੇ ਕੁਦਰਤ ਸਬੰਧੀ ਧਾਰਮਿਕ ਤੇ ਵਿਚਾਰਵਾਦੀ ਸੰਕਲਪਾਂ ਨੂੰ ਤੋੜ ਦਿੱਤਾ) ਨੇ ਇਸ ਵਿਸ਼ੇ ਬਾਰੇ ਚਾਨਣਾ ਪਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕੀਤੀ ਹੈ। ਉਸ ਦਾ ਮੁਤਾਲਿਆ ਕਰੋ। ਸੋਹੰਮ ਸਵਾਮੀ ਦੀ ਕਿਤਾਬ 'ਕਾਮਨਸੈਂਸ' (ਸਾਧਾਰਨ ਗਿਆਨ) ਪੜ੍ਹੋ। ਤੁਹਾਨੂੰ ਇਸ ਸਵਾਲ ਦਾ ਕੁਝ ਹੱਦ ਤੱਕ ਜਵਾਬ ਮਿਲ ਜਾਏਗਾ। ਇਹ ਕੁਦਰਤ ਦਾ ਵਿਸ਼ਾ ਹੈ। ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੇ ਇਤਫ਼ਾਕੀਆ ਮੇਲ ਨਾਲ ਧਰਤੀ ਤੇ ਬੂਲੇ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਪੈਦਾ ਹੋਈ ਸੀ। ਕਦੋਂ? ਇਹ ਜਾਣਨ ਲਈ ਇਤਿਹਾਸ ਪੜ੍ਹੋ। ਇਸ ਅਮਲ ਵਿਚ ਜਾਨਵਰ ਤੇ ਫਿਰ ਅਖੀਰ ਵਿਚ ਮਨੁੱਖ ਪੈਦਾ ਹੋਇਆ ਸੀ। ਤੁਸੀਂ ਡਾਰਵਿਨ ਦੀ ਕਿਤਾਬ 'ਓਰਿਜਨ ਆਫ਼ ਸਪੀਸੀਜ਼' ਪੜ੍ਹੋ ਅਤੇ ਉਸ ਤੋਂ ਮਗਰੋਂ ਜੋ ਵੀ ਉਨਤੀ ਹੋਈ, ਉਹ ਮਨੁੱਖ ਦੀ ਕੁਦਰਤ ਨਾਲ ਲਗਾਤਾਰ ਟੱਕਰ ਤੇ ਮਨੁੱਖ ਵੱਲੋਂ ਕੁਦਰਤ ਉਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾਉਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਵਜੋਂ ਹੋਈ ਸੀ। ਧਰਤੀ ਦੇ ਆਦਿ ਬਾਰੇ ਇਹ ਸਭ ਸੰਖੇਪ ਜਿਹਾ ਵੇਰਵਾ ਹੈ।
ਤੁਹਾਡਾ ਅਗਲਾ ਸਵਾਲ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ਕਿ ਪਿਛਲੇ ਜਨਮ ਵਿਚ ਮਾੜੇ ਕਰਮ ਨਾ ਕੀਤੇ ਹੋਣ ਤਾਂ ਕੋਈ ਬੱਚਾ ਅੰਨ੍ਹਾ ਜਾਂ ਲੰਗੜਾ ਕਿਉਂ ਜੰਮਦਾ ਹੈ? ਜੀਵ ਵਿਗਿਆਨੀਆਂ ਨੇ ਇਸ ਸਮੱਸਿਆ ਦਾ ਜ਼ਿਕਰ ਕੀਤਾ ਹੈ ਕਿ ਇਹ ਜੀਵ ਵਿਗਿਆਨਿਕ ਵਿਸ਼ਾ ਹੈ। ਇਸ ਦੇ ਕਾਰਨ ਬੱਚੇ ਦੇ ਮਾਂ-ਪਿਓ ਦੇ ਜੀਵ-ਇਤਿਹਾਸ ਵਿਚ ਹੀ ਹੁੰਦੇ ਹਨ।
ਕੁਦਰਤਨ ਤੁਸੀਂ ਇਕ ਹੋਰ ਸਵਾਲ ਪੁੱਛ ਸਕਦੇ ਹੋ: ਭਾਵੇਂ ਇਹ ਨਿਰਾ ਬਚਗਾਨਾ ਸਵਾਲ ਹੀ ਹੈ। ਉਹ ਸਵਾਲ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜੇ ਰੱਬ ਨਹੀਂ ਸੀ ਤਾਂ ਫਿਰ ਲੋਕ ਉਸ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਕਿਵੇਂ ਲੱਗੇ? ਮੇਰਾ ਜਵਾਬ ਸਪਸ਼ਟ ਤੇ ਸੰਖੇਪ ਹੋਵੇਗਾ। ਜਿਵੇਂ ਲੋਕ ਭੂਤ-ਪ੍ਰੇਤਾਂ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲੱਗ ਪਏ ਸੀ, ਓਵੇਂ ਹੀ ਉਹ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲੱਗ ਪਏ। ਫਰਕ ਸਿਰਫ਼ ਇੰਨਾ ਹੈ ਕਿ ਰੱਬ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਤਕਰੀਬਨ ਸਰਬ-ਵਿਆਪਕ ਹੈ ਤੇ ਇਸ ਦਾ ਦਰਸ਼ਨ ਕਾਫ਼ੀ ਵਿਕਸਿਤ ਹੈ। ਕੁਝ ਪਰਿਵਰਤਨਕਾਰੀਆਂ (ਰੈਡੀਕਲਜ਼) ਵਾਂਗ ਮੇਰਾ ਇਹ ਵਿਚਾਰ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿ ਰੱਬ ਆਦਿ ਲੁੱਟ-ਖਸੁੱਟ ਕਰਨ ਵਾਲਿਆਂ ਦੀ ਕਰਤੂਤ ਸੀ, ਤਾਂ ਕਿ ਉਹ ਸਰਬ-ਉਚ ਸੱਤਾ ਦੀ ਹੋਂਦ ਦਾ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰ ਕੇ ਆਪਣੀਆਂ ਗੱਦੀਆਂ ਕਾਇਮ ਰੱਖਣ ਲਈ ਲੋਕਾਂ ਨੂੰ ਗੁਲਾਮ ਰੱਖ ਸਕਣ। ਭਾਵੇਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਮੇਰਾ ਇਸ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨੁਕਤੇ ਨਾਲ ਕੋਈ ਮਤਭੇਦ ਨਹੀਂ ਹੈ ਕਿ ਸਾਰੇ ਧਾਰਮਿਕ ਮੱਤ, ਧਰਮ, ਸਿਧਾਂਤ ਤੇ ਹੋਰ ਇਹੋ ਜਿਹੀਆਂ ਸੰਸਥਾਵਾਂ ਆਖਰਕਾਰ ਜਾਬਰ, ਦਮਨਕਾਰੀ ਸੰਸਥਾਵਾਂ, ਵਿਅਕਤੀਆਂ ਤੇ ਜਮਾਤਾਂ ਦੀਆਂ ਹਮਾਇਤੀ ਹੀ ਹੋ ਨਿਬੜੀਆਂ ਹਨ। ਹਰ ਧਰਮ ਇਹ ਕਹਿੰਦਾ ਹੈ ਕਿ ਬਾਦਸ਼ਾਹ ਵਿਰੁਧ ਬਗਾਵਤ ਕਰਨਾ ਹਮੇਸ਼ਾ ਹੀ ਪਾਪ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਰੱਬ ਦੇ ਆਦਿ ਬਾਰੇ ਮੇਰਾ ਆਪਣਾ ਵਿਚਾਰ ਇਹ ਹੈ ਕਿ ਜਦ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਆਪਣੀਆਂ ਸੀਮਾਵਾਂ ਕਮਜ਼ੋਰੀਆਂ ਤੇ ਕਮੀਆਂ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ ਹੋ ਗਿਆ ਤਾਂ ਉਸ ਨੇ ਰੱਬ ਦੀ ਕਾਲਪਨਿਕ ਹੋਂਦ ਬਣਾ ਲਈ, ਤਾਂ ਕਿ ਇਮਤਿਹਾਨੀ ਹਾਲਤ ਦਾ ਦ੍ਰਿੜਤਾ ਨਾਲ ਸਾਹਮਣਾ ਕਰਨ ਲਈ ਮਨੁੱਖ ਨੂੰ ਹੌਸਲਾ ਮਿਲੇ, ਤਾਂ ਕਿ ਸਾਰੇ ਖਤਰਿਆਂ ਦਾ ਜਵਾਂ-ਮਰਦੀ ਨਾਲ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕਰ ਸਕੇ ਅਤੇ ਖੁਸ਼ਹਾਲੀ ਤੇ ਅਮੀਰੀ ਦੀ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਆਪਣੀਆਂ ਇੱਛਾਵਾਂ 'ਤੇ ਕਾਬੂ ਪਾ ਸਕੇ। ਮਨੁੱਖ ਨੇ ਰੱਬ ਨੂੰ ਇਹਦੇ ਨਿੱਜ ਰੂਪਕ ਨੇਮਾਂ ਤੇ ਪਾਲਣਹਾਰ ਗੁਣਾਂ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਚਿਤਵਿਆ ਤੇ ਚਿਤਰਿਆ ਸੀ। ਉਹਦੀ ਕਰੋਪੀ ਤੇ ਨਿੱਜ ਰੂਪਕ ਨੇਮਾਂ ਨੂੰ ਵਿਚਾਰਨ ਵੇਲੇ ਉਹ ਤਾੜਨਾ ਦਾ ਕੰਮ ਦਿੰਦਾ ਸੀ ਤਾਂ ਜੋ ਮਨੁੱਖ ਸਮਾਜ ਵਾਸਤੇ ਖਤਰਾ ਨਾ ਬਣ ਜਾਵੇ। ਉਹਦੇ ਪਾਲਣਹਾਰ ਗੁਣਾਂ ਵਿਚ ਉਹ ਮਾਂ-ਪਿਤਾ, ਭੈਣ, ਭਾਈ, ਦੋਸਤ ਤੇ ਮਦਦਗਾਰ ਸੀ ਤਾਂ ਕਿ ਉਸ ਹਾਲਤ ਵਿਚ ਜਦ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਔਖੇ ਵੇਲੇ ਹਰ ਕੋਈ ਛੱਡ ਜਾਵੇ ਤਾਂ ਉਸ ਘੜੀ ਵੀ ਬੰਦੇ ਨੂੰ ਇਹ ਧਰਵਾਸ ਰਹੇ ਕਿ ਉਹਦੀ ਮਦਦ ਕਰਨ ਲਈ, ਉਹਨੂੰ ਢਾਰਸ ਦੇਣ ਲਈ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤ ਰਹਿਣ ਵਾਲਾ ਸੱਚਾ ਮਿੱਤਰ ਰੱਬ ਹੈ। ਆਦਿ ਕਾਲ ਵਿਚ ਰੱਬ ਸੱਚੇ ਅਰਥਾਂ ਵਿਚ ਸਮਾਜ ਲਈ ਲਾਹੇਬੰਦ ਸੀ। ਔਖੀ ਘੜੀ ਵੇਲੇ ਰੱਬ ਦਾ ਵਿਚਾਰ ਬੰਦੇ ਲਈ ਮਦਦਗਾਰ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਸਮਾਜ ਨੇ ਜਿਵੇਂ ਬੁੱਤ ਪੂਜਾ ਤੇ ਧਰਮ ਦੇ ਤੰਗ ਨਜ਼ਰ ਸੰਕਲਪ ਵਿਰੁਧ ਲੜਾਈ ਲੜੀ ਸੀ, ਉਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਸਮਾਜ ਨੂੰ ਰੱਬ ਦੇ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਵਿਰੁਧ ਲੜਨਾ ਪੈਣਾ ਹੈ। ਇਸੇ ਤਰ੍ਹਾਂ ਜਦ ਬੰਦਾ ਆਪਣੇ ਪੈਰੀਂ ਹੋਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰਨ ਲੱਗਾ ਤੇ ਯਥਾਰਥਵਾਦੀ ਹੋਣ ਲੱਗਾ ਹੈ ਤਾਂ ਉਹਨੂੰ ਰੱਬ ਦਾ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਲਾਂਭੇ ਸੁੱਟਣਾ ਪਏਗਾ ਤੇ ਹਰ ਮੁਸ਼ਕਿਲ, ਹਰ ਆਫ਼ਤ ਤੇ ਹਰ ਤਰ੍ਹਾਂ ਦੀ ਹਾਲਤ ਦਾ ਡਟ ਕੇ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕਰਨਾ ਪਏਗਾ। ਇਸ ਵੇਲੇ ਮੇਰੀ ਹਾਲਤ ਬਿਲਕੁਲ ਇਹੀ ਹੈ। ਮੇਰੇ ਦੋਸਤੋ, ਮੇਰਾ ਇਹ ਕੋਈ ਅਹੰਕਾਰ ਨਹੀਂ ਹੈ। ਮੈਂ ਆਪਣੀ ਸੋਚਣ ਵਿਧੀ ਨਾਲ ਹੀ ਨਾਸਤਿਕ ਬਣਿਆ ਹਾਂ। ਮੇਰਾ ਖਿਆਲ ਨਹੀਂ ਕਿ ਰੱਬ ਵਿਚ ਵਿਸ਼ਵਾਸ ਕਰਨ ਨਾਲ ਤੇ ਹਰ ਰੋਜ਼ ਅਰਦਾਸ ਕਰਨ ਨਾਲ (ਜਿਹੜਾ ਮੈਂ ਮਨੁੱਖ ਦਾ ਸਭ ਤੋਂ ਵੱਧ ਖੁਦਗਰਜ਼ੀ ਕਰਨ ਵਾਲਾ ਤੇ ਘਟੀਆ ਕੰਮ ਸਮਝਦਾ ਹਾਂ) ਮੇਰਾ ਕੁਝ ਸੌਰ ਸਕਦਾ ਹੈ ਜਾਂ ਇਹਦੇ ਨਾਲ ਮੇਰੀ ਹਾਲਤ ਹੋਰ ਵੀ ਭੈੜੀ ਹੋ ਜਾਵੇਗੀ। ਮੈਂ ਉਨ੍ਹਾਂ ਨਾਸਤਿਕਾਂ ਬਾਰੇ ਪੜ੍ਹਿਆ ਹੈ ਜਿਨ੍ਹਾਂ ਨੇ ਬਹੁਤ ਡਟ ਕੇ ਸਾਰੀਆਂ ਮੁਸ਼ਕਿਲਾਂ ਦਾ ਮੁਕਾਬਲਾ ਕੀਤਾ ਸੀ। ਇਸੇ ਲਈ ਮੈਂ ਅਖੀਰ ਤੱਕ ਫਾਂਸੀ ਦੇ ਤਖ਼ਤੇ 'ਤੇ ਵੀ, ਮਰਦ ਵਾਂਗ ਸਿਰ ਤਾਣ ਕੇ ਸਾਬਤ ਕਦਮ ਰਹਿਣ ਦੀ ਕੋਸ਼ਿਸ਼ ਕਰ ਰਿਹਾ ਹਾਂ।
ਦੇਖੀਏ, ਮੈਂ ਇਸ 'ਤੇ ਕਿੰਨਾ ਕੁ ਪੂਰਾ ਉਤਰਦਾ ਹਾਂ। ਮੇਰੇ ਕਿਸੇ ਦੋਸਤ ਨੇ ਮੈਨੂੰ ਅਰਦਾਸ ਕਰਨ ਲਈ ਕਿਹਾ ਸੀ। ਜਦ ਮੈਂ ਉਹਨੂੰ ਦੱਸਿਆ ਕਿ ਮੈਂ ਤਾਂ ਨਾਸਤਿਕ ਹਾਂ, ਤਾਂ ਉਹ ਕਹਿਣ ਲੱਗਾ, "ਦੇਖੀਂ ਆਪਣੇ ਅਖੀਰੀ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਤੂੰ ਰੱਬ ਨੂੰ ਮੰਨਣ ਲੱਗ ਜਾਏਂਗਾ।" ਮੈਂ ਅੱਗਿਉਂ ਕਿਹਾ, ਨਹੀਂ ਪਿਆਰੇ ਜਨਾਬ ਜੀ, ਇਸ ਤਰ੍ਹਾਂ ਹਰਗਿਜ਼ ਨਹੀਂ ਹੋਣ ਲੱਗਾ। ਇੰਜ ਕਰਨਾ ਮੇਰੇ ਲਈ ਬੜੀ ਘਟੀਆ ਤੇ ਪਸਤੀ ਵਾਲੀ ਗੱਲ ਹੋਵੇਗੀ। ਖੁਦਗਰਜ਼ੀ ਵਾਸਤੇ ਮੈਂ ਅਰਦਾਸ ਨਹੀਂ ਕਰਨੀ। ਪਾਠਕੋ ਤੇ ਦੋਸਤੋ, ਕੀ ਇਹ ਹਉਮੈ ਹੈ। ਜੇ ਇਹ ਹੈ ਤਾਂ ਮੈਂ ਇਸ ਲਈ ਦ੍ਰਿੜ ਹਾਂ।
 ਸ਼ਹੀਦ ਭਗਤ ਸਿੰਘ