रणचण्डी के इस परम भक्त विद्रोही कर्तार
सिंह की आयु अभी बीस वर्ष की भी नहीं हुई थी कि जब उन्होंने
स्वतन्त्रता-देवी की बलिवेदी पर अपना बलिदान दे दिया। आँधी की तरह वह अचानक
कहीं से आये, अग्नि प्रज्वलित की और सपनों में पड़ी रणचण्डी को जगाने की
कोशिश की। विद्रोह का यज्ञ रचा और आख़िर वह स्वयं इसमें भस्म हो गये। वे
क्या थे, किस दुनिया से अचानक आये और झट कहाँ चले गये? हम कुछ भी न जान
सके। 19 वर्ष की आयु में ही उन्होंने इतने काम कर दिखाये कि सोचकर हैरानी
होती है। इतनी ज़ुर्रत, इतना आत्मविश्वास, इतना आत्मत्याग और ऐसी लगन बहुत
कम देखने को मिलती है। भारतवर्ष में ऐसे इन्सान बहुत कम पैदा हुए हैं,
जिनको सही अर्थों में विद्रोही कहा जा सकता है, परन्तु इन गिने-चुने नेताओं
में कर्तार सिंह का नाम सूची में सबसे ऊपर है। उनकी रग-रग में क्रान्ति का
जज़्बा समाया हुआ था। उनकी ज़िन्दगी का एक ही लक्ष्य, एक ही इच्छा और एक
ही आशा, जो भी था – क्रान्ति थी, इसीलिए उन्होंने ज़िन्दगी में पाँव रखा और
आख़िर इसीलिए इस दुनिया से कूच कर गये।
आपका
जन्म 1896 में गाँव सराभा, ज़िला लुधियाना में हुआ था। आप माता-पिता के
इकलौते बेटे थे। अभी इनकी आयु बहुत कम थी कि पिताजी का देहावसान हो गया।
परन्तु आपके दादा ने बहुत प्रयत्न से आपको पाला। नवीं कक्षा पढ़ने के बाद आप
अपने चाचा के यहाँ चले गये। वहाँ उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की और
कॉलेज में पढ़ने लगे। यह 1910-11 के दिन थे। इधर आपको स्कूल और कॉलेज के
पाठ्यक्रम के तंग दायरे से बाहर की बहुत-सी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। यह
आन्दोलन का ज़माना था। इस वातावरण में रहकर आपकी देशप्रेम की भावना पल्लवित
हुई।
इसके बाद आपकी अमेरिका जाने की इच्छा हुई।
घरवालों ने उसका कोई विरोध नहीं किया। आपको अमेरिका भेज दिया गया। सन्
1912 में आप सानफ्रांसिस्को की बन्दरगाह पर पहुँचे। आज़ाद देश में पहुँचकर
क़दम-क़दम पर आपके कोमल हृदय पर चोट पड़ने लगी। इन गोरों की ज़बान से Damn
Hindu (तुच्छ हिन्दू) और Black Man (काला आदमी) आदि सुनते ही वे पागल हो
उठते थे। उनको क़दम-क़दम पर देश की इज़्ज़त व सम्मान ख़तरे में नज़र आने लगे।
घर की याद आने पर ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ विवश भारत सामने आ जाता। उनका कोमल
दिल धीरे-धीरे सख़्त होने लगा और देश की आज़ादी के लिए ज़िन्दगी क़ुर्बान
करने का निश्चय दृढ़ होता गया। उनके दिल पर उस समय क्या गुज़रती थी, यह हम
कैसे समझ सकते हैं।
यह असम्भव था कि वे चैन से रह पाते। हर
समय उनके सामने यह प्रश्न उठने लगा कि यदि शान्ति से काम न चला तो देश आज़ाद
किस तरह होगा? फिर बिना अधिक सोचे उन्होंने भारतीय मज़दूरों का संगठन शुरू
कर दिया। उनमें आज़ादी की भावना उभरने लगी। हर मज़दूर के पास घण्टों बैठकर वे
समझाने लगे कि अपमान से भरी ग़ुलामी की ज़िन्दगी से तो मौत हज़ार दर्जा
अच्छी है। काम शुरू होने पर और लोग भी उनसे आ मिले। मई, 1912 में इन लोगों
की एक ख़ास बैठक हुई। इसमें कुछ चुनिन्दा हिन्दुस्तानी शामिल हुए। सभी ने
देश की आज़ादी के लिए तन, मन, धन न्योछावर करने का प्रण लिया। इन्हीं दिनों
पंजाब के जलावतन देशभक्त भगवान सिंह वहाँ पहुँचे। धड़ाधड़ जलसे होने लगे,
उपदेश होने लगे। काम से काम चलता गया। मैदान तैयार हो गया। फिर अख़बार की
ज़रूरत महसूस होने लगी। ‘ग़दर’ नामक अख़बार निकाला गया। इसका प्रथम अंक
नवम्बर 1913 में निकाला गया। इसके सम्पादकीय विभाग में कर्तार सिंह भी थे।
आपकी क़लम में अथाह जोश था। सम्पादकीय विभाग के लोग अख़बार को हैण्ड प्रेस
पर छापते थे। कर्तार सिंह क्रान्ति-पसन्द मतवाले नौजवान थे। प्रेस चलाते
हुए थक जाने पर वे गीत गाया करते थे –
सेवा देश दी जिन्दड़िए बड़ी औखी,
गल्लाँ करनीआँ ढेर सुखल्लीयाँ ने।
जिन्नाँ देशसेवा विच पैर पाया,
उन्नाँ लक्ख मुसीबताँ झल्लियाँ ने।
(देशसेवा करनी बहुत मुश्किल है, जबकि
बातें करना ख़ूब आसान है। जिन्होंने देशसेवा के रास्ते पर क़दम उठा लिया वे
लाख मुसीबतें झेलते हैं।)
कर्तार सिंह जिस लगन से परिश्रम करते थे
उससे सभी की हिम्मत बढ़ जाती थी। भारत को किस तरह आज़ाद कराया जाये, यह किसी
और को पता चले या नहीं, और किसी ने इस सवाल पर सोचा हो या नहीं, लेकिन
कर्तार सिंह ने इस सवाल पर बहुत कुछ सोच रखा था। इसी दौरान आप न्यूयार्क
में विमान कम्पनी में भरती हो गये और वहीं दिल लगाकर काम सीखने लगे।
सितम्बर, 1914 में कामागाटामारू जहाज़ को
अत्याचारी गोरे साम्राज्यवादियों के हाथ से अवर्णनीय यातनाएँ झेलने पर वैसे
लौटना पड़ा। तब हमारे कर्तार सिंह, क्रान्तिप्रिय गुप्ता और एक अमेरिकी
अराजकतावादी जैक को साथ लेकर जापान आये और कोबे में बाबा गुरदित्त सिंह जी
से मिलकर सब बातचीत की। युगान्तर आश्रम, सानफ्रांसिस्को के ग़दर प्रेस में
‘ग़दर और ग़दर की गूँज’ और अन्य बहुत-सी पुस्तकें छापकर बाँटी जाती रहीं।
दिनोदिन प्रचार बढ़ता गया। जोश बढ़ता गया। फ़रवरी, 1914 में स्टाकरन के
पब्लिक जलसे में आज़ादी का झण्डा लहराया गया और आज़ादी और बराबरी के नाम पर
क़समें खायी गयीं। इस जलसे के मुख्य वक्ताओं में कर्तार सिंह भी थे। सभी ने
घोषणा की कि वह अपने ख़ून-पसीने की कमाई एक-एक कर देश की आज़ादी के संघर्ष
में लगा देंगे। इसी तरह दिन गुज़रते रहे। अचानक यूरोप में प्रथम विश्वयुद्ध
छिड़ने की ख़बर आयी। वे ख़ुशी से फूले नहीं समाते थे। एकदम सभी गाने लगे –
चलो चलें देश के लिए युद्ध करने,
यही आख़िरी वचन व फ़रमान हो गये।
कर्तार सिंह ने देश लौटने का ज़ोरों से
प्रचार किया। फिर स्वयं जहाज़ पर सवार होकर कोलम्बो (श्रीलंका) पहुँच गये।
इन दिनों अमेरिका से पंजाब आने वाले प्रायः डिफ़ेंस ऑफ़ इण्डिया क़ानून
(डी.आई.आर.) की पकड़ में आ जाते थे। बहुत कम सही-सलामत पहुँच पाते थे।
कर्तार सिंह सही-सलामत आ गये। बड़े ज़ोरों से काम शुरू हुआ। संगठन की कमी थी,
लेकिन किसी तरह वह पूरी की गयी। दिसम्बर, 1914 में मराठा नौजवान विष्णु
गणेश पिगले भी आ गये। इनकी कोशिश से श्री शचीन्द्रनाथ सान्याल और रासबिहारी
पंजाब आये। कर्तार सिंह हर समय हर जगह पहुँचते। आज मोगा में गुप्त मीटिग
है। आप वहाँ भी हैं। कल लाहौर के विद्यार्थियों में प्रचार हो रहा है, आप
फिर प्रथम पंक्ति में हैं। अगले दिन फ़िरोज़पुर छावनी के सैनिकों से गँठजोड़
हो रहा है। फिर हथियारों के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। रुपये की कमी का
प्रश्न उठने पर आपने डाका डालने की सलाह दी। डकैती का नाम सुनते ही बहुत-से
लोग स्तम्भित रह गये, लेकिन आपने कह दिया कि कोई भय नहीं है। भाई परमानन्द
भी डकैती से सहमत हैं। उनसे पुष्टि करवाने की ज़िम्मेदारी आप पर डाली गयी।
अगले दिन बग़ैर उनसे मिले ही कह दिया, “पूछ आया हूँ, वे सहमत हैं।” वे यह
सहन नहीं कर सकते थे कि केवल रुपये की कमी से विद्रोह की तैयारी में देरी
हो।
एक दिन वे डकैती डालने एक गाँव गये।
कर्तार सिंह नेता थे। डकैती चल रही थी। घर में एक बेहद ख़ूबसूरत लड़की भी थी।
उसे देखकर एक पापी आत्मा का मन डोल गया। उसने ज़बरदस्ती लड़की का हाथ पकड़
लिया। लड़की ने घबराकर शोर मचा दिया। कर्तार सिंह एकदम रिवाल्वर तानकर उसके
नज़दीक पहुँच गये और उस आदमी के माथे पर पिस्तौल रखकर उसे निहत्था कर दिया।
फिर कड़ककर बोले, “पापी! तेरा अपराध बहुत गम्भीर है। तुम्हें सज़ा-ए-मौत
मिलनी चाहिए, लेकिन हालात की मजबूरी से तुम्हें माफ़ किया जाता है। फ़ौरन
इस लड़की के पाँवों में गिरकर माफ़ी माँग कि हे बहिन! मुझे माफ़ कर दो। और
इसकी माता जी के पैर छूकर कह कि माता जी, मैं इस पतन के लिए माफ़ी चाहता
हूँ। यदि वे तुम्हें माफ़ कर दें तो तुम्हें ज़िन्दा छोड़ दिया जायेगा वरना
गोली से उड़ा दिया जायेगा।” उसने ऐसा ही किया। बात अभी ज़्यादा नहीं बढ़ी थी।
यह देखकर माँ-बेटी की आँखें भर आयीं। माँ ने कर्तार सिंह को प्यार भरे
लहजे में कहा, “बेटा! ऐसे धर्मात्मा और सुशील नौजवान होकर आप इस काम में
किस तरह शामिल हुए?” कर्तार सिंह का भी दिल भर आया और कहा, “माँ जी! रुपये
के लालच में हमने यह काम शुरू नहीं किया। अपना सबकुछ दाँव पर लगाकर डकैती
डालने आये हैं। हथियार ख़रीदने के लिए रुपये की ज़रूरत है। वह कहाँ से
लायें? माँ जी, इसी महान काम के लिए आज इस काम पर मजबूर हुए हैं।” इस समय
पर यह दृश्य बड़ा दर्दनाक था। माँ ने फिर कहा, “इस लड़की की शादी करनी है।
इसके लिए कुछ छोड़ जाओ तो अच्छा है।” इसके बाद उन्होंने अपना सारा धन माँ के
सामने रख दिया और कहा, “जितना चाहें ले लें।” कुछ पैसा रखकर माँ ने बाक़ी
सारा रुपया कर्तार सिंह की झोली में डाल दिया और आशीर्वाद दिया, “जाओ बेटा,
तुम्हें सफलता मिले।” डकैती जैसे भयानक काम में शामिल होकर भी कर्तार सिंह
का दिल कितना भावनामय, पवित्र व विशाल था, यह इस घटना से ज़ाहिर है।
फ़रवरी, 1915 में विद्रोह की तैयारी थी।
पहले सप्ताह आप पिगले और दूसरे दो-तीन साथियों के साथ आगरा, कानपुर,
इलाहाबाद, लखनऊ, मेरठ व अन्य कई स्थानों पर मत और विद्रोह के लिए उनसे
मेल-मिलाप कर आये। आख़िर वह दिन क़रीब आने लगा, जिसका बड़ी देरी से इन्तज़ार
हो रहा था। 21 फ़रवरी, 1915 भारत में विद्रोह का दिन नियत हुआ था। इसी के
अनुसार तैयारी हो रही थी। लेकिन इसी समय उनकी आशाओं के वृक्ष की जड़ में
बैठा एक चूहा उसे कुतर रहा था। चार-पाँच दिन पहले सन्देह हुआ कि किरपाल
सिंह की ग़द्दारी से सब ध्वस्त हो जायेगा। इसी आशंका से कर्तार सिंह ने
रासबिहारी बोस से विद्रोह की तारीख़ 21 की बजाय 19 फ़रवरी करने के लिए कहा।
ऐसा होने पर भी इसकी भनक किरपाल सिंह को मिल गयी। इस क्रान्तिकारी दल में
एक ग़द्दार का होना कितने ख़तरनाक परिणाम का कारण बना। रासबिहारी और कर्तार
सिंह भी कोई उचित प्रबन्ध न होने से अपना भेद छिपा नहीं पाये। इसका कारण
भारत के दुर्भाग्य के सिवाय और क्या हो सकता है?
कर्तार सिंह पिछले फ़ैसले के अनुसार
पचास-साठ साथियों के साथ फ़िरोज़पुर जा पहुँचे। अपने साथी सैनिक हवलदार से
मिले और विद्रोह की बात की। लेकिन किरपाल सिंह ने तो पहले से ही सारा मामला
बिगाड़ दिया था। हिन्दुस्तानी सिपाही निहत्थे कर दिये गये। धड़ाधड़
गिरफ्तारियाँ होने लगीं। हवलदार ने सहायता करने से इन्कार कर दिया। कर्तार
सिंह की कोशिश असफल रही। निराश हो लाहौर आये। पंजाबभर में गिरफ्तारियों का
चक्कर तेज़ हो गया। अब साथी भी टूटने लगे। ऐसी स्थिति में रासबिहारी बोस
मायूस होकर लाहौर के एक मकान में लेटे हुए थे। कर्तार सिंह भी वहीं आकर एक
चारपाई पर दूसरी ओर मुँह फेर लेट गये। परस्पर कोई बात नहीं की, लेकिन
चुपचाप ही एक-दूसरे के दिल की हालत समझ गये। इनकी हालत का अनुमान हम क्या
लगा सकते हैं!
दरे-तदबीर पर सर फोड़ना शेवः रहा अपना,
वसीले हाथ ही ना आये क़िस्मत आज़माई के।
(हमारा काम भाग्य के दर पर सर फोड़ना ही रहा, लेकिन भाग्य आज़माने के साधन ही हाथ नहीं आये।)
उनकी तो यही ख़्वाहिश थी कि कहीं लड़ाई हो
और वे अपने देश के लिए लड़ते-लड़ते प्राण दे दें। फिर सरगोधा के नज़दीक चक्क
नम्बर पाँच में आ गये। फिर विद्रोह का चर्चा छेड़ दिया। वहीं पकड़े गये।
ज़ंजीरों में जकड़े गये। निर्भीक विद्रोही कर्तार सिंह को लाहौर स्टेशन पर
लाया गया। पुलिस कप्तान से कहा, “मिस्टर टामकिन, कुछ खाना तो लाइये।” वह
कितना मस्त-मौला था। इस आकर्षक व्यक्तित्व को देखकर दोस्त व दुश्मन सब ख़ुश
हो जाते थे। गिरफ्तारी के समय वे बहुत ख़ुश थे। प्रायः कहा करते थे, “वीरता
और हिम्मत से मरने पर मुझे विद्रोही की उपाधि देना। कोई याद करे तो
विद्रोही कर्तार सिंह कहकर याद करे।” मुक़दमा चला। उस समय कर्तार सिंह की
आयु कुल साढ़े अठारह वर्ष थी। सबसे कम आयु के अपराधी आप ही थे, लेकिन जज ने
इनके सम्बन्ध में यह लिखा –
“वह इन अपराधियों में, सबसे ख़तरनाक
अपराधियों में एक है। अमेरिका की यात्रा के दौरान और फिर भारत में इस
षड्यन्त्र का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जिसमें उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका न
निभायी हो।”
एक दिन आपके बयान देने की बारी आयी। आपने
सबकुछ मान लिया। आप क्रान्तिकारी बयान देते रहे। जज क़लम दाँतों के नीचे
दबाये देखता रहा। एक शब्द न लिखा। बाद में इतना कहा, “कर्तार सिंह, अभी
आपका बयान लिखा नहीं गया। आप सोच-समझकर बयान दें। आप जानते हैं कि आपके
बयान का क्या परिणाम हो सकता है?” देखने वाले कहते हैं कि जज के इन शब्दों
को कर्तार सिंह ने बड़ी मस्तानी अदा से केवल इतना कहा, “फाँसी ही तो चढ़ा
देंगे, और क्या? हम इससे नहीं डरते।” इस दिन अदालत की कार्रवाई समाप्त हो
गयी। अगले दिन फिर कर्तार सिंह का अदालत में बयान शुरू हुआ। पहले दिन जजों
का कुछ ऐसा विचार था कि कर्तार सिंह भाई परमानन्द के इशारे पर ऐसा बयान दे
रहे हैं, लेकिन वह विद्रोही कर्तार सिंह के दिल की गहराइयों में नहीं उतर
सकते थे। कर्तार सिंह का बयान अधिक ज़ोरदार, अधिक जोशीला और पहले दिन की तरह
ही इक़बालिया था। आख़िर में आपने कहा, “अपराध के लिए मुझे उम्रक़ैद की सज़ा
मिलेगी या फाँसी। लेकिन मैं फाँसी को प्राथमिकता दूँगा, ताकि फिर जन्म
लेकर – जब तक हिन्दुस्तान आज़ाद नहीं हो, तब तक मैं बार-बार जन्म लेकर –
फाँसी पर लटकता रहूँगा। यही मेरी अन्तिम इच्छा है…”
आपकी वीरता से जज बहुत प्रभावित हुए,
लेकिन उन्होंने विशाल दिलवाले दुश्मन की तरह आपकी वीरता को वीरता न कहकर
बेशर्मी के शब्दों में याद किया। कर्तार सिंह को सिर्फ़ गालियाँ ही नहीं,
मौत की सज़ा भी मिली। आपने मुस्कुराते हुए जजों को धन्यवाद दिया। कर्तार
सिंह फाँसी की कोठरी में क़ैद थे। आपके दादा ने आकर कहा, “कर्तार सिंह,
जिनके लिए मर रहे हो, वे तुम्हें गालियाँ देते हैं। तुम्हारे मरने से देश
को कुछ लाभ होगा, ऐसा भी दिखायी नहीं देता।” कर्तार सिंह ने बहुत धीमे से
पूछा –
“दादा जी, फलाँ रिश्तेदार कहाँ है?”
“प्लेग में मर गया।”
“फलाँ कहाँ है?”
“हैजे से मर गया।”
“तो क्या आप चाहते हैं कि कर्तार सिंह
महीनों बिस्तर पर पड़ा रहे और पीड़ा से दुखी किसी रोग से मरे! क्या उस मौत से
यह मौत हज़ार गुना अच्छी नहीं?” दादा चुप हो गये।
आज फिर सवाल उठता है कि उनके मरने से क्या
लाभ हुआ? वह किसलिए मरे? इसका जवाब बिल्कुल स्पष्ट है। देश के लिए मरे।
उनका आदर्श ही देश-सेवा के लिए लड़ते हुए मरना था। वे इससे ज़्यादा कुछ नहीं
चाहते थे। मरना भी गुमनाम रहकर चाहते थे।
चमन ज़ारे मुहब्बत में, उसी ने बाग़बानी की,
जिसने मिहनत को ही मिहनत का समर जाना।
नहीं होता है मुहताजे नुमाइश फ़ैज़ शबनम का,
अँधेरी रात में मोती लुटा जाती है गुलशन में।
डेढ़ साल तक मुक़दमा चला। 16 नवम्बर, 1915
का दिन था, जब उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। उस दिन भी हमेशा की तरह ख़ुश
थे। इनका वज़न दस पौण्ड बढ़ गया था। ‘भारतमाता की जय’ कहते हुए वे फाँसी के
तख़्ते पर झूल गये।
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